कोरोना महामारी के कारण गांव की तरफ लौट रहे मजदूरों की समस्याओं पर विचार करने के लिए कांग्रेस ने 22 मई को दोपहर तीन बजे विपक्षी पार्टियों की सर्वदलीय बैठक बुलाई। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हुई इस मीटिंग का मुख्य उद्देश्य था कि लॉकडाउन की पृष्ठभूमि में मजदूरों की बढ़ती जा रही समस्याओं पर विचार किया जाये। कांग्रेस का प्रयास था कि समान विचार वाली विपक्षी पार्टियों को एकत्रित कर भविष्य की कोई ठोस रणनीति बनाई जाये। इस मीटिंग में 17 विपक्षी पार्टियों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, लेकिन आश्चर्य की बात है कि भारत के सबसे वंचित और गरीबों की बात करने वाली आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी इस मीटिंग में उपस्थित नहीं थीं। इन पार्टियों की अनुपस्थिति सवाल खड़े करती है कि भारत के गरीब ओबीसी,अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टियां मजदूरों के मुद्दों पर पर्याप्त मुखर क्यों नहीं हो रही है? भारत में आज बहुजनों के हितों की रक्षा के लिए किस तरह की राजनीति की जा रही है?
इस मीटिंग के दौरान सोनिया गांधी ने कहा कि सरकार ने मजदूरों की समस्याओं पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया है, साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि सुधारों के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बेचने का एक ‘वाइल्ड एडवेंचर’ सरकार ने शुरू कर दिया है जो भविष्य मे गरीबों के लिए खतरनाक सिद्ध होगा। अभी चल रहे मजदूरों के भयानक संकट के बीच सरकार की संवेदनहीनता और ठोस योजना के अभाव को मीटिंग में एक बड़ा मुद्दा बनाया गया। इस बीच जिस शैली से राजनीति और शासन-प्रशासन चल रहा है उसके प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए श्रीमती गांधी ने कहा कि “सारी शक्ति प्रधानमंत्री ऑफिस में केंद्रित हो गई है।” केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में घोषित आर्थिक पैकेज को एक छलावा बताते हुए उन्होंने कहा किया पैकेज गरीबों के साथ “एक क्रूर मजाक” है।
मीटिंग में सीपीआई, तृणमूल कांग्रेस सहित शिवसेना भी शामिल हुई। बीजेपी के साथ 35 साल का गठबंधन करने वाली शिवसेना ने हाल ही में एनसीपी के साथ सरकार बनाने के बाद पहली बार किसी विपक्षी पार्टियों की मीटिंग में भाग लिया है। यह भारत की बदलती हुई राजनीतिक तस्वीर की तरफ इशारा करता है। इस बदलाव के बीच सबसे ज्यादा परेशानी इस बात को देखकर होती है कि गरीब पिछड़ा और बहुजनों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों ने इस लॉकडाउन की इस अवधि मे बहुजन समाज के मुद्दों को सही ढंग से उठाया। अभी केंद्र सरकार जिस शैली मे काम कर रही है, ऐसे में भारत मे केंद्र और राज्यों के शक्ति संतुलन की व्यवस्था ही खतरे में पड़ रही है। राज्यों को अपने स्तर पर राहत कार्य शुरू करने के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता और धनराशि नहीं दी जा रही है। यहां तक कि राज्यों के लिए बकाया जीएसटी का पैसा भी अभी तक केंद्र द्वारा जारी नहीं किया गया है। ऐसे मे महाशक्तिशाली हो चुकी सत्तारूढ़ पार्टी को जवाबदेह बनाने के लिए सभी विपक्षी पार्टियों का एकजुट होना पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है।
इस आवश्यकता के मद्देनजर आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी एवं समाजवादी पार्टी की भूमिका निराशाजनक है। इन पार्टियों द्वारा दिल्ली और उत्तर प्रदेश में चुनावी राजनीति के समीकरण की चिंता करते हुए बहुजन समाज की देशव्यापी समस्याओं को नजरअंदाज करना बहुत पीड़ित करता है। इन पार्टियों को यह भय है कि दिल्ली या उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अगर गरीब और पिछड़ों के बीच लोकप्रिय होती है तो उनकी अपनी राजनैतिक संभावना कमजोर हो सकती हैं। ठीक यही भय अभी हमने उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार के मन में भी देखा है। कुछ दिन पहले ही प्रियंका गांधी द्वारा मजदूरों के लिए एक हजार बसों को चलाने की योजना को बेकार के मुद्दों में उलझा दिया गया। इससे साफ जाहिर है कि गरीब और पिछड़ों की मदद का श्रेय लेने की राजनीति कितने भयानक स्तर पर पहुंच गई है।
यह सब देखते हुए मन में सवाल उठता है कि इस देश की राजनीति क्या वास्तव में भारत के गरीब बहुजनों के हित में है? अभी सड़कों पर जितने भी मजदूर नजर आ रहे हैं इनमें से 90% से अधिक ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति समुदायों से आते हैं। ये ‘बहुजन’ मजदूर ना सिर्फ शहरों में होने वाली औद्योगिक और आर्थिक प्रक्रियाओं के लिए रीढ़ की हड्डी का काम करते हैं, बल्कि यही बड़ी संख्या में वोट करके लोकतंत्र के प्रति अपना कर्तव्य भी निभाते हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हर तरह से देश के लिए काम करने वाले ये मजदूर न तो मुख्यधारा के मीडिया के लिए खबर बन पाते हैं और न ही राजनीतिक पार्टियों की तरफ से इन के लिए कोई गंभीर पहल होती है। देश की राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के अलावा खुद बहुजन समाज की नामलेवा पार्टियों और नेताओं की भूमिका भी यहाँ परेशान करती है। 22 मई को दस सेंट्रल ट्रेड यूनियनों ने देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। इसमें सबसे बड़ा मुद्दा श्रम कानूनों में हो रहे मज़दूर विरोधी बदलाव का था, लेकिन बहुजनों की पार्टियों के लिए जैसे यह कोई मुद्दा ही नहीं है। जबकि वे भी इस कथित श्रम सुधारों के ज़रिये जिनका ख़ून चूसने का इरादा है, वे ज़्यादातर बहुजन ही हैं।
आज संसद सहित राज्यों की विधानसभाओं मे बड़ी संख्या मे अनुसूचित जाति के हैं प्रतिनिधि मौजूद हैं। लेकिन ये प्रतिनिधि अपनी पार्टियों के प्रति राजनीतिक निष्ठा दिखाते हुए मुंह बंद करके बैठे हैं। बहुजन राजनीति के चैंपियंस भी आज अपने समुदायों और जातियों के करोड़ों मजदूरों के लिए कुछ भी करते हुए नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे मे बाबा साहब अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम द्वारा उठाए गए सवाल बेहद महत्वपूर्ण हो जाते हैं। डॉ अंबेडकर को भय था कि इसके अभाव मे बहुजन प्रतिनिधि सावर्णों के राजनीतिक सेवक बनकर रह जाएंगे। उन्होंने भारत की राजनीति मे योग्य बहुजन प्रतिनिधियों के चुनाव और जीत सुनिश्चित करने का सपना देखा था। सैपरेट इलेक्टोरेट और डबल वोट की व्यवस्था के जरिए वे चाहते थे कि बहुजनों से सच्चे प्रतिनिधि सरकारों मे पहुँचें और बहुजन हित की राजनीति करें। लेकिन उनकी यह योजना पूना पैक्ट के कारण आगे नहीं बढ़ सकी। आजादी के कई दशक बाद मान्यवर कांशीराम ने भी बहुजन राजनीति मे ‘चमचा युग’ के खतरों के प्रति हमें जागरूक किया था। वे कहा करते थे कि अधिकांश बहुजन राजनेता सवर्ण नेताओं की चमचागीरी करते हैं और बहुजन समाज के मुद्दे नहीं उठाते। लेकिन मायावती और अखिलेश यादव को किसकी चमचागीरी करनी है। वे तो अपनी-अपनी पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। क्यों नहीं, इस मुद्दे पर उन्होंने तूफ़ान मचा दिया जबकि इस लॉकडाउन के नाम पर उन लोगों की ज़िंदगी बर्बाद कर दी गयी जिन्हें वे अपना स्थायी वोटर मानते हैं। कहीं जातिप्रथा के शोक को अपनी शक्ति बनाने वाले इन नेताओं ने खुद को शासकवर्ग का हिस्सा तो नहीं मान लिया है?
यह स्थिति पूरे भारत के लिए और विशेष रूप से भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के करोड़ों गरीबों और मजदूरों के लिए अत्यंत निराशाजनक है। आज उत्तर प्रदेश के नहीं बल्कि भारत के सभी बहुजन भी इन पार्टियों से उम्मीद करते हैं कि वे संकट की घड़ी में बहुजन समाज के मुद्दे पूरी ताकत से उठाएंगी। लेकिन दुर्भाग्य से इन पार्टियों ने अपनी विचारधारा के साथ न्याय करते हुए मजबूती से गरीब और पिछड़ों के पक्ष में आवाज बुलंद नहीं की। हालांकि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी द्वारा गरीबों के पक्ष में राहत के कार्य चलाए जा रहे हैं, लेकिन एक सशक्त विपक्ष के रूप में राजनीतिक और रणनीतिक भूमिका वहां नजर नहीं आ रही है।
गरीबों और वंचितों के नाम पर नारा बुलंद करने वाली इन पार्टियों से अपेक्षा थी कि वे बहुजन समाज के हित मे वैकल्पिक रणनीतियों की घोषणा करके केंद्र सरकार से जवाब मांगेंगी। लेकिन इस तरह की कोई तैयारी और होमवर्क इन पार्टियों मे अभी तक नजर नहीं आया है। छुटपुट बयानबाजी और सीमित से राहत कार्य करके इन्होंने एक बड़ी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है। उधर कांग्रेस पार्टी ने भी बीते छः सालों मे और अभी कोरोना संकट के दौरान भी ठीक भूमिका नहीं निभायी है। अभी कांग्रेस की तरफ से जो पहल हो रही है वह भी इस कोरोना संकट का लाभ उठाते हुए अपने आप को फिर से जिंदा करने का प्रयास ही अधिक नजर आता है। इन सभी पार्टियों को भारत के करोड़ों बहुजनों चिंता की बजाय अपने राजनीतिक गणित को ठीक करने की चिंता अधिक सता रही है।
संजय श्रमण जोठे स्वतन्त्र लेखक एवं शोधकर्ता हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीय, गैर शासकीय संस्थाओं, विश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं। बहुजन दृष्टि उनके कॉलम का नाम है जो हर शनिवार मीडिया विजिल में प्रकाशित हो रहा है। यह इस स्तम्भ की छठीं कड़ी है।
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