पिछले साल दिसंबर से लेकर अब तक नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर व्यापक स्तर पर विरोध जारी है. देश के हर हिस्से में प्रदर्शन किया गया. प्रदर्शनकारियों के अनुसार सीएए के विरोध का कारण उसमें मजहबी आधार पर अवैध घुसपैठियों की पहचान और उसका एनआरसी से सम्बन्ध जोड़ना था. प्रदर्शन के चलते सबसे बड़ी घटना दिल्ली दंगा के रूप में घटी. लोग आज भी दिल्ली के शाहीन बाग़ और लखनऊ के घंटाघर पर धरने में बैठे हुए हैं.
इन सबके बीच इस हफ्ते से देश ही नहीं पूरी दुनिया में कोरोना वायरस बहुत तेज़ी से फैला है और एक महामारी के रूप में और अधिक फैलता जा रहा है. पूरी दुनिया में इससे निपटने की कोई दवा ईजाद नहीं हो पायी है. भारत में भी कोरोना के मरीज़ों की संख्या लगातार बढ़ रही है, हालांकि सरकार इससे बचाव के लिए क़दम उठा रही है. स्कूल कालेज बंद कर दिये गये हैं. लोगों के ज़्यादा संख्या में जमा होने पर पाबंदी लगायी जा रही है. सार्वजनिक कार्यक्रम और समारोह पूरी तरह रोक दिये गये हैं. सिर्फ धार्मिक कार्यक्रम किये जा रहे हैं जिनके बारे में भी आवाज़ उठ रही है कि लोग एक साथ बहुत ज़्यादा इकट्ठा न हो.
इसी बीच सबसे बड़ी चर्चा सीएए, एनआरसी, एनपीआर के विरोध प्रदर्शन में इकट्ठा लोगों की है. इस भीड़ को लेकर दो तरह की बातें सामने आ रही हैं. कुछ लोग कह रहे हैं कि हालात को देखते हुए इन्हें उठ जाना चाहिए जबकि प्रदर्शनकारियों के समर्थकों का कहना है कि एनआरसी से बड़ी महामारी कोई दूसरी नहीं हो सकती. प्रदर्शन के समर्थकों की इस दलील में भी दम नज़र आता है.
लोगों की इन दो दलीलों के बीच सरकार के रुख़ को देख कर बहुत मायूसी होती है. सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है कि वह अपने अहम को तोड़ कर इन लोगों से सीधे रूप से बात करे. कोरोना के शोर के बीच सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एनआरसी को अनिवार्य बताते हुए हलफनामा दिया है जिससे सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा हो गया है. सीएए विरोधियों का कहना है कि अगर एक बार विरोध ख़त्म कर दिया गया तो फिर सरकार बैठने नहीं देगी.
सरकार कोरोना को लेकर जितनी सतर्कता दिखा रही है और मीडिया जितनी अहमियत कोरोना को दे रही है, उसी बीच राजनीतिक एजेंडा भी पूरा किया जा रहा है- चाहे मध्य प्रदेश में सरकार बदलना हो, चाहे एनआरसी का हलफनामा हो, चाहे राज्यसभा की कार्यवाही हो, सब जारी रखे हुए है. मीडिया भी इन सबको नज़रंदाज़ कर कोरोना को सिर्फ शाहीन बाग़ पर केंद्रित कर दे रहा है. मीडिया को कहीं भी भीड़ शाहीन बाग़ के अलावा नज़र नहीं आ रही है.
अगर मीडिया वाक़ई गंभीर है तो उसे सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि वह खुद आंदोलनकारियों से बातचीत कर मामले को खत्म करे और राजनीतिक कलाबाजियों से बाज़ आये.