अंग्रेज़ी के मशहूर लेखक, चार्ल्स डिकंस का उपन्यास है “अ टेल ऑफ़ टू सिटीज़”(दो शहरों की गाथा), उसी किताब के शीर्षक से इस लेख का शीर्षक उधार लिया गया है। इसकी तीन वजह हैं, पहली कि ये किताब फ़्रेंच क्रांति की पृष्ठभूमि पर लिखी हुई है और जो हम आज अमेरिका और विश्व में “BlackLivesMatter” के संदर्भ में देख रहे हैं उसके कई पहलू फ़्रेंच क्रांति की याद दिलाते हैं। हक़, समानता और न्याय के ना केवल नारे उठाना और उनकी मान्यता की माँग करना, पर उन आदर्शों का इस तरह अभिज्ञान, फ़्रेंच क्रांति जैसा ही है। दूसरी वजह थोड़ी भावुक सी है, इस किताब में कुछ पंक्तियाँ हैं जो शायद हर दौर का बेहतरीन और सुंदर वर्णन कर सकती हैं। वो पंक्तियाँ हैं;
“ये सबसे अच्छा दौर था, ये सबसे बुरा दौर था, ये ज्ञान का काल था, ये मूर्खता का काल था,ये विश्वास का युग था, ये अविश्वास का युग था , ये रोशनी का मौसम था, ये अंधकार का मौसम था, ये उमीद का वसंत था, ये मायूसी की सर्दी थी, हमारे पास सब था, और हमारे पास कुछ भी नहीं था, हम सब सीधे स्वर्ग जा रहे थे, या हम सब एक साथ दूसरी ओर जा रहे थे- संक्षिप्त में, ये अवधि या दौर वर्तमान जैसा ही था, क्योंकि सबसे ज़्यादा शोर मचाने वाले कुछ सत्ताधारी चाहते थे कि इस दौर का बुरा या अच्छा होना सिर्फ़ अतिशयोक्ति से ही समझा जाए।“
ऐसा लगता है कि जैसे ये हमारे ही समय के लिए लिखा गया है। तीसरी और आख़िरी वजह थोड़ी निजी है, इस किताब में भी दो शहरों में से एक शहर लंदन है और साल 2019 में मई की शुरुआत से लेकर इस साल फ़रवरी के अंत तक, मैं लंदन में रह रही थी। मूर्तियों की कहानी पर हम जल्द ही आएँगे पर उससे पहले थोड़ी बात लंदन की भी कर लेते हैं।
लंदन के कंधों पर इतिहास का बोझ
लंदन ज़ोन्स(zones) में बँटा हुआ है, ज़ोन 1 से लेकर ज़ोन 9 तक। ज़ोन 7-9 को लंदन वाले अतिरिक्त या सहायक ज़ोन मानते हैं। मानो जैसे कि लंदन सिर्फ़ ज़ोन 1-6 के बीच में ही बसता हो, बाक़ी सब तो जैसे फ़िल्म के सेट के एक्स्ट्रा किरदारों जैसे हैं। मैं इसी एक्स्ट्रा और लंदन की सरहद पर, ज़ोन 6 में रहती थी। लंदन का पूरा शहर 11 तरह की ट्रेनों के जाल में फँसा हुआ है। जैसे मेट्रोपॉलिटन लाइन, डिस्ट्रिक्ट लाइन, जुबली लाइन, सेंट्रल लाइन इत्यादि। मतलब अगर किसी ने इस जाल को सुलझा दिया तो लंदन का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाएगा। ख़ैर मेरा ऑफ़िस ज़ोन 1 में था, इस ज़ोन को रोज़मर्रा की भाषा में सेंट्रल लंदन भी कहते हैं। आपको जो फ़िल्मों में लंदन दिखाया जाता है वो मुख्यतौर से सिर्फ़ सेंट्रल लंदन का ही हिस्सा होता है। वहीं पर लंदन की बहुत सारी ऐतिहासिक इमारतें स्थित हैं जैसे की ब्रिटिश संसद, बकिंगम पैलेस, लंदन आइ, ट्रफ़ाल्गर स्क्वेर, 10 डाउनिंग स्ट्रीट (वहाँ के प्रधानमंत्री का निवास)।
मैं रोज़ नियम से 3 ट्रेन बदलकर अपने ऑफ़िस पहुँचती थी, पहले मेट्रोपॉलिटन लाइन, फिर जुबली लाइन और अंत में सेंट्रल लाइन। सुबह ट्रेन की भीड़ भाड़ में भी एक क्रम या ऑर्डर था, जैसे कि मुझे ही नहीं भीड़ को भी पता था कि मेरी मंज़िल कौनसी है। हम सब सिर्फ़ साथ में सफ़र ही नहीं कर रहे थे पर लंदन की समझ को भी आपस में बाँट रहे थे। ऑफ़िस में मेरी टीम में मेरे अलावा 7 लोग और थे। इनमें से एक ब्राज़ील की रहने वाली थी, एक इटली की, एक मलेशिया की, एक ग्रीस की, एक चाइना का रहने वाला था, एक अश्वेत ब्रिटिश नागरिक था और एक गुजरात के उस परिवार से था जिन्हें ग़ुलाम की तरह वेस्ट इंडीज़ ले जाया गया था और वो फिर बाद में इंग्लैंड में आकर बस गए थे। शायद ऐसे ग़ुलामों को गिर्मिटिया मज़दूर या इंडेंचर्ड लेबर भी कहा जाता था।
7 लोगों की एक कहानी
अब इन सात लोगों से शुरू होती है इन दो मूर्तियों की कहानी जो मेरे लेख का शीर्षक है। अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ़्लॉयड की एक श्वेत पुलिसकर्मी द्वारा निर्मम हत्या के ख़िलाफ़ 8 जून को लंदन में प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनो के बारे में आप थोड़ा बहुत तो पढ़ ही चुके होंगे। पर इन प्रदर्शन के दौरान एक और रोचक घटना हुई। प्रदर्शनकारियों ने पॉर्लियामेंट स्क्वायर में खड़ी यूनाइटेड किंग्डम के पूर्व प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल की मूर्ति पर लिख दिया “चर्चिल नस्लवादी थे (Churchill was a racist)”। ये एक प्रतीकात्मक पल था लंदन के हर उस आप्रवासी के लिए जिसके देश पर चर्चिल ने अत्याचार किए थे।
चर्चिल की मूर्ति पर क्यों लिखा गया ये?
चर्चिल ने अनगिनत बार श्वेत समाज को सबसे वरिष्ठ समाज कहा था। चर्चिल ने 1897 के अफ़ग़ान अभियान के दौरान बहुत गर्व से कहा था कि “हम व्यव्यस्थित तरीक़े से, एक गाँव से दूसरे गाँव की तरफ़ बढ़े और वहाँ घरों को तहस नहस किया, वहाँ के कुओं को बंद किया, वहाँ की इमारतों को गिरा दिया।” उन्होंने ये भी कहा की पठानो को मान लेना चाहिए की श्वेत नस्ल उनसे बेहतर है। चर्चिल ने डेड़ लाख केन्यायी लोगों को बंदी बना कर उनको अनगिनत यातनाएँ दी और वो उनके कालेपन का भी बहुत मज़ाक़ उड़ाते थे। उन्होंने पश्चिम बंगाल में कृत्रिम अकाल की परिस्थतियाँ पैदा की, अनाज के निर्यात को भारत में रोक दिया, जिस वजह से 25 लाख लोग भुखमरी से अपनी जान गंवा बैठे। वो भारतीयों को “जंगली” भी कहते थे। चर्चिल इजिप्ट के लोगों के लिए कहते थे कि “इनके पास और गाल होते तो इन पर यहूदियों का हमला करवा देता और गटर की तरफ़ धकेल देता।“ जब लोग कहते हैं कि मूर्ति ख़राब कर कर शहर की धरोहर को ऐसे नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहिए, क्या वो चाहते हैं उनका शहर चर्चिल जैसे व्यक्ति को याद करे? मूर्तियों में कभी कभार इतिहास का एक ही पहलू व्याख्यित होता है। जैसे कि चर्चिल की इस मूर्ति में, दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी के ख़िलाफ़ उनके सख़्त प्रयास का, पर लंदन में रहने वाले अब बदल गए हैं। इसलिए लंदन को भी अपने इतिहास से उसका रिश्ता बदलना होगा। क्या ये शहर अब भी चाहता है कि उसके निवासी उस इतिहास के नतमस्तक हो, जिसने उनके देशों को ग़ुलाम बनाया, वहाँ जंग करायी, वहाँ के गावों को तहस नहस कर दिया? मेरी टीम में शामिल हर इम्मीग्रेंट को उस दिन थोड़ी अच्छी नींद आयी होगी। और नहीं, ये इतिहास को बदलने की कोशिश नहीं उसको बेहतर समझने की कोशिश है। और ये पल भी अपने आप में इतिहास है।
सबका शहर, सबकी कला
ये तो थी पहले शहर और पहली मूर्ति की बात। चलिए अब आपको ले चलते हैं दूसरी मूर्ति की तरफ़। BlackLivesMatter के प्रदर्शनो के दौरान यूनाइटेड किंगडम के एक और शहर ब्रिस्टल में एड्वर्ड कोल्स्टोन की मूर्ति को लोगों ने पानी में गिरा दिया। पहले, थोड़ी ब्रिस्टल की बात करते हैं। पिछले साल सितम्बर में मेरा ब्रिस्टल जाना हुआ था। हमने तय किया कि हम पूरा शहर पैदल घूमेंगे। इसकी एक ख़ास वजह थी, ब्रिस्टल अपने “स्ट्रीट आर्ट” के लिए जाना जाता है। विश्व के सबसे मशहूर “स्ट्रीट आर्टिस्ट” बेन्सकी भी ब्रिस्टल के रहने वाले हैं। बेन्सकी का मानना है कि कला पर सबका समान हक़ होना चाहिए, उसे बंद कमरों में नहीं रखना चाहिए। कला भी लोकतांत्रिक होनी चाहिए। ब्रिस्टल की हर गली, हर नुक्कड़ पर एक चित्र बना हुआ है।ऐसा लगता है, जैसे बेन्सकी के ही शब्दों में “ये शहर वो पार्टी बन गया है जहाँ सब आमंत्रित है।“ ब्रिस्टल की सड़कों पर मानो, जैसे जनादेश छपा हुआ है।
वहाँ एक क़िस्सा बहुत मशहूर है- कहते हैं एक बार शहर की पुलिस और प्रशासन ने 100-200 कलाकारों को उनके घर से हिरासत में ले लिया। उनका कहना था कि “ये लोग शहर को नुक़सान पहुँचा रहे हैं इस तरह से पेंटिंग करके”। उन्होंने, इन लोगों के घर से पेंट और ब्रश, सबूत के तौर पर बरामद और ज़ब्त किए। सरकार ने बहुत ख़र्चा करके फ़ोरेंसिक विशेषज्ञों की सहायता से सिद्ध किया कि इन चित्रों के पीछे इन लोगों का ही हाथ था। बड़ी सज़ा मिलना लगभग तय था।
फिर कोर्ट में कलाकारों के वक़ील ने कहा, कि जब क़लम पकड़ते हैं तो हाथ अलग ढंग से चलता हैं पर जब स्प्रे पेंट करते हैं तो अलग ढंग से, इसलिए विशेषज्ञ सौ फ़ीसदी गारंटी से नहीं कह सकते कि ये पेंटिंग इन लोगों ने ही बनायी है। इस तर्क के बाद उन सबको बाइज़्ज़त बरी किया गया और कहा जाता है कि पुलिस की एक इमारत आगे चलकर इन कलाकारों को भेंट में दी गयी अपनी ट्रेनिंग के लिए। तो जब रविवार को प्रदर्शनकारियों ने एड्वर्ड कोल्स्टोन नाम के एक ग़ुलाम विक्रेता या स्लेव ट्रेडर की मूर्ति को पानी में गिरा दिया तो मुझे ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ। शायद इस शहर की आदत है अलग तरह से न्याय करने की।
एड्वर्ड ने तक़रीबन 84,000 अफ़्रीकी लोगों को ग़ुलामी में धकेला था। इनमें से क़रीब 20,000 लोगों की मौत भी हुई थी। इस मूर्ति का उस शहर में अब तक होना शायद इस बात का अहसास दिलाता होगा कि, कहीं किसी दिन इनके विचार फिर जीवंत हो कर, ग़ुलामी को वापिस ना ले आए।सड़क पर जब इस मूर्ति को घसीट कर पानी में धकेला गया तो लगा जैसे कि शहर के कुछ पाप धुल गए। शायद 300 साल में पहली बार उस शहर के आप्रवासी लोगों को शहर ने पूरी तरह से अपनाया था। कोल्स्टोन की मूर्ति आज उसी हार्बर के नीचे है जहाँ से सालों पहले ग़ुलामों को जहाज़ों में यहाँ से वहाँ निर्यात किया जाता था। पता नहीं क्या इससे पूरा हिसाब बराबर हो जाएगा? नहीं पर कहीं चीज़ें फिर से पुरानी जैसी ना हो जाए, उस डर का अहसास ज़रूर कम हो जाएगा।
कुछ लोग अब भी कह रहे हैं कि, शहर की धरोहर के साथ अन्याय हुआ है। उनका कहना है कि ये विन्स्टन चर्चिल की छवि का अपमान है। कुछ लोगों ने कहा है कि इन मूर्तियों को खंडित करना, एक अपराध था। उनसे मेरे केवल तीन सवाल हैं- अगर मूर्ति खंडित करना अपराध था, तो जो चर्चिल और कोल्स्टोन ने किया वो क्या था? अगर मूर्ति खंडित करना शहर के साथ अन्याय है तो क्या शहर के निवासी और उनकी भावनाएँ शहर में नहीं आती ? चर्चिल और कोल्स्टोन को अब जेल में नहीं डाला जा सकता, ना उनसे माफ़ी मंगवायी जा सकती है-पर इसका मतलब ये तो नहीं कि हम उनकी मूर्तियाँ को ऊँचे पायदानो पर बिठाकर, उनको गौरवान्वित करें? इन मूर्तियों के ना होने से शायद नस्लभेद कम नहीं होगा, पर इनके होने से नस्लभेद के इतिहास को हमारे समाज में मान्यता मिलती रहेगी। आज कोल्स्टोन की मूर्ति की जगह ख़ाली है, क्योंकि ये एक नए इतिहास की शुरुआत है जहाँ अब न्याय और समानता के अध्याय लिखे जा सकते हैं।
लेखिका सौम्या गुप्ता, डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी उच्च शिक्षा हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर काम कर रही हैं।
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