यह तो हद है.. लोकतंत्र लंगड़ा और आज़ादी आंशिक! 

कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
ओप-एड Published On :


अभी गत फरवरी के पहले हफ्ते में ही ‘द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’ द्वारा जारी किये गये ताजा लोकतंत्र सूचकांक में भारत के लोकतंत्र को लंगड़ा करार दिया गया था। उसकी ‘डेमोक्रेसी इन सिकनेस एंड इन हेल्थ’ शीर्षक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में आई, तो देश के लोकतंत्र की रैंकिंग 7.29 अंकों के साथ 27वीं थी, जो अब 6.61 अंकों के साथ 53वीं पर लुढ़क गयी है। रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि इस सरकार की पिछले छः-सात साल की सत्ता ‘लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने’ और ‘नागरिकों की स्वतंत्रता पर कार्रवाई’ के रास्ते चलकर आधे लोकतंत्र को खा गई है, जिसके चलते देश का लोकतंत्र, अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और ब्राजील आदि 52 देशों की तरह ‘त्रुटिपूर्ण’, दूसरे शब्दों में कहें तो, ‘लंगड़ा’ हो गया है।

और किसी देश का लोकतंत्र विकलांग हो जाये, तो उसके नागरिकों की आजादी क्योंकर सकलांग या पूरी बनी रह सकती है? अमेरिकी सरकार द्वारा वित्तपोषित गैर-सरकारी संगठन ‘फ्रीडम हाउस’ ने गत गुरुवार को अपनी सालाना वैश्विक स्वतंत्रता रिपोर्ट में शायद यही जताते हुए नागरिकों की आजादी के लिहाज से भारत के दर्जे को ‘स्वतंत्र’ से घटाकर ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ कर दिया है। साल 2020 के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गई इस रिपोर्ट में इस साल के फ्रीडम स्कोर के लिहाज से भारत की रैंक 100 में 67 है, जो साल 2020 में 100 में से 71 थी।

इस गिरावट का प्रमुख मानक सरकार से असहमति रखने और उसे व्यक्त करने वाले मीडिया संस्थानों, शिक्षाविदों, नागरिक समाजों और प्रदर्शनकारियों पर किये गये सरकारी हमले हैं। साथ ही इसमें लॉकडाउन के दौरान लाखों प्रवासी कामगारों को काम या बुनियादी संसाधनों के बिना शहरों में छोड़कर खतरनाक व अनियोजित विस्थापन का शिकार बनाने, तब्लीगी जमात के सदस्यों से बर्बरता बरतने, मीडिया पर जनता के विश्वास को चोट पहुंचाने और कई राज्यों द्वारा तथाकथित लवजिहाद के खिलाफ कानून बनाने को भी इंगित किया और कहा गया है कि लोकतांत्रिक परंपराओं के वाहक बनने के बजाय मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी भारत को अधिनायकवाद की ओर ले जा रही है।

रिपोर्ट यह भी कहती है कि इसके चलते भारत एक वैश्विक लोकतांत्रिक अगुआ के रूप में सेवा देने की अपनी क्षमता को छोड़ चुका है और समावेशी व सभी के लिए समान अधिकारों की कीमत पर संकीर्ण हिंदू राष्ट्रवादी हितों को बढ़ा रहा है। आलोचनात्मक आवाज़ों को खामोश करने के लिए कहीं राष्ट्रीय सुरक्षा, कहीं मानहानि, कहीं देशद्रोह तो कहीं हेट स्पीच तो कहीं अवमानना के आरोपों और कानूनों का दुरुपयोग किया जा रहा है।

इस सिलसिले में यह भी रेखांकित किया गया है कि देश में राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता में गिरावट 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी सरकार की भारी बहुमत से वापसी के बाद ही तेज हो गई थी। इतना ही नहीं, न्यायिक स्वतंत्रता भी दबाव में आ गई थी। उसे दबाने की कोशिशों की मिसाल देते हुए उक्त रिपोर्ट में गत वर्ष फरवरी में दिल्ली हाईकोर्ट से जस्टिस एस. मुरलीधर के स्थानांतरण का जिक्र करते हुए कहा गया है कि दिल्ली में दंगों के दौरान कोई कार्रवाई न करने के लिए पुलिस को फटकार लगाने के तुरंत बाद एक न्यायाधीश का तबादला कर दिया गया।

जानना चाहिए, ‘फ्रीडम हाउस’ दुनिया भर के देशों में आजादी के स्तर की पड़ताल करता है और इस आधार पर देशों को ‘आजाद’, ‘आंशिक आजाद’ और ‘आजाद नहीं’ की रैंक देता है। भारत को इस बार उसने ‘आंशिक तौर पर आजाद’ की श्रेणी में रखा है तो साफ है कि उसे हालात के सुधरने की उम्मीद अभी बाकी है। लेकिन अभी कहना मुश्किल है कि देश के लोकतंत्र को लंगड़ा करने की शर्म भी महसूस नहीं कर पाने वाली मोदी सरकार इस उम्मीद को पूरी करने के लिए नागरिकों की आजादी को आधी कर देने की शर्म कभी महसूस कर पायेगी या नहीं। उसकी अब तक की रीति-नीति के मद्देनजर तो यही लगता है कि वह फ्रीडम हाउस की इस रिपोर्ट को भी किसी विदेशी साजिश का अंग बताकर उससे पल्ला छुड़ा लेने की कोशिश में लग जायेगी।

लेकिन ऐसा करते हुए भी वह इस सवाल का शायद ही जवाब दे सके कि विधानसभा चुनाव वाले पांच राज्यों में पेट्रोल पंपों पर लगे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तस्वीरों वाले जिन होर्डिंगों से वहां आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन हो रहा था, चुनाव आयोग के आदेश पर उन्हें हटा भी दिया जाये, तो इस तरह की रिपोर्टों के निष्कर्षों से बने उन ‘पोस्टरों’ को कैसे हटाया जाएगा, जो देश की आजादी व लोकतंत्र को लेकर दुनिया की ‘दीवारों’ पर चस्पां हो गए हैं? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि अपने शुरुआती कार्यकाल में दुनिया भर में घूम-घूमकर ‘मोदी-मोदी’ का प्रायोजित शोर सुनकर खुश होने वाले हमारे प्रधानमंत्री अपने राज में देश के लोकतंत्र के विकलांग और आजादी के अधूरी हो जाने पर गौर फरमायेंगे तो उसे किसी साजिश से जोड़ेंगे तो उस ‘साजिश’ से निपटने में अपनी विफलता को किस तरह छिपायेंगे?

जैसे भी करें, इससे इनकार कैसे करेंगे कि उनके राज में साम्प्रदायिक असहिष्णुता, मॉब लिंचिंग, अल्पसंख्यकों व दलितों के उत्पीड़न आदि की बढ़ती वारदातों के चलते ही ये हालात पैदा हुए हैं। जम्मू कश्मीर, अनुच्छेद 370, शाहीनबाग, सीएए और कृषि कानूनों आदि के मुद्दों को लेकर उनकी सरकार अपने संकीर्ण सोच से बाहर निकल पाती तो शायद उसे आजादी को आंशिक और लोकतंत्र को लंगड़ा कर डालने का यह कलंक न ढोना पड़ता। तक दुनिया के कई प्रतिष्ठित प्रकाशनों में इसे लेकर जताई जा रही चिंता भी नहीं ही जताई जाती। लेकिन देशवासियों को देश को विश्वगुरू बनाने के भुलावे में रखने वाली इस सरकार ने पहले तो मीडिया मैनेजमेंट के जरिये इन चिंताओं को सामने न आने देने के जतन किये, फिर उन्हें उनके पीछे साजिश की थियरी में उलझाना शुरू कर दिया। कई मामलों में ‘ये हमारा आंतरिक मामला है’ कहकर भी इन चिंताओं को दरकिनार करने की कोशिश की।

दुर्भाग्य से वह भूल गई है कि बात नागरिक अधिकारों, मानवाधिकारों और मानवीय गरिमा यानी आजादी और लोकतंत्र की हो, तो उन्हें देशों की सीमाएं इन्हें किसी दायरे में नहीं रख सकतीं। भारत की पुरानी नीति में भी इन मसलों को वैश्विक माना जाता रहा है और इन पर संकीर्ण नहीं, व्यापक नजरिया अपनाये जाने की वकालत की जाती रही है। इसीलिए देश के नागरिकों को प्रजा बनाने में तो लगी ही हुई है, उन्हें बिना उज्र किये राज्यादेशों के पालन को भी मजबूर करती आ रही है। जो उज्र करते हैं, वे पर्यावरण कार्यकर्ता हों, किसान, फिल्मकार, पत्रकार, महिला, युवा, बुजुर्ग या कोई और, न सिर्फ पुलिस बल्कि इन्कमटैक्स व ईडी तक को उनके खिलाफ लगा दिया जा रहा और कभी साजिशिया तो कभी देशद्रोही ठहराया जा रहा है।

जहां सरकार को इन और इन जैसी दूसरी एजेंसियों की निष्पक्षता और स्वायत्तता बरकरार रखने का जिम्मा उठाना चाहिए था, वहीं वह उनके राजनीतिक इस्तेमाल में कोई सीमा नहीं मान रही। फिर उससे कैसे उम्मीद की जाये कि वह इस सवाल का जवाब देगी कि क्या देशवासियों ने इसीलिए अनेक बलिदान दिये थे कि 15 अगस्त, 1947 को उन्हें हासिल आजादी को वह अपने सात सालों में ही आंशिक बना डाले?


कृष्ण प्रताप सिंह, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।