अमेरिका की डायरी: भारत जैसी बीमारी ट्रम्प को लेकर अमेरिकी समाज में भी है!                                                                                                                                     

रामशरण जोशी रामशरण जोशी
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“राष्ट्रवाद शैशवकालीन बीमारी है, मानवजाति की चेचक है” (  अलबर्ट आइंस्टीन )

 

“ हमारा  आप्रवासियों का  राष्ट्र है” ( राष्ट्रपति जोई बाइडेन )

 

26 अगस्त की सुबह। मन और काया, दोनों पुलकित थे.  इंदिरा गांधी अन्तर राष्ट्रीय एयरपोर्ट से  अमेरिका उड़कर जा रहा था. बिटिया के परिवार के साथ. सात समंदर पार जाना हो रहा था, कोविड -19 की लम्बी  क़ैद के बाद।  अगर मैं “वीर” होता तो  मयूर विहार के अपने सीमेंटी  घोंसले से  रोज़ सुबह किसी बुलबुल के पंखों पर सवार हो कर उड़ान भरता ,पहाड़ों, महासागरों और देशों को  पार कर बोस्टन पहुँच जाता। सांझ ढले लौट आता.  पर मैं  “वीर” कहां!  बिरले थे सावरकर जो  करीब एक सौ दस साल   पहले   अंग्रेजों की पोर्ट ब्लेयर ज़ैल से रोज़  सुबह अज्ञात बुलबुल के पंखों पर सवार होकर देश की मुख्य भूमि पहुँचा करते, शीश नवाते और फुर्र से संध्या -वंदन के समय लौट आते! पर मैं ठहरा पांच फ़ीट पांच इंच का हाड़-मांस की मन- काया वाला पासपोर्ट + टिकटधारी यात्री।  मुझे तो विमान से ही जाना था. सो पहुँच गया। 

अब तो  विमानतल भी रेलवे स्टेशन लगने लगे हैं.  यात्रियों के हुजूम के हुजूम। लग रहा था, सभी कोविड -19 के  सज़ायाफ्ता हैं ! हर उम्र की मौजूदगी ‘ आज़ादी’ का एहसास करा रही थी; गोदी से चिपके बच्चे से लेकर व्हील चेयर में धंसे उम्रदराज़ प्राणी तक. लम्बी लम्बी कतारें।  सूटकेसों के ढेर।  विमान फुर्र से उड़ न जाए, इसलिए बेसब्री का आलम।  एनआरआई  टैगधारी  पुत्री -परिवार के साथ था, सो मैं भी  बिज़नेस क्लास का यात्री बन गया या बना दिया गया. उम्र को कुछ राहत मिली। विशिष्ट वर्ग के यात्री होने से सभी शुरूआती कामों की रफ़्तार भी तेज़ थी।  यहाँ तक कि  कस्टम क्लीयरेंस भी डिप्लोमेटिक चैनल से कर दिया गया. लम्बी लम्बी कतारों में खड़े होने से मुक्ति मिली।  सामान्य यात्री के रूप में ऐसा वी.आई. पी. यात्री का एहसास पहली दफे हुआ. वैसे  यह बंदा  देश के वी.वी. आई. पी. के साथ बरसों यात्राओं से आनंदित होता रहा है. सो नया कुछ भी नहीं था, आम यात्री के रूप में नए अनुभव ज़रूर थे.

वैसे बिज़नेस क्लास में बैठने का सुख कम नहीं होता है । लजा जाएँ  इकॉनमी क्लास की सुविधाएँ !पर  अति विशिष्ट व्यक्ति ( राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री आदि ) के साथ विशेष विमान में यात्रा करने का आनन्द अलग ही है. इसके सामने बिज़नेस क्लास की सुविधाएं  शरमा  जाएं। अति विशिष्ट व्यक्ति के साथ यात्रा का आनंद का भार जनता वहन करती है, और इस क्लास में जनता स्वयं। पुराने दिनों ने करवटें लीं, तो  इस  पत्रकार ने  दोनों श्रेणियों के आनंद के मध्य  के अंतर्  का सारांश बता दिया। 


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करीब छह वर्ष बाद बोस्टन के लोगन हवाई अड्डे पर  मैं उतरा। वैसे  कई बार यहां उत्तर चुका सुबह  हूं, सुबह और रात को. इस बार  देर रात  हम लोग पहुंचे. बीच में लंदन के हवाई अड्डे हिथ्रो पर कुछ घंटों के लिए ट्रांजिट में रुके. दिल्ली से बोस्टन तक  पहुंचने के  तीनों  हवाई अड्डों   पर कुछ अनुभव हुए. यात्रियों का प्रवाह सामान्य होता जा रहा था ,बल्कि हिथ्रो पर तो यात्रियों की बाढ़ उमड़ी हुई थी. लग रहा था पूरा यूरोप कोविड  की क़ैद से आज़ादी का उत्सव मना रहा हो! जहां देखो हुज़ूम ही हुजूम, बग़ैर किसी नक़ाब या मास्क के. कुछ लोगों ने मास्क ज़रूर चढ़ा रखे थे, जिसमें शामिल थे विमान और विमान तलकर्मी। अभूतपूर्व सुरक्षा थी. लेकिन, इस दफा एक बड़ा अंतर  और नज़र आया.

मास्क की बात चली है तो देखने में आया कि तीनों ही अड्डों पर हिजाब या अर्ध बुर्क़ा का प्रचलन बढ़ा है. दिल्ली को छोड़ भी दें, हिथ्रो  और लोगन  अड्डों पर  ‘पहचान प्रतीक’ अधिक दिखाई दिए जोकि पिछली यात्राओं में आकर्षित करने वाली मात्रा में नहीं थे. पिछली सदी से विकसित दुनिया के देशों में आ -जा रहा हूं, लेकिन  अस्मिता बोध का ऐसा उभार मेरे अनुभवों में  नया शुमार हुआ.

लोगन विमानतल पर ऐसा देखा हो, यह बात भी नहीं है. मैं बोस्टन से 45 -50 कि. मी. के फासले पर  जिस टाउन  में रुका हुआ हूं वहां भी कुछ ऐसे ही अनुभव हुए हैं. पिछले बीस -पच्चीस दिनों में मैं  पार्क व रेस्त्रां गया,टैनिस कोर्ट देख चुका  हूं,  ग्रोसरी स्टोर और सब्ज़ी शॉप  जा चुका  हूं। विशिष्ट या धार्मिक पहचान वस्त्रों के   प्रयोग का अनुभव  इस यात्रा में लगभग पहली दफा हुआ. पिछली यात्राओं में न्यू यॉर्क, न्यूजर्सी , बोस्टन, वाशिंगटन, फिलिडेलफिया, मिनिपोलिस,एथेंस और कुछ अन्य शहरों में जाने के अवसर मिले थे. शायद ही  ऐसे पहचान – प्रतीकों  का प्रदर्शन  दिखाई दिया हो, मुझे याद नहीं। जहां निम्न या गैर -कौशल कामों से  जुड़े स्त्री -पुरुष ऐसे प्रतीकों का प्रयोग कर रहे थे, वहीं  ऐसे भी व्यक्ति दिखाई दिए जो  आकार -प्रकार से  ‘प्रोफेशनल ‘  प्रतीत हो रहे थे. यह दृश्य मुझे सहसा 2012 से 16 तक की यात्राओं के अनुभवों की याद दिला देता है. इत्तफ़ाक़ से, 2016 के राष्ट्रपति के चुनाव के समय मैं इसी देश में था.  डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रत्याशी हिल्लेरी क्लिंटन और  रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प के बीच मुक़ाबला था. समयांतर में इसकी रपटें छप  चुकी हैं।  तब  पहचान के संकट के दृश्य नहीं दिखाई दिए थे. हालांकि, आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं कि यदि ट्र्रम्प जी जीत होगी तो आप्रवासी समुदायों, विशेष रूप से मुस्लिम, के सामने  ‘ पहचान का संकट’ पैदा हो सकता है. ट्रम्प के शासन काल ( 2017 -21 ) की नीतियां और घटनाएं सर्वविदित हैं. ट्रम्प शासन के निशाने पर मुस्लिम रहे हैं . ऐसा लगा कहीं परोक्ष रूप से  हंटिंग्टन की अवधारणा :- सभ्यताओं का टकराव – नई विश्व व्यवस्था का जन्म  – को  व्यवहार में लागू तो नहीं किया जा रहा है! यदि  न्यायपालिका का हस्तक्षेप नहीं रहता तो स्थितियां कोई  भी मोड़ ले सकती थीं.चूंकि पिछले दो वर्षों से डेमोक्रेट सत्ता में हैं इसलिए स्थितियां बदली भी  हैं.

लेकिन  लोगों के दिल -दिमागों  में पूर्व शासन की  लोकतंत्र विरोधी विरासत अभी तक  ज़मी हुई हैं. मज़हबी प्रतीकों के उभार के पीछे  पहचान के संकट का भय  हो तो किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए.  जहाँ ऐसे प्रतीक  व्यक्ति में  पहचान या समुदाय की विशिष्टता  के सुरक्षित होने का विश्वास पैदा करते हैं, वहीँ  ये  प्रतिरोध की नुमाइंदगी भी करते हैं. भारत में ही देख लीजिये; हिज़ाब का मुद्दा अभी तक गरमाये हुए है, विशेष रूप से कर्णाटक राज्य में।  यद्यपि, इसके पीछे राजनीतिक कारण  भी हैं. राज्य विधानसभा के चुनाव नज़दीक ही हैं. यही स्थिति अमेरिका की भी है. दो वर्ष बाद राष्ट्रपति पद का चुनाव होगा। इससे पहले दूसरे  चुनाव होंगे.  ज़ाहिर है, चरम दक्षिणपंथी शक्तियां ट्रम्प शासन की विरासत को धुंधली नहीं पड़ने देंगी।

 

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बोस्टन पहूंचे करीब पच्चीस दिन हो चुके हैं. 

इस अवधि में  एक ही प्रभाव मुझ पर हुआ है और वह यह है कि लोगों के दिलों -दिमाग से   पूर्व राष्ट्रपति  डोनाल्ड ट्रम्प  की आतंकी सियासत  का भूत अभी तक उतरा नहीं है. इसकी भी वजह है. इस समय का ईश्वर है मीडिया।  लोकचेतना व लोकमत को गढ़ने में गोदी मीडिया या आभासी तटस्थ मीडिया ईश्वर  से  कम भूमिका नहीं निभाते हैं . आज भी चैनलों में  ट्रम्प को लेकर आये दिन बहसें होती हैं, विवादास्पद ख़बरें चलती हैं और ट्रम्प के वक्तव्यों को  मिर्च-मसाले के साथ उछाला भी जाता है. ट्रम्प का चर्चित आरोप कि 2021 के चुनाव में उनकी हार नहीं हुई है, चुनावों को चुराया गया  है अर्थात डेमोक्रैट ने  उनकी जीत  को चुरा लिया है. ऐसी ही अन्य अनर्गल  बातें  हैं जिनके माध्यम से ट्रम्प को प्रचार में जीवित रखा जाता है और दो साल बाद होनेवाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपनी दावेदारी की ज़मीन को पुख्ता किया जाता है. पिछले ही दिनों भारत के अंग्रेजी एनडीटीवी चैनल ने डोनाल्ड ट्रम्प का लम्बा इंटरव्यू लिया था।  जहां भारत में  इस इंटरव्यू  प्रसारण किया गया था, वहीं यहाँ के कतिपय चैनल में भी इसके  अंशों को दिखाया गया। स्वयं यह लेखक  किसी चैनल पर  इसे देख चुका  है. ज़ाहिर है, ऐसे  प्रसारणों से हवा बनाई जाती है, चाहे भारत में बने या अमेरिका में. अमेरिका के भारतीय डायस्पोरा, विशेषतः गुजराती  व दक्षिण भारतीय,  में ट्रम्प के अच्छे-खासे समर्थक अब  नहीं हैं, ऐसा सोचना गलत होगा. जब हमारे बड़बोले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सितम्बर 2019 में  अमेरिका की  भूमि ( हूस्टन, टेक्सास ) पर नारा लगाया था “ अब की बार, ट्रम्प सरकार’ , तब  करीब 50 हज़ार की भीड़ से खचाखच भरा  सभास्थल गूँज उठा था. भीड़ ने भी इसी नारे को दोहराया। वहीँ एक और। नारा लगा था “ Howdy, Modi “ ट्रम्प ने भी लगाया.  दोनों की दोस्ती परवान चढ़ रही थी.  एक बारगी लगा, कहीं खिलंदड़ी ट्रम्प साहब भारत से तो चुनाव नहीं लड़ने जा रहे हैं! ‘ अब की बार मोदी सरकार’ ऐसे नारे भारत में पंचम स्वरों में गूंज चुके हैं, इसी तर्ज़ पर। 

‘पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को उनकी करतूतों के लिए दण्डित किया जाना चाहिए या नहीं ?’, देश के प्रमुख चैनलों पर यह मुद्दा भी छाया हुआ है. बहसें हो रही हैं. एक पक्ष का मत है कि ट्रम्प के  विरुद्ध कार्रवाई की जाना चाहिए। उन्होंने कई अपराध किये हैं।  अपने समर्थकों को भड़का कर कैपिटोल स्थित कांग्रेस की ईमारत ( संसद भवन ) पर हमला कराया गया।  व्हाइट हाउस को छोड़ते समय ट्रम्प अपने साथ कई संवेदनशील दस्तावेज़ लेकर चले गए. इसीलिये  एफ.बी. आई.( फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन )  ने ट्रम्प के निजी निवास पर छापा भी मारा था. यदि  ट्रम्प को उनके गैरसंवैधानिक कार्यो के लिए सज़ा नहीं दी गई तो देश वासियों में  सकारात्मक सन्देश नहीं जायेगा। इतिहास में यह  एक उदाहरण के रूप में  दर्ज़ होगा।  भविष्य में किसी भी पार्टी का राष्ट्रपति निरंकुश ढंग से काम करेगा। निर्वाचित तानाशाही का खतरा बना रहेगा। 

इसके विपरीत दूसरे  पक्ष का मत है कि  ट्रम्प के खिलाफ मुक़द्द्मा चलाने से देश विभाजित होगा। दक्षिण के प्रांतों में जनता का ध्रुवीकरण होगा। ट्रम्प समर्थक आक्रामक होने लगेंगे,सड़कों पर उतर आएंगे. किसी भी सीमा तक चरम दक्षिण पंथी तत्व जा सकते हैं; केकेके( कुल क्लुक्स क्लान) जैसी चरमपंथी संस्था सक्रिय हो सकती है; अश्वेतों और आप्रवासियों को अपनी हिंसा का निशाना बना सकती है।  तीसरा मत यह भी है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी  जाए ताकि  भविष्य में  ट्रम्प  राष्ट्रपति का  चुनाव न लड़ सकें . लोगों का मानना है कि  वर्तमान सत्तारूढ़ डेमोक्रैट अपने वोटों को ध्यान में रख कर ही पूर्व राष्ट्रपति के खिलाफ कानूनी कदम उठाएंगे।  नवंबर में ही राज्य विधायिकाओं के लिए  सीनेटर चुने जायेंगे। इसलिए  सियासी नापतोल के बाद ही बाइडेन शासन ट्रम्प के सम्बन्ध मैं कोई अंतिम  फैसला करेगा. जल्दबाज़ी में कोई कदम नहीं उठाएगा. ऐसी धारणा आम लोगों में है.ऐसा ही भारत में होता है; इसकी ज्वलंत मिसाल हैं जांच एजेंसियों के कारनामें, विपक्षी नेताओं  के घरों पर छापे।   

दूसरी ओर डोनाल्ड ट्रम्प जोइ  बाइडेन शासन को आये दिन ललकार ते भी रहते हैं. उनका आरोप है कि उनके विरुद्ध प्रतिशोध की कार्रवाई की जा रही है. उनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं मिला है. सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया जा रहा है. वे फिर से चुनाव लड़ेंगे. अपने समर्थकों और विरोधियों को  सावधान करते रहते हैं।  मीडिया में खुद को जीवित रखने के लिए ट्रम्प हर जुगत करते रहते हैं. यही वजह है कि वे लोगों के ज़ेहन से पूरी तौर पर  उखड़े नहीं हैं.

ताज़ा अनुभव शेयर कर रहा हूं. हमारे पड़ौस में  कुछ भारतियों के घर हैं। सबसे पुराना  निवासी एक गुजराती परिवार है. सत्तर के दशक में मुंबई से  आकर इस क्षेत्र में बसा था यह परिवार . परिवार का मुखिया 85 पार हैं और खुद फर्राटे से  कार चलाते  हैं. मीलों लम्बा सफर तय करते हैं. वैष्वणवी सम्प्रदाय के हैं. वैसे चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद आदि के परम भक्त हैं. इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी भक्त हैं.  परिवार की  मोदी भक्ति  सोशल मीडिया,विशेषतः व्हाट्स एप्प यूनिवर्सिटी द्वारा प्रसारित पाठ्यक्रमों पर आधारित है.इसके साथ ही भारत और अमेरिका के विभिन्न राज्यों में बसे सगे -संबंधी मेरे वरिष्ठ मित्र को अपडेट करते रहते हैं.

हम रोज़ शाम को पैंतालीस मिनट की पदयात्रा करते हैं. इस यात्रा में ज़माने भर की चर्चा होती रहती है; राहुल गांधी की पदयात्रा से लेकर मोदी-शाह की विकास यात्रा तक. ज़ाहिर है चर्चाओं में मोदी जी का आना रामचरित मानस – गायन के समान है. ताज़ा से ताज़ा जानकारियां रहती हैं इनके पास. जब मैं तथ्यों व तर्कों  के साथ उनकी गलत जानकारियों के जाले  साफ़ करता हूँ तो उन्हें हैरत होती है. पुराने परिचित हैं. इस बार  एक  अंतर ज़रूर महसूस हुआ. पिछली यात्राओं में मोदी जी के विरुद्ध एक शब्द भी  सुनना  पसंद नहीं था. इस यात्रा में ऐसा नहीं है. अब धैर्यपूर्वक सुनते हैं और मेरे तर्कों को काटते नहीं हैं. लेकिन, ट्रम्प के समर्थक हैं. वैसे हैं डेमोक्रेट।

 प्रसंगवश  न्यू इंग्लैंड क्षेत्र के अधिकांश राज्यों में डेमोक्रैट पार्टी का वर्चस्व है।  चर्चित समाजवादी डेमोक्रैट नेता  बर्नी सेंडर्स भी इस क्षेत्र के वेरमॉन्ट राज्य से  सीनेटर हैं. वे लगातार 2007 से  यहीं से चुने जा रहे हैं. इस लेखक ने  वेरमोंट  राज्य की  यात्रा भी सितम्बर में ही की है. 

तो मेरे गुजराती  मित्र डेमोक्रैट समर्थक होते हुए भी मोदी -ट्रम्प दोस्ती के प्रशंसक हैं. वैसे इस देश में  दलों के नेता,सदस्य और समर्थक आसानी से निष्ठा परिवर्तन नहीं करते हैं. यदि कोई करता भी है तो वह लोगों की नज़र में गिर जाता है. आम समर्थक भी दल प्रतिबद्धता को निभाते हैं. भारत में तो  दल-बदल ‘राष्ट्रीय राजनीतिक धर्म’ बन चुका  है.अब  विधायकों की खरीद -फरोख्त और विरोधी सरकारों का पतन  की ख़बरें बाजार भाव के उतार -चढ़ाव  के समान हैं .जब  इसकी सिलसिलेवार जानकारी  वरिष्ठ  मित्र को दी तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ, पर हैरत हुई. इसका अर्थ यह है कि  भारत के घटनाक्रम की सही जानकारी का कितना अभाव प्रवासी समाज में है. सूचना क्रांति  के बावजूद चयनित व नियंत्रित या प्रायोजित ख़बरें ही प्रवासी लोगों तक पहुंचती हैं. राहुल गाँधी का  ‘पप्पू’ नामकरण तो लोकप्रिय है, लेकिन मोदी के  ‘फेंकू’ तमगा से लोग लगभग अपरिचित हैं. जब मित्र को मोदी के इतिहास के अभूतपूर्व ज्ञान का विवरण दिया तो वे सन्न रह गए. विश्वास नहीं कर पाये। इससे से अंदाज़ लगाया  जा सकता है कि समुद्रपारीय भारतीय समाज में कैसी सूचना क्रांति की ज़रूरत है।  गोदी मीडिया या स्वतंत्र  मीडिया में से किसे  चुना जाए , इस क्रांति की ज़रुरत है।  

तो मेरे  मित्र मोदी- ट्रम्प जोड़ी के प्रशंसक हैं । लेकिन ट्रम्प की हरकतें उन्हें भी पसंद नहीं हैं. अंतिम दिनों की हरकतें तो  बिलकुल ही नापसंद हैं. अलबत्ता वे  ट्रम्प के  मुस्लिम विरोधी रवैये के विरोधी नहीं हैं. ट्रम्प ने अपने सलाहकारों में हिन्दू भारतियों को भी रखा है, मित्र को ट्रम्प की यह उदारता भाती  है. लेकिन मित्र को यह संदेह भी है कि  ट्रम्प को  दुबारा राष्ट्रपति  चुना जा सकता है! लोगबाग़  पूर्व राष्ट्रपति को पसंद नहीं करते हैं. उन्हें लोकतंत्र विरोधी माना  जाता है. चरमपंथी ज़रूर चाहते हैं. 

जब कतिपय युवा  श्वेतों से बात की तो लगा कि  उन्हें डोनाल्ड ट्रम्प कतई पसंद नहीं है. यदि वे फिरसे राष्ट्रपति बनते हैं तो अमेरिका में कई प्रकार के संकट पैदा हो जायेंगे। अमेरिकी समाज गहरे तक विभाजित हो जायेगा। ट्रम्प बर्बर पूंजीवाद के समर्थक हैं. आम अमेरिकी उन्हें फिरसे राष्ट्रपति बनाना नहीं चाहेगा. यद्यपि अमेरिका के  राज्यों में ट्रम्प के कट्टर समर्थक हैं. वे उन्हें ही चुनना पसंद करेंगे. इसकी एक वजह यह भी है कि दक्षिण राज्यों में अब भी पिछड़ापन है. विषमता है. उत्तरी राज्यों की तुलना में इन राज्यों में लोगों की आय कम है. धार्मिकता , रूढ़ीवादिता, कट्टरता जैसी प्रवृत्तियां अधिक उग्र हैं।  इसलिए इन राज्यों रिपब्लिकन पार्टी का बोलबाला है. डोनाल्ड ट्रम्प  जैसे नेताओं के लिए यह क्षेत्र  ‘ मतों की खेती ‘ है. क्या भारत में भी  ‘ मत हरित क्रांति ‘ के लिए  व्याप्त पिछड़ापन, गरीबी, अशिक्षा, बेज़ोरज़गारी, धार्मिक -मज़हबी कट्टरपन, अंधविश्वास,  राज्य जातिवाद  जैसे तत्व खाद-बीज की भूमिका नहीं निभा रहे हैं ? इसकी बम्पर क्रॉप को भाजपा काट भी रही है, पहले इसकी उगाई व कटाई कांग्रेस  करती थी.  शायद इसीलिए कुछ हिंदी राज्यों  पर अभी तक  ‘ बे मारू राज्य ‘ का तमग़ा चस्पा हुआ है.

मैं पार्क से निकल रहा था. चलते चलते एक चीनी आप्रवासी टकरा गया.  उसकी  कथा सुनें।

दिलचस्प है यह चीनी। इसने बेतकुल्लफी से मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया मिलाने के लिए। आम  तौर से श्वेत ऐसा कम करते हैं. लेकिन,शायद  एशियाई होने की वजह से यह  अनौपचारिकता  जगी हो दूसरे एशियाई को देख कर. कह नहीं सकता। चंद  ही मिनिटों में उसने अपनी प्रवासी सफर का खुलासा कर दिया। उसने बताया कि वह मूलतः चीनी है. मलेशिया में बस गया. वहां से उखड़ कर अपने परिवार समेत  अमेरिका में आ कर बस गया है. अब वह यहीं का हो गया है लेकिन अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है. इसीलिए उसने चीन के वर्तमान  राष्ट्रपति झी जिनपिंग की नीतियों का समर्थन भी किया. वह बोला  कि पूर्व के राष्ट्रपतियों ने चीन में पूंजीवाद को खुली छूट दी जिससे विषमता बढ़ी. अब  राष्ट्रपति झी विषमता की खाई को मिटा रहे हैं. उन्होंने  ‘ कॉमन सोशल गुड ‘ का  नारा  दिया है. दुनिया के सामने  साम्यवाद की नई अवधारणा रखी है. पूंजीपतियों के विरुद्ध सख्त कदम उठाये जा रहे हैं. लेकिन पश्चिमी मीडिया सत्य को सामने नहीं आने दे रहा है. झी की नीतियों को तोड़ -मरोड़ कर दुनिया के सामने रख रहा है. एक दिन झी की नीतियां रंग लाएंगी।उसने शिद्द्त के साथ राष्ट्रपति झी की वर्तमान नीतियों को उचित ठहराया। मेरी कुछ बातों से असहमति ज़ाहिर की. भारत – चीनी संबंधों में भी  दिलचस्पी दिखलाई। मैंने चीनी अमेरिकी  को बतलाया कि अब दोनों देशों की सेनाएं विवादित क्षेत्रों से पीछे हट रही हैं. दोनों के बीच समझौता हो गया है. उसने संतोष व्यक्त किया।

संक्षिप्त बातचीत डोनाल्ड ट्रम्प पर आ कर ठहर गई।  इस चीनी प्रवासी के मत में ट्रम्प की वापसी की सम्भावना ‘ बिग ज़ीरो ‘ है. उसने अपनी उंगलियों की खास  गोल मुद्रा बना कर ट्रम्प की वापसी की सम्भावना पर विराम लगा दिया। लेकिन, यह भी कहने लगा कि डेमोक्रैट राष्ट्रपति जोइ बाइडेन को चाहिए वे  ट्रम्प के मामले में नरमी न दिखाएं, सख्त निर्णय लें।  ट्रम्प की वापसी का अर्थ है अमेरिका में  ‘ पहचान का संकट ‘ का खड़ा होना।  इसलिए  आम उदारवादी अमेरिकी ट्रम्प की वापसी के पक्ष में नहीं है. इस बिंदु पर आकर हम दोनों ने अपनी अपनी  राहें पकड़ीं। 

 

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कहीं रहें, किसी देश में बसें, नागरिक में जड़ों को पहचान की प्यास रहती है. अमेरीकियों के लिए ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ द्विवतीय का निधन कोरी घटना नहीं थी, जड़ों से जुड़ने का अवसर भी था. अमेरिकी मीडिया ने  महारानी के   8  सितम्बर  को निधन से लेकर 19 सितम्बर को अंतिम क्रिया तक के घटनाचक्र को  इसी भाव को   पूरी भव्यता  के साथ प्रसारित किया . एहसास कराया गया कि  अमेरिकी आप्रवासियों की जड़ें कहां  से हैं. इस कवरेज के माध्यम से  शाही विगत, भव्यता और  परम्परा की याद कराई गई.

प्रसंगवश, जब किसी आप्रवासी को नागरिकता प्रदान की जाती है तब उसे शपथ दिलाने से पहले उससे कुछ सवाल भी पूछे जाते हैं. एक सवाल यह भी रहता है कि अमेरिका के मूल निवासी कौन थे ? करीब 22 जनजातियों की लिस्ट में से किसी एक नेटिव का नाम बताना होता है. शपथ  के बाद राष्ट्रपति का प्यारा-सा पत्र भी प्राप्त होता है. इस बार, राष्ट्रपति जोइ बाइडेन ने  जहां अपने पत्र में यह संकेत दिया  है कि उनका परिवार भी यहां आकर बसा था, वहीँ उन्होंने  स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि  अमेरिका आप्रवासियों का राष्ट्र है. उनका सन्देश बिलकुल साफ़ है। 

इसके मायने  हैं कि अमेरिका  श्वेतों का ही नहीं है, अन्य नस्ल के आप्रवासियों का भी है। दुनिया के  विभिन्न हिस्सों के  नस्ल-जाती-रंग – धर्म-भाषा -संस्कृति के लोगों ने आधुनिक अमेरिकी  राष्ट्र का निर्माण किया है.  इस विशाल राष्ट्र पर कोई  एक समुदाय अपने आधिपत्य का दावा नहीं कर सकता। ट्रम्प शासन के दौर में इस ताने-बाने के छिन्न-भिन्न होने का खतरा पैदा हो गया था. ऐसा संकट फिर से पैदा न हो, अमेरिकी सावधान दिखाई देते हैं. अब दुनिया के  राष्ट्र बहुल पहचान और अस्मिता के कोलाज़ बनते जा रहे हैं. एकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद  व पहचान का समय लद चुका  है.

इस सच्चाई को  हम भारतीय जितना जल्दी समझ लेंगे, देश को उतना ही सुरक्षित व सुदृढ़ बना  संकेगे.

                                

 

इन दिनों अमेरिका में प्रवास कर रहे रामशरण जोशी देश के जाने-माने पत्रकार हैं। अमेरिकी समाज में आ रहे बदलावों पर उनकी ये टिप्पणियां समयांतर में छप चुकी हैं।