“जब सच कहने के पीछे की नीयत ख़राब हो, तो वह हर झूठ से ज़्यादा ख़तरनाक़ होता है”
विलियम ब्लेक
हम सबने, “सच, पूरा सच और सच के सिवा कुछ नहीं”का जुमला अक्सर सुना होगा। लेकिन कितने लोग हैं, जो इसे समझते हैं? इसका मतलब होता है कि सच को पूरी असलियत के साथ ऐसा कहा जाए कि उसमें कुछ भी जोड़ा-घटाया या बदला न जाए। सच्चाई को समझने के लिए केवल प्रसंग काफ़ी नहीं है, बल्कि संदर्भ और परिस्थितियां समझनी भी ज़रूरी हैं। इस बिनाह पर देखें तो, कश्मीर फाइल्स असफल हो जाती है। दरअसल, ये फिल्म सच्चाई से छेड़खानी करती है, सच के चुनिंदा हिस्से और किस्से उठाती है और सच को चालाक भावुकता के साथ पेश करती है। नतीजतन, फिल्म सिर्फ और सिर्फ नफ़रत और ज़हर का पुलिंदा बनकर रह जाती है। ये लोगों को साथ लाने और उनमें संवेदनशीलता पैदा करने का बेहतरीन मौका हो सकती थी; लेकिन देखते ही देखते, ये एक शैतानी और दुर्भावनापूर्ण मंसूबा बनती चली जाती है।
मैं मजबूर हूं कि मैं इसका दो अलग-अलग नज़रियों से विश्लेषण किए बिना नहीं रह सकता…शुरुआत मैं एक पटकथा लेखक के नज़रिए से करूंगा।
कहानी
कृष्णा पंडित (दर्शन कुमार) एक नौजवान है, जो एक विश्वविद्यालय के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रहा है (ये यूनिवर्सिटी और चुनाव निसंदेह जेएनयू की नकल पर है)। प्रोफेसर राधिका मेनन (पल्लवी जोशी), उसकी मेंटर हैं। वो एक कश्मीरी पंडित है और इसलिए सत्ताधारी दल के नैरेटिव को ध्वस्त करने के लिए आदर्श व्यक्ति है। (हालांकि मुझे ये नहीं पता कि कश्मीर, जेएनयू में चुनाव का मुद्दा कैसे है, फिर भी..)कृष्णा के दादा, पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर), डिमेंशिया से पीड़ित, एक विस्थापित कश्मीरी पंडित हैं, जिनका देहांत हो जाता है। वह उनकी अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए कश्मीर जाता है कि उनकी पार्थिव देह की राख को उनके पुरखों के घर में छिड़का जाए। कश्मीर पहुंच कर, उसकी मुलाक़ातपांच लोगों से होती है, जो कि उसका इंतज़ार कर रहे होते हैं। ब्रह्मदत्त (मिथुन चक्रवर्ती) –एक पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और उनकी पत्नी लक्ष्मी दत्त (मृणाल कुलकर्णी), डॉ. महेश कुमार (प्रकाश बेलवाड़ी), जो कि अमेरिका में रह रहे एक डॉक्टर हैं। एक रिटायर्ड अफ़सर डीजीपी हरि नारायण (पुनीत इस्सर) और एक पत्रकार विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव)। ये सभी अपने जीवन के सातवें दशक में हैं, बुज़ुर्ग हैं, थके और कड़वे हो चुके हैं।
ये सभी लोग, कृष्णा के दादा के जानने वाले हैं और उनके अतीत की जानकारी रखते हैं। उसे अपने पिता, मां अपने बड़े भाई की मुजाहिदीनों द्वारा भीषण नृशंस हत्या के बारे में कुछ भी पता नहीं है। उसको राधिका मेनन द्वारा इस हद तक ब्रेनवॉश कर दिया गया है कि वह तथ्यों को स्वीकार ही नहीं कर पा रहा है। लेकिन धीरे-धीरे वह अपने परिवार के बारे में सच जानने लगता है। अंत तक आते-आते वह एक अलग शख़्स बन जाता है।
जब वह अपने विश्वविद्यालय वापस लौटता है, वह एक भाषण देता है, जिसमें वह पूरी तरह से, सार्वजनिक रूप से राधिका मेनन को ध्वस्त कर देता है। उसका ओजस्वी भाषण, सुनने वालों को हैरान और शर्मिंदा छोड़ देता है।
फिल्म का अंत, 2003 में पुलवामा के नंदीमार्ग हत्याकांड में उसकी मां और भाई-बहनों के मिलिटेंट्स द्वारा उसके दादा के सामने की गई, नृशंस हत्या के ह्रदय विदारक दृश्यों के साथ होता है।
मैं सबसे पहले अपनी बात, फिल्म के सबसे अविश्वसनीय हिस्से के बारे में –कृष्णा का व्यक्तित्व। कृष्णा के दादा, जिनके साथ वो पला बढ़ा –वो एक दृश्य में अपने सीने पर एक बोर्ड लगाए दिखने हैं, जिस पर लिखा है, “आर्टिकल 370 हटाओ”। वे मुंहफट हैं और अपने विचारों को लेकर दृढ़ हैं। कृष्णा के माता-पिता दोनों की ही भूमिका उसके जीवन में उसके दादा ने ही निभाई है, इसलिए वो ही उसके जीवन पर सबसे ज़्यादा प्रभाव डालते हैं, जब तक कि कुछ साल पहले वह जेएनयू में प्रवेश नहीं लेता है।
जीवन में जो अनुभव कृष्णा ने जिया है, उसके आधार पर उसके लिए इतना मासूम या बिल्कुल ही अनजान होना उसके लिए लगभग असंभव है। ये बिल्कुल ज्ञात तथ्य है कि किरदार दरअसल अपने हालात का ही अक़्स होते हैं। आपके जीवन और उसके संघर्षों से ही तय होता है कि आप कैसे व्यक्ति बनने वाले हैं। कृष्णा को देखकर ऐसे लगता है कि उसे कई साल तक किसी अंधेरी कोठरी में रखकर, सीधे जेएनयू में फेंक दिया गया है। उसे देखकर ऐसा लगता है कि वह 4000 साल पहले की दुनिया से सीधे, आज के समय में चला आया है।
पूरी फिल्म इस बात पर आधारित है कि कृष्णा को कभी बताया ही नहीं गया था कि उसके माता-पिता और भाई-बहनों के साथ क्या हुआ। शायद फिल्मकार ऐसे नौजवानों का ख़ाका खींचना चाहता हो, जो 1990 में कश्मीर में जो हुआ, इससे अनभिज्ञ हैं। लेकिन ये काम नहीं आता है। फिल्म में इस बात का कोई स्पष्ट कारण नहीं दिया गया है कि इतनी बड़ी बात, उससे छिपाई क्यों गई। ये और ज़्यादा आश्चर्यजनक इसलिए लगता है कि उसके दादा, एक काफी मुखर व्यक्ति दिखते हैं, जो दिल की बात ही ज़ुबां पर रखते हैं। ये हैरतअंगेज़ है कि वह कभी उसे, उसके अपने ही अतीत के बारे में कुछ नहीं बताते। जबकि उसके दादा का किरदार, पूरी दुनिया को ये ही सच बताने की लड़ाई लड़ रहा है।
सोच कर देखिए एक व्यक्ति, जिसने अपना पूरा जीवन एक सच का खुलासा करने में लगा दिया। जिसने कभी किसी से ये सच कहने में गुरेज़ नहीं किया, उसने ये ही सच कभी अपने पोते को नहीं बताया। जिसका नतीजा ये है कि दोनों की व्यक्ति बेहद अवास्तविक और अस्थिर हैं।ये एक ऐसी बचकानी ग़लती है, जिसे कोई नौसीखिया लेखक भी नहीं करता।
लेकिन ये ऐसी बातें हैं, जिनके बारे में हम तब बात करते हैं, जब हम किसी अच्छे क्राफ्ट वाली फिल्म की बात करते हैं। मैंने ऐसी कोई उम्मीद न तो की थी, न ही ऐसा कुछ मुझे मिला।
दूसरी समस्या का सिरा है, राधिका मेनन (पल्लवी जोशी) से जुड़ा हुआ। वो मुझे मिस्टर इंडिया (1987) के मोगेम्बे की याद दिलाती हैं। उनकी प्रेरणा क्या है, इसका आप को कुछ पता नहीं चलता। मोगेम्बो, 90 के दशक की इस फिल्म का किरदार था, जिसको भारत पर क़ब्ज़े की सनक थी, ये ऐसा ही किरदार है। वो सिर्फ अपने मनोरंजन के लिए, कुटिलता और बेईमानी कर रही हैं। ये स्पष्ट नहीं है कि वो क्यों कश्मीर को जेएनयू चुनावों का मूल मुद्दा मानती हैं, लेकिन पूरी फिल्म में ऐसे किरदारों की भरमार है।
फिर आपको मिलता है एक आईएएस अफसर, उसकी पत्नी, एक डीजीपी, डॉक्टर और पत्रकार, जो सब दोस्त हैं। ये अपने दिवंगत मित्र के लिए कश्मीर में इकट्ठा हुए हैं। आप हैरान होने लगते हैं कि इतने साधन-संपन्न लोगों ने 30 साल तक, अपने सबसे करीबी मित्र को उसकी लड़ाई में, एक असहाय जीवन के लिए अकेला छोड़ दिया। ये बार-बार कहा गया है कि वे 30 साल बाद मिल रहे हैं।
हालांकि वे वाद-विवाद में इतने निर्भीक दिखते हैं, लेकिन उनमें से किसी ने भी कभी पुष्कर नाथ की मदद नहीं की. जैसे जैसे फिल्म आगे बढती है, उनकी बातें कोरी बकवास नज़र आने लगती हैं. मैं उनकी बातों से उकताने लगा था. सिवाय एक वक़्त, जब वह पत्रकार मित्र, पुष्कर नाथ केपरिवार को एक ऐसी जगह लेकर जाता है, जो कि पिछली जगह से भी ज़्यादा ख़तरनाक और जोख़िम भरी थी। और ये भी तब, जब कि वह अपने दोस्त की मदद करने की कोशिश कर रहा था।
वह केवल खोखले शब्द भर थे, जिन्होंने असल में पुष्कर नाथ की कोई भी मदद नहीं की। क्लाइमैक्स के पहले, आप ये सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि अगर ये दोस्त पहले मदद के लिए आगे आ जाते तो उस परिवार को इस मुश्किल दौर से न गुज़रना पड़ता।
इस समयरेखा में कई सारी घटनाएं हैं, जिनका इससे मेल नहीं बैठता। कृष्णा के पिता की हत्या, 19 जनवरी 1990को होती है और कृष्णा के मां और भाई की हत्या, नंदीमार्ग हत्याकांड में 2003 मेंहोती है –पिता की हत्या के 13 साल बाद। दोनों ही नौजवान इस दौरान ठीकठाक बड़े हो चुके होंगे। कृष्णा के सबसे बड़े भाई, शिव की उम्र, उस दौरान 8-10 साल थी तो इस समय 20 साल के आसपास होनी चाहिए। उस समय कृष्णा कम से कम 13 साल का रहा होगा, लेकिन उसे इस बारे में कुछ भी याद नहीं है।
शुरुआत में पंडित पुष्कर नाथ अपने दोस्त आईएएस ब्रह्मदत्त को बताते हैं कि उनके बेटे का नाम मिलिटेंट्स की हिटलिस्ट में है, लेकिन उन्हें कोई मदद नहीं मिली है। जबकि अगर ब्रह्मदत्त चाहते तो कर सकते थे, क्योंकि वो इतनी बड़ी शख्सियत है कि वह सीधे मुख्यमंत्री से सवाल कर सकते हैं।
मैं एक के बाद एक ऐसी अतार्किक बातें गिना सकता हूं, खराब लेखन, घालमेल और कहानी में अतार्किक उछाल लेकिन ये केवल फिल्म के कौशल या गुणवत्ता की बात नहीं है। मेरे लिए ये सिर्फ खराब लेखन और कमज़ोर निर्देशन है, लेकिन मैं अपने मानकों को दर्शकों पर थोप नहीं सकता।
तार्किकता
एक पटकथा लेखक के तौर पर मैं ख़ुद को रोकता हूं और दूसरी बात पर आता हूं। मुझे लगता है कि यह किसी तरह की कला या परिश्रम का काम नहीं बल्कि एक प्रोपेगेंडा है। पारिभाषिक तौर पर प्रोपेगेंडा –ऐसा प्रसार है –जिसमें जनमत को बदलने या बहकाने के लिए –सूचना, तथ्य, तर्क, अंदाज़ों, अर्धसत्यों और सफ़ेद झूठों का इस्तेमाल होता है। यह एक लक्ष्य को साधता है, एकतरफ़ा होता है और सच को या तो आंशिक रूप से या फिर सुविधाजनक तरीके से परोसता है।
इस मामले में द कश्मीर फाइल्स क़ामयाब होती है। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार, 1990 में कश्मीर में 357 कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई थी। हर आंकड़े के अनुसार घाटी में, इसी दौरान मिलिटेंट्स ने कहीं ज़्यादा मुस्लिमों की हत्या की थी। इस फिल्म में ये सवाल सिरे से गायब है कि इतने सारे मुसलमानों की हत्या क्यों हुई थी? क्या उनके कोई परिवार और दोस्त थे? क्या फिल्म में कहीं उनका ज़िक्र हुआ?क्या हज़ारों मुस्लिम बच्चे अनाथ हुए? क्या हज़ारों मुस्लिम औरतें विधवा हुई?
बेगुनाह लोगों की हत्या हो रही थी, भले ही वो हिंदू हों या मुस्लिम। मिलिटेंट्स ने सारी रिपोर्ट्स के मुताबिक मुसलमानों के ख़िलाफ़ भी हिंसा की। ऐसे मुसलमान की कहानियां, जो कश्मीर छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकते थे –रूह कंपाने वाली हैं। उन्होंने छुपकर रहने की कोशिश की, लेकिन वे कट्टरपंथियों के लिए आसान निशाना थे। फिल्म में इन असहाय लोगों और उनके परिवारों के दर्द के लिए कोई जगह नहीं है।
फिल्म में एक भी मुस्लिम किरदार नहीं है, जो संवेदनशील हो। हर मुसलमान या तो संदिग्ध है या फिर बुरा है।
इससे एक अहम सवाल उठता है: क्या फिल्म के लेखक और निर्देशक के पास ये जानकारी थी कि साल 1990 में ही कई मुसलमानों की आतंकियों ने हत्या की थी? हालांकि इस तथ्य को आराम से फिल्म से गायब कर दिया है क्योंकि ये निर्देशक के मकसद की पूर्ति नहीं करता है। जिस प्रोपेगेंडा के लिए ये फिल्म बनाई गई, उसके लिए वास्तविकता का ये अंश असुविधाजनक और मुश्किल है। नतीजे के तौर पर, तथ्य के केवल कुछ टुकड़े आपके सामने पूरे सच के तौर पर रख दिए जाते हैं, जिसका मकसद केवल लोगों को भड़काना है, जो फिल्म भली-भांति कर पा रही है।
मुसलमानों को केवल हत्यारों के तौर पर दिखाया गया है, जो महिलाओं को हवस से देखते हैं, काफ़िरों के क़त्ल के साथ खड़े हैं और कश्मीरी पंडितों को सामान बेचने से इनकार कर रहे हैं। मैं ये नहीं कह रहा हूं कि ऐसा नहीं हुआ। लेकिन इस फिल्म में ऐसा एक भी मुसलमान नहीं है, जिसमें मानवता का एक क़तरा भी बचा हो और सभी मुसलमान-निर्मम ही दिखाए गए हैं। यह न केवल असंभावित है, बल्कि असंभव भी है।
इसके बाद आता है जेएनयू का मुद्दा, साथ ही राधिका मेनन का व्यक्तित्व। मेरा भरोसा है कि फिल्मकार की कभी भी किसी जेएनयू छात्र से मुलाक़ात ही नहीं हुई। फिल्म में दिखाया गया जेएएनयू का संस्करण ओप इंडिया का संस्करण है। राधिका मेनन के भाव, एकता कपूर के किसी सास-बहू के धारावाहिक की शैतानी सास जैसे लगते हैं। लगता है जैसे 80 के दशक के विलन की वापसी, 2022 में हो गयी है.
उसके बाद है भोले-भाले हीरो का स्टीरियोटाइप, जिसे हम पहले ही खंगाल चुके हैं। फिल्म के लेखक के सामने एक चुनौती थी –इसे कैसे सामयिक और प्रासंगिक बनाया जाए। लेखक ने ख़ुद से कहा कि कैसा हो कि अगर नायक ख़ुद ही जेएनयू (फिल्म में एएनयू) का छात्र हो। लेकिन इसी जगह आकर हक़ीकत खड़ी हो जाती है। एक सामान्य जेएनयू छात्र का वैश्विक नज़रिया भी, किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के वाइस प्रेसीडेंट से अधिक व्यापक होता है। मैं इतने जेएनयू छात्रों से मिला हूं कि मैं जानता हूं कि वे हर चीज़ पर सवाल करते हैं। यहां तक कि वे चीज़ें भी, जिनमें वे यक़ीन करते हैं।
हालांकि, किसी ऐसे प्रोपेगेंडा पीस के लिए, ऐसा कोई नायक मुश्किल बन जाता। इसलिए इन्होंने इसे ब्रेनवॉश किया और उसे मार्क्सवाद के एक भोले शिकार के तौर पर पेश किया। वह जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष के लिए आदर्श उम्मीदवार भी है। लेफ्ट छोड़कर, कांग्रेस ज्वाइन करने के पहले कन्हैया कुमार ज़रूर इन चार बुज़ुर्गों से मिले होंगे।
सोचिए कि कश्मीर में फिल्म के इस सेट में किसी आर्मी ट्रक का एक भी शॉट नहीं है। फिल्म में फौज का इकलौता दृश्य वह है, जहां एक एयरफोर्स अधिकारी की मिलिटेंट्स हत्या करते हैं।
कश्मीर पुलिस के जो लोग दिखाए गए हैं, वे भी कायर हैं, लेकिन कोई भी आर्मी नहीं है। क्यों? क्योंकि सच्चाई और वास्तविकता, कश्मीर के मामले में असुविधाजनक है।
केवल एक आर्मी का काफिला दिखना भी सब कुछ बदल सकता था। इससे समस्या थोड़ी कम दिखाई देती है। इससे फिल्म का मक़सद बेकार हो जाता। प्रोपेगेंडाका खुलासा होता और वो ध्वस्त हो जाता। इसलिए बेहद समझदारी से फिल्म में किसी भी तरह का मिलिट्री का दृश्य नहीं दिखाया गया। न तो यहां-वहां या फिर कभी अतीत में भी। एक बार फिर, सत्य से छेड़खानी हुई और दर्शकों को सच का केवल एक अंश ही पेश किया गया।
अगर आपके पास एक तार्किक दिमागहै तो आपके लिए ये फिल्म देखना भी मुश्किल हो जाएगा। ये मेरे लिए लगभग एक सज़ा थी। हालांकि कुछ परिस्थितियों ने भावुक प्रतिक्रियाएं पैदा की लेकिन हेराफेरी ने लगातार असहज कर दिया। मुझे बेहद कष्ट के साथ ये फिल्म देखनी पड़ी, हालांकि मैं ज़रा सी भावुकता पर रो देने वाला व्यक्ति हूं। इस फिल्म का मकसद आपको भावुक करना नहीं, उकसाना है। मैंने अगर ये लेख लिखने का फ़ैसला नहीं किया होता, तो मैं आधी फिल्म छोड़ कर उठ आता।
लोग ये बहस कर सकते हैं कि फिल्म में दिखाई गई घटनाएं, असल में हुई थी और कुछ हद तक वे सही भी होंगे। लेकिन जैसे कि इस लेख की शुरुआत में कह दिया गया था कि किसी भी घटना के बारे में पूरा सच, बिना कुछ भी घटाए, बिना कुछ भी जोड़े और बिना कुछ भी बदले ही कहा जा सकता है। न केवल सच कहने के लिए संदर्भ चाहिए, बल्कि प्रसंग और परिस्थिति बताए जाना भी आवश्यक है।
और द कश्मीर फाइल्सइस पैमाने पर सिर के बल गिरती है। ये एक प्रोपेगेंडा की रचना है और घटना का केवल एक संस्करण दिखाती है। हां, घटनाएं कटु हैं, असहज करने वाली हैं और बदसूरत हैं। लेकिन वे भ्रामक, बेईमान और अधूरी भी हैं। द कश्मीर फाइल्स, एक ही मकसद को पूरा करती है, और वो है प्रोपेगेंडा।
दाराब फ़ारुकी, एक पटकथा लेखक हैं। उन्होंने डेढ़ इश्क़िया, टाइगर्स और नोटबुक के लिए स्क्रीनप्ले लिखा है।
(सौ. – ये लेख The Wire में प्रकाशित, लेखक के अंग्रेज़ी लेख का अनुवाद है, जो मयंक सक्सेना ने मीडिया विजिल के लिए किया है।)