माफ़ी के क़ाबिल नहीं मज़दूरों के बारे में सरकार और उच्चवर्ग का अज्ञान

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प्रभात पटनायक 


मेरे एक परिचित और प्रतिष्ठित विषाणु-विशेषज्ञ मित्र का मत है कि कोरोना वायरस के खिलाफ  सम्पूर्ण ‘लॉकडाउन’ कुछ ज्यादा ही बड़ी प्रतिक्रिया है. उनका तर्क है कि यह वायरस विदेश से आ रहा था, इसलिए विदेश से लौटे लोगों और उनके  सम्पर्क में आये व्यक्तियों का स्वास्थ्य-परीक्षण कर और उन्हें एकांतवास में रखकर इस वायरस के प्रसार को रोका जा सकता था. ऐसे तमाम व्यक्तियों को एकांतवास में भेजने की बजाय पूरे देश को लॉक डाउन कर देना ऐसा ही है जैसे लोहार के हथौड़े से अखरोट को तोडना.   

उनके विचारों का सम्मान करने के बावजूद मैं इस मुद्दे पर कोई निर्णय देने की स्थिति में नहीं हूँ. लेकिन मेरा दृढ मत हैं कि मात्र चार घंटे के नोटिस और बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन का निर्णय बेहद चौंकाने वाला और गैर-जिम्मेदाराना था. खासकर तब जब अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता लगातार सरकार से आग्रह कर रहे थे कि गरीब-मजदूर वर्ग को किसी न किसी प्रकार का सुरक्षा-कवच दिया जाए, और तब तक मुख्य तौर पर ‘सोशल डिसटेंसिंग’ लागू थी सम्पूर्ण लॉकडाउन नहीं. 

लॉकडाउन का सीधा-सादा अर्थ है लाखों कामगारों, जिनमें दूर कस्बों में किराए के मकानों में रहने वाले प्रवासी मजदूर भी शामिल हैं, की रोज़ी और आमदनी तत्काल छिन जाना. इसलिए, तमाम  मजदूरों के हित में, लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही तीन अन्य घोषणाएं भी की जानी चाहिए थीं: किरायेदारों को बेदखल करने पर रोक, हर घर के लिए न्यूनतम आय की व्यवस्था और जरूरी चीज़ों की उनके दरवाज़े पर आपूर्ति (या इनके समान कुछ और व्यवस्थाएं).

निस्संदेह इस प्रकार की व्यवस्था के लिए तमाम प्रबंध अत्यंत कठिन होते, लेकिन लॉकडाउन की घोषणा तब तक नहीं की जानी चाहिए थी जब तक इससे उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों के हल न खोज लिए जाते. इसके बाद ही ये सारी घोषणाएं एक साथ होतीं तो बेहतर होता. वित्तमंत्री  निर्मला सीतारमण ने अंततः एक वैकल्पिक पैकेज की घोषणा की. तब तक लॉकडाउन लागू हुए 36 घंटे हो चुके थे. अनेकों प्रवासी मजदूर पहले से ही अपने शहरों से बेदखल किये जा चुके थे. उनमें से बहुतेरे पैदल ही अपने घरों की ओर चल दिए थे अथवा बस-अड्डों के पास भारी संख्या में इकट्ठे होकर लॉकडाउन का उल्लंघन करने को मजबूर हो चुके थे. और तो और, जिस वैकल्पिक पैकेज की घोषणा वित्त मंत्री ने की वह भी बेहद मामूली था.

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता इस संकट से उबरने के लिए, निचले तबकों के 80 प्रतिशत परिवारों के लिए, कम से दो महीने के लिए, सात हज़ार रुपये प्रति माह, प्रति परिवार की आय-सहायता की मांग कर रहे थे. इसी तरह की मांग ट्रेड यूनियनों, महिला संगठनों और कई राजनीतिक दलों द्वारा भी की गई थी;  इन सबकी ओर से की जा रही मांग में धनराशि को लेकर ही कुछ अंतर था, लेकिन बेहद मामूली. लक्षित 80 प्रतिशत परिवारों को, दो महीने के लिए, प्रति परिवार, प्रति माह 7,000 रुपये देने में कुल राशि 3.66 लाख करोड़ बनती है. अगर हम सीतारमण द्वारा घोषित सभी नकद हस्तांतरण को जोड़ दें तो यह राशि महज 34,000 करोड़ रुपये है, जो नागरिक समाज के संगठनों द्वारा मांग की जाने राशि के 10 प्रतिशत से भी कम है.

प्रवासी मजदूरों को इस पैकेज के दायरे से लगभग पूरी तरह से बाहर रखा गया. हालांकि, इस पैकज से उन्हें भी खाद्यान और राशन के रूप में अतिरिक्त मदद का प्रावधान था. परन्तु इसे पाने के लिए उनके पास राशन-कार्ड नहीं हैं, अगर हैं भी तो वह उनके स्थायी निवास-स्थानों के न कि उन शहरों का जहाँ वे काम करते हैं.  

प्रवासी मजदूरों के बारे में सरकार का दृष्टिकोण बिलकुल ही स्पष्ट नहीं था. जब केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा, पैदल ही घरों को निकल पड़े मजदूरों को, आगे जाने की बजाये वहीँ रोक कर शिविरों में भेजने का आदेश दिया जा रहा था, ठीक उसी समय उत्तर प्रदेश सरकार उन्हें उनके घरों तक पहुँचाने के लिए बसों की व्यवस्था कर रही थी. और अब बसों की व्यवस्था करने वाले  दिल्ली सरकार के कई अधिकारी, केंद्र सरकार द्वारा अनुशासनात्मक कार्यवाही का सामना कर रहें हैं.  

प्रश्न यह उठता है कि आखिर केंद्र सरकार ने बिना सोचे-समझे लॉकडाउन क्यों और कैसे कर दिया? और यह भी स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि बिना राज्य-सरकारों से कोई चर्चा किये, केंद्र सरकार ने इसे एकतरफा रूप से लागू कर दिया. इस प्रश्न का आंशिक उत्तर तो नरेंद्र मोदी की ‘प्रभाव’ दिखाने और लोगों को अचानक ही नाटकीय रूप से विस्मित कर और चौंका देने की रूचि में निहित् है. विडंबना यह है कि इस प्रक्रिया में लोगों को जितनी अधिक असुविधा होती है उतना ही ‘प्रभाव’ भी ज्यादा पड़ता है और साथ ही प्रधानमंत्री की छवि भी एक ऐसे नेता के तौर पर गाढ़ी होती है जो जाहिर तौर पर, ‘राष्ट्रहित’ में ‘अप्रिय’ निर्णय लेनें से भी नहीं चूकता. योजना बनाना एक नीरस कार्य है और ‘चौंकाने और विस्मय पैदा करने’ से और बेहतर छवि-निर्माण होता है. परन्तु निरापवाद रूप से यह भी सत्य है कि, बिना किसी ठोस योजना के लिए गये निर्णयों के परिणाम अत्यंत विनाशकारी होते हैं.      

बिना सोचे-समझे और कोई ठोस योजना बनाये इस कदम के पीछे एक वजह यह भी है कि सरकार में गरीब, मजदूरों की समस्याओं के बारे में जानकारी का सरासर अभाव है. न सिर्फ कार्यपालिका, अपितु न्यायपालिका का भी यही हाल है. अपनी हर आलोचना को बंद करवाने के लिए सरकार ने सर्वोच्च-न्यायालय की सहमति प्राप्त करने का प्रयास किया. सरकार ने कहा कि फेक न्यूज़ यानि फर्जी ख़बरों की वजह से गरीब-मजदूरों ने पलायन करना शुरू किया था. इस तर्क के बहाने, सरकार का इरादा, थोड़ा-बहुत जितना भी स्वतंत्र मीडिया बचा है, को चुप कराने का था. इस तर्क के आधार पर सरकार यह कहने का प्रयास कर रही थी कि मजदूरों ने सैंकड़ों मील पैदल ही अपने घरों को लौटने का बचकाना फैसला सिर्फ इसलिए कर लिया क्योंकि किसी ने कोई फर्जी खबर फैला दी. सर्वोच्च-न्यायालय ने मीडिया का मुंह बंद करने की बात तो भले ही नहीं मानी लेकिन प्रवासी मजदूरों के पलायन के मुद्दे पर वह इस तर्क से सहमत प्रतीत हुई कि फर्जी ख़बरें भी इसकी एक वजह थी.   

आभिजात वर्ग भी इस अनभिज्ञता का शिकार है. यह वर्ग अत्यंत आश्चर्यचकित था जब लॉकडाउन की अवहेलना कर हजारों प्रवासी मजदूर अपने ठिकानों से निकल पड़े. इस वर्ग को  इसके पीछे की वजह तर्कहीन दहशत लग रही थी न कि मजदूरों की कोई वस्तुनिष्ठ आवश्यकता.  

उनकी यह अनभिज्ञता सिर्फ प्रवासी मजदूरों के लिए नहीं अपितु पूरे गरीब कामगार समुदाय के प्रति है.  महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के बारे में सीतारमण के पैकेज पर ही नज़र डालिए. उन्होंने मनरेगा के तहत मजदूरी दर को 182 रूपए से बढाकर  202 रूपए कर देने की घोषणा की और बताया कि इस वृद्धि से हर मजदूर को 2000 रूपये का फायदा होगा. इस गणना में यह मान लिया गया है कि हर मजदूर को साल में पूरे 100 दिन काम मिलता है. यह सत्य नहीं है. पिछले वर्ष कुल मनरेगा मजदूरों में से सिर्फ सात फीसदी को ही 100 दिन का काम मिल पाया था. इसके अतिरिक्त उन्होंने जिस मजदूरी दर की घोषणा की वह उस दर से भी कम थी जिसकी घोषणा  ग्रामीण विकास मंत्रालय कुछ दिन पहले ही कर चुका था. यह दर बहुत से राज्यों द्वारा पहले से ही दी जा रही मनरेगा मजदूरी से भी कम है. इन सब तथ्यों के अलावा, एक तथ्य यह भी है कि कई राज्यों में लॉकडाउन के चलते मनरेगा के तहत काम ही बंद है. ज़मीनी सच्चाइयों के प्रति वित्त मंत्री की अनभिज्ञता वास्तव में हैरान करने वाली है.       

कामगार गरीबों के बारे में जानकारी  के अभाव के साथ-साथ प्रशासनिक अक्षमता समस्या को तब और भी जटिल कर देती है जब सरकार की आलोचना  को खुले तौर पर प्रसारित न किया जा रहा हो. अमर्त्य सेन ने कहा था कि स्वतंत्र प्रेस अकाल के खिलाफ एक हथियार की तरह है क्योंकि खाद्यान की कमी की स्थिति में प्रेस द्वारा तुरंत समाचार प्रसारित करने के पश्चात ज़िल्लत से बचने के लिए सरकार को आवश्यक कदम उठाने ही पड़ते हैं. स्वत्रन्त्र प्रेस की वैधता के पक्ष में यह एक खरा तर्क है. इसके विपरीत अगर मीडिया सरकार के प्रति अत्यंत विनम्र है और सरकार को अरुचिकर लगने वाले समाचारों को छिपा लेता है तो प्रशासनिक अक्षमता की स्थिति में सरकार की जवाबदेही पर कोई सवाल ही नहीं उठता. जाहिर है कि ऐसी स्थिति अकर्मण्यता और अक्षमता बढती चली जाती है. 

मीडिया की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने के लिए आजकल एक फर्जी तर्क दिया जा रहा है. वह तर्क यह है कि आज युद्ध की सी स्थिति है और ऐसी स्थिति में लोगों के संकल्प और उनकी इच्छाशक्ति को कमज़ोर करने की किसी भी कोशिश से बचना चाहिए. इसके लिए एक और तर्क यह दिया जाता है कि अगर मीडिया अबाधित रूप से स्वतंत्र हो गया तो एक ओर जहाँ लोगों में निराशा फ़ैल जाएगी वहीं फर्जी खबरों का बोलबाला भी हो जाएगा. ये तर्क नितांत बेमानी हैं.  युद्ध की स्थिति में शत्रु के रूप में सामने इंसान होता है जो मीडिया में झूठी खबरें अथवा अफवाहें प्रसारित करवा कर अपनी रणनीति तैयार करता है. परन्तु एक वायरस न तो खबरें फैलाता है न खबरें पढता है. इस वायरस से सिर्फ संकल्प नहीं अपितु विज्ञान के सटीक सिद्धांतों पर अमल करके लड़ने की आवश्यकता है. और इस लड़ाई के लिए जितना भी ज्यादा संभव हो, साफदिली और स्पष्टता की आवश्यकता है.


 

लेखक,  सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के सेवामुक्त प्रोफेसर और प्रतिष्ठित राजनीतिक चिन्तक हैं.  मूल रूप से ‘द टेलीग्राफ’ में 10 अप्रेल 2020 में प्रकाशित.

अनुवाद – कुमार मुकेश