वहां न कोई दुख है, न कोई घबराहट..वहां किसी पर कोई कर नहीं लगता है…वहां जाति या वर्ग का कोई भेद नहीं है…वहां सबके लिए भोजन है…सबके लिए घर है…संत रविदास अपनी वाणी में, एक ऐसे शहर की कल्पना करते हैं, जिसे हम आधुनिक राजनैतिक परिभाषा में ‘वेलफेयर स्टेट’ कहते हैं। रविदास इस शहर को ‘बेग़मपुरा’ कहते थे, यानी कि वह नगर – जहां कोई ग़म या दुख न हो। दुख क्या था? क्या महज शारीरिक और आर्थिक दुख? या फिर छुआछूत-ग़ैर बराबरी और मज़हबी विद्वेष तक का वह दुःख, जिससे हम आज तक एक समाज के तौर पर उबर नहीं सके हैं।
बेगमपुरा शहर को नांव, दुख अंदोह नहीं तिस ठांव।
न तसवीस, खिराज न माल, खौफ, खता न तरस जवाल।
रविदास की ये परिकल्पना उनके परिवेश, उनके बचपन, उनके द्वारा झेले गए जाति के दंश और समाज को बदलने के उनके सपने से आती है। वही सपना, जिसे उनके समकालीन उनके बुज़ुर्ग हो रहे दोस्त-गुरू कबीर भी देख रहे थे और वे इस विचार से ऐसा प्रभावित थे कि वे रविदास के शब्द को जस का तस उचारते हुए, कहते हैं;
अवधू बेगम देश हमारा।
राजा-रंक-फकीर-बादसा, सबसे कहौ पुकारा।
मैं ही नहीं, हम में से न जाने कितने दीवाने हैं – जो बेग़मपुरा या मार्क्स के सपने से पागल – न जाने कितने सालों से दर-ब-दर भटकते रहे हैं और हर किसी ठौर और छांव में इस सपने को ढूंढते रहे हैं। मैं अगर आपसे कहूं कि मुझे बेग़मपुरा मिल गया, तो क्या आप यक़ीन मानेंगे? पर मैं ये कहूंगा कि मैंने नवम्बर, 2020 से लेकर अभी तक, हर रोज़ दिल्ली में ही अलग-अलग कोनों में बेग़मपुरा के सपने को सामने ज़िंदा होते देखा है।
सिंघू – सूरा सो पहचानिए
30 नवंबर की आधी रात, जब मैं दिल्ली के ठीक कोने पर, करनाल की ओर जाने वाले हाईवे पर सिंघू सीमा पर पहुंचा – तो ज़्यादातर किसान आंदोलनकारी, थक कर सो रहे थे। लेकिन लंगर चालू था और मुझसे वहां पहुंचते ही खाने के लिए इसरार किया गया। मैं थका हुआ था और करीब 5 किलोमीटर पैदल चला था। बैठने के बाद, मैंने जब दोनों हाथ जोड़ कर, दो रोटियां ली तो मुझे एक बुज़ुर्ग ने कहा – पीछे मेरा टैंट है, आप आकर वहीं सो जाइएगा। मैं रात भर वीडियोज़ के लिए शूट करता रहा, कभी हुक्कों के चारों ओर बैठे लोगों से बातचीत की, तो कभी खुले में सोते किसानों के विसुअल चुपचाप उतारे। सुबह 4 बजे मुझे लगा कि मेरा माथा बुखार से तप रहा है और एक अधेड़ किसान ने आकर मुझसे कहा, ‘मेरे साथ चलिए।’ वे तीन लोग थे, जो मुझे एक ट्रैक्टर में ले गए। कोहरे से भीगी मेरी जैकेट अलग की, मुझे पैरासिटामॉल खिलाई और गर्म पुआल पर सुला दिया। साथ के लोगों को ताकीद की गई, कि मुझे कोई सुबह जगाएगा नहीं…उस समय आसपास, कोलाहल होने लगा था-किसान गांव की ही तरह, सुबह 4 बजे ही नहाने में लग गया था। तापमान 7 डिग्री के करीब था। कुछ ही देर पहले, पंजाब के सुदूर इलाकों से घोड़ों पर सवार होकर-निहंग साधु पहुंचे थे, जिन्होंने मेरे पूछने पर हंस कर कहा था, “ओ जी, घोड़े तो होते ही दौड़ाने के लिए हैं..अब इनको चारा खिलाकर, हम लंगर छकेंगे..”
सुबह मेरी आंख खुली, तो मेरे लिए तुरंत चाय और देसी घी की पिन्नी (चावल के आटे और खोए को मिलाकर बना, मेवे का पंजाबी लड्डू) लाए गए। मैं उठा और सामने पूरी-सब्ज़ी थी, जिसके साथ एक और पैरासिटामॉल की गोली थी। ये दवा, 100 मीटर दूर ही लगाई गई डिस्पेंसरी से आई थी। किसानों को यहां जमे दो दिन भी ठीक से नहीं हुए थे और यहां 24 घंटे चल रहा, लंगर था और डिस्पेंसरी भी थी। मैं उठकर आगे निकला और मुझे वे लोग मिले, जो राह चलते हर शख़्स को इसरार कर के, गुड़ की ढेलियां और पानी दे रहे थे। ये सिंघू का मेरा पहला अनुभव था और मैं ही नहीं, वहां कोई भी भूखा नहीं था – आसपास के इलाके में रहने वाले हज़ारों मज़दूर भी, जो वहीं की फैक्ट्रियों में काम करते हैं।
शाहजहांपुर – पधारे अपने देस
मेरा अगला अनुभव था, कुछ ही दिन बाद शुरू होने वाले, उस प्रदर्शन स्थल का, जहां हरयाणा और राजस्थान अलग भी होते हैं और मिलते भी हैं। शाहजहांपुर, एक कस्बा है – राजस्थान का और रेवाड़ी ज़िला है – हरयाणा का। इनकी सीमा पर एक गुलाबी स्तंभ है, जिस पर लिखा है – हरयाणा, सीमा आरंभ। इस खंभे के एक और हरयाणा पुलिस है, बड़े-बड़े कंटेनर, कंक्रीट ब्लॉक और बैरीकेड्स हैं और दूसरी ओर – दिल्ली-मुंबई हाईवे पर बैठे हैं, राजस्थान, हरयाणा, केरल, महाराष्ट्र के हज़ारों किसान। जिस रात मैं पहली बार यहां पहुंचा – ये किसान बस यहां आए ही थे। कोई ख़ास इंतज़ाम नहीं था, बिजली भी नहीं थी और न ही पानी। रात का पारा गिरने लगा था और तारीख़ थी, 14 दिसंबर, 2021। एक कोने में, एक बंद पड़े ढाबे में 10 लोग मिल कर पूरियां तल रहे थे और सब लोग, खाना खा रहे थे। पहुंचते ही, सबसे पहले मुझसे कहा गया कि मैं खाना खा लूं। हमने साथ बैठ कर खाना खाया। पूरियां और मौसम में उपलब्ध गोभी-आलू की सूखी सब्ज़ी। सामने ही टेंट लगा था, जिसमें मुझे सोने को बिस्तर दिया गया। रात का पारा गिरकर, 3 डिग्री जा पहुंचा था। मेरे पास ही योगेंद्र यादव लेटे थे और हमारी आंख देर रात 1 बजे खुल गई, क्योंकि टेंट की छत पर ओस इकट्ठी होकर, पानी की बूंदों के रूप में हमारे माथों पर टपक रही थी।
उसी समय, तमाम ऐसे किसान साथी थे – जो या तो हुक्कों के किनारे बैठे हुए, किसान क़ानूनों पर बैठकी जमाए थे, ट्रॉली के नीचे बस कंबल तान कर सो रहे थे, या फिर अलाव जलाकर रखवाली कर रहे थे। तभी अचानक कुछ हलचल हुई और 5-6 30-40 साल के बीच के साथी वहां पहुंचे। उनमें से कोई 50 किलो आटा लेकर आया था, कोई गाजर की बोरी, तो कोई अपने खेत की मटर…एक साथी ने कहा कि उनके घर से बनने वाली छाछ, सुबह ‘सरस'(हरयाणा की सरकारी-सहकारी डेयरी) को न जाकर, धरनास्थल पर आ जाएगी। हमने (मैंने और योगेंद्र यादव ने) पूछा, “आप किस गांव से हैं…?” तो जवाब में पता चला कि वे, पुलिस में नौकरी करते हैं, पड़ोस के गांव से हैं और हम हैरान थे, जब हमको पता चला कि वे दरअसल दिन भर, उसी सीमा पर – हरयाणा सरकार की ओर से, किसानों को रोकने के लिए तैनात किए गए पुलिसबल का हिस्सा हैं।
रात भर, कुछ साथी, इस सर्दी में लगातार चाय बनाने और पिलाने का ज़िम्मा संभाले रहे। सुबह वहां एक छोटी सी डिस्पेंसरी चालू हो चुकी थी, जिसे निशा सिद्धू जी चला रही थी। नाश्ते में, कोई सैकड़ों पैकेट डबलरोटी पहुंचा गया था, जिसे स्थानीय विधि से सब्ज़ियों के साथ पका कर, अद्भुत स्वादिष्ट और तेज़ी से बनने वाला नाश्ता बना लिया गया था। सब के लिए भोजन था…रात भर पानी टपकने से गीले हो गए, कंबल और गद्दे – धूप में सूख रहे थे कि सबके लिए बिस्तर हो..पास के ही एक होटल ने, अपने रेस्तरां को सोने की जगह में बदल दिया था…और कुछ डॉक्टर्स भी आने वाले थे, कैंप लगाने के लिए…सबके लिए इलाज भी उपलब्ध होने वाला था..
टीकरी – चिड़ियां नाल मैं बाज लड़ावां
हम टीकरी सीमा, यानी कि पंडित श्रीराम शर्मा मेट्रो स्टेशन से नीचे उतर कर, अपने कैमरों को लगाकर – लाइव करने के लिए जगह की तलाश में थे। हमारे नौजवान साथी निर्मल पारीक, टीकरी सीमा के उस कोने पर जा खड़े हुए थे, जहां पर पुलिस की बैरीकेड्स शुरू होती हैं। मैं एक दूसरे हिस्से से लाइव पर खड़ा था। हमारी पूर्व असिस्टेंट एडिटर, सौम्या – अजमेर से एंकरिंग कर रही थी। अचानक एक अधेड़ किसान आकर, लाइव करते निर्मल की ज़ेब में एक सेब रख देता है। मैं ये दूसरी ओर से लाइव में देख पा रहा हूं। उसी लाइव के दौरान, एक साथी मेरे हाथ में मुट्ठी भर के, मेवा पकड़ा देता है और फुसफुसा के कहता है – सर्दी है भाईजी, खाते-पीते रहो।
जिस जगह निर्मल लाइव कर रहे थे, आज वहां पर मंच के ठीक सामने, एक शानदार लंगर है…जहां हर रोज़ हज़ारों लोग पेट भर खाना खा रहे हैं। न केवल किसान बल्कि आसपास के लोग भी। उसके ठीक सामने, टीकरी आंदोलन की सबसे बड़ी डिस्पेंसरीज़ में से एक है। जहां पर मैं खड़ा था, आखि़री बार, जब मैं वहां गया तो – वहां पर एक लाइब्रेरी खड़ी है, जहां लिखा है – ये क़िताबें खरीदने के लिए नहीं हैं, पढ़ने के लिए हैं।
ग़ाज़ीपुर – दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को
ग़ाज़ीपुर सीमा के एक और है – एक क़स्बे और आधुनिक शहर के बीच की जद्दोजहद का मक़ाम, ग़ाज़ियाबाद…एक ओर है, नए सपनों का उत्तर आधुनिक पिंजरा नोएडा और एक ओर है, राजधानी होने के दंभ से फूलकर, फटने को अग्रसर दिल्ली। इसी ग़ाज़ीपुर में, मेरठ की ओर 100 की रफ्तार से जाती गाड़ियों का रास्ता रोककर, किसानों ने अपनी मांगों को लेकर धरना दे दिया है। शुरुआत में कम चर्चित ग़ाज़ीपुर, अब सबसे अधिक जाना जानेवाला, किसान आंदोलन स्थल है। मैं इसको भी उस पहली शाम से याद करना चाहूंगा, जब यहां बमुश्किल 3-4 हज़ार किसान थे। पुल के ऊपर के हिस्से में एक मंच था, जिसे एक अधिकारी के निर्देश पर पुलिसकर्मी ढहाने पर तुले थे। उस समय, मैं अपने लाइव के दौरान, पुलिसकर्मियों से एक ही सवाल कर रहा था, “आप का परिवार भी खेती करता है क्या?” और एक बुज़ुर्ग पुलिसवाले ने कहा, ‘हम सब किसान ही हैं, सर…’ मैं और मेरा सवाल, दोनों रुक गए थे। रात भी गहराने लगी थी और वही किसान, जो अभी तक पुलिस के आमने-सामने थे, वो लाकर पुलिसकर्मियों को चाय और बिस्किट दे रहे थे। कुछ पुलिसकर्मी, वहीं चल रहे छोटे से लंगर (जो अब विशालकाय है) में बैठे, भोजन कर रहे थे।
मैंने एक दुबले और फटे-मैले कपड़े पहने, बुज़ुर्ग सेवादार से पूछा, ‘आप पुलिसवालों को खाना खिला रहे हो…कल सुबह ये ही डंडा लेकर आपको हांकेंगे…’ उसने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘पुत्तर, ऐ न गुरू नानक दा लंगर हैगा…इत्थे कोई भेद नहीं है। न अमीर का, न गरीब का..न छोटे का, न बड़े का..न जात का, न धरम का…हरी दी चिड़िया, हरी द खेत(गुरू नानक के एक दोहे की पंक्ति..)’ मैं सिर झुका कर, देर तक आंसू रोकता रहा। गाज़ीपुर पर वो ही नहीं, न जाने कितने लंगर चालू हैं…लगातार और फिर वही बात…वहां सबके लिए भोजन है और सबके लिए घर…
बेग़मपुरा आपके मन में होगा, तो असल में भी हो जाएगा..
इन चार प्रदर्शनस्थलों की कहानी, सिर्फ इन पहले अनुभवों तक सिमटी नहीं है। आज सिंघू – 6 किलोमीटर तक फैला एक शहर है। टीकरी भी कम से कम 3 किलोमीटर में फैला है। ग़ाज़ीपुर में भी कम से कम 10 हज़ार किसान, हर समय हैं और शाहजहांपुर में तो न जाने कितने राज्यों और कितनी भाषाओं को बोलने वाले किसान एक साथ बैठे हैं। सिंघू पर तंबुओं में ऐसे अस्पताल आबाद हैं, जहां वेंटिलेटर भी है और आईसीयू भी। ये ही स्थिति टीकरी पर भी है। ग़ाज़ीपुर और शाहजहांपुर में भी डॉक्टर, एंबुलैंस और डिस्पेंसरी 24 घंटे उपलब्ध हैं। सबके लिए…सिर्फ किसानों के लिए नहीं।
सबके लिए बिस्तर है, टेंट है, कंबल है और सोने की-रहने की जगह है। इन सारे ही बॉर्डरों पर न केवल बच्चों के लिए पढ़ने की सुविधा है, सुंदर लाइब्रेरी भी बना दी गई हैं। सोचिएगा कि आपकी सरकारों को कितना ध्यान है कि आपके इलाके में आपके लिए लाइब्रेरी हो? सिंघू के पुस्तकालय का नाम, शहीद भगत सिंह लाइब्रेरी है तो शाहजहांपुर में नाम है – हसन ख़ां मेवाती पुस्तकालय।
आपको सिंघू पर चलते हुए, भयानक सर्दी में अचानक गर्म पानी का लंगर दिखेगा, जहां आप अपने थके या सर्दी से पीड़ित गले को गुनगुना पानी पीकर – राहत दे सकते हैं। इन जगहों पर अचानक कोई आपका हाथ पकड़कर, मनुहार से आपको अपने हाथ का बनाया हुआ गुड़ खिलाकर, पानी पिलाएगा, तो कोई आकर – आपकी ज़ेब में, मेवा भर जाएगा। आपको औरतें और आदमी रोटी बनाते, सब्ज़ी काटते और खाना पकाते दिखेंगे – कि हज़ारों नहीं, लाखों लोगों का पेट भरा जा सके। शाहजहांपुर सीमा पर एक पूर्व विधायक, दिन भर लोगों की जूठी पत्तलें बटोरता दिखेगा, तो उसकी पत्नी और बेटी – रोटियां बेलते हुए।
सफाई के काम के लिए, यहां जाति आधारित व्यवस्था नहीं है। बारी-बारी से, सभी ये ज़िम्मेदारी उठाते हैं। वृद्धों और अशक्तों को मदद के लिए लगातार वहीं रह रहे नौजवान तैनात हैं। हेल्पडेस्क हैं और लगातार असामाजिक तत्वों पर निगाह रखने वाले लोग। स्वच्छ और करीने से, जगह-जगह बने शौचालय और रास्ता बताने के लिए वालंटियर्स के अलावा इंटरनेट के हॉटस्पॉट भी।
हम वोट देते हैं और टैक्स देते हैं। बदले में हमको ये नहीं, इनसे कहीं अधिक चीज़ें मुहैया कराने का वादा होता है। पर हक़ीकत में इससे भी कहीं कम ही मिलता है। इस देश में जिस मज़दूर की हालत, पिछले 6 सालों में बद से बदतर और कोविड 19 के बाद, शर्मसार करने वाली हुई है। उसको लेकर, हमारी सरकार का रवैया क्या है, इसके बारे में बात करना – अब विकास में बाधा पहुंचाना हो चला है। पर सिंघू, ग़ाज़ीपुर, टीकरी पर उस मज़दूर ने पिछले 90 दिनों में तीनों वक़्त का भोजन, अपने बच्चों के लिए दूध और बीमारों के लिए दवा…पहली बार मुफ्त में पाई हैं।
ये वो ही वेलफेयर स्टेट का सपना है, जिसे हमने अपने इस देश के लिए देखा था और कभी भी सच नहीं कर सके। किसानों ने अपने आंदोलन में इसे पूरा कर दिखाया है और मॉडल सामने है। सरकार को चुनौती केवल किसानों के आंदोलन से ही नहीं है, इस सवाल से भी है कि जिसे किसानों ने कर दिखाया, तमाम संसाधन और बजट के बावजूद सरकारें क्यों नहीं कर पाती? नारों के शोर में दबे इस सवाल को रविदास ने बेग़मपुरा कहा था – किसान इसे कुछ नहीं कहते हैं, बस वे, आपके सिर पर प्यार से हाथ फिरा देते हैं, या फिर आपके गले लगकर, रो लेते हैं।
रविदास अपने सपनों के शहर के लिए कहते हैं;
आबादान सदा मसहूर, वहां गण बसैं मामूर।
वहां सैर करो जहां जी भावै, महरम, महल न कोय अटकावै।
अब मोहि खूब वतन गहि पाई, वहां खैर सदा मेरे भाई।
कहे रविदास खालस चमारा, जो हमसहरी सो मीत हमारा।
मैंने बेग़मपुरा को देखा है, 90 दिनों में हर रोज़ देखा और जिया है। इस आंदोलन ने सिर्फ एक सपना नहीं दिखाया है…एक आदर्श भी खड़ा किया है और आदर्शों का मज़ाक बनाने वाले समय में, आदर्श खड़ा करना – सिर्फ ग्रामीण भारत के बस की ही बात थी। शहर, सिर्फ गांवों का ख़ून चूस कर, अपनी इमारतों की ऊंचाई बढ़ाता है…और उसे कुछ नहीं आता। हम बेग़मपुरा इसलिए बना नहीं सके, क्योंकि बराबरी और प्रेम की वह भावना-हम अपने मन में ही कभी पैदा नहीं कर सके। बेग़मपुरा की खोज जारी मत रखिए, सिंघू-टीकरी-गाज़ीपुर-शाहजहांपुर को अपने मन में बसाने की कोशिश कीजिए…शायद हम भारत, इसके संविधान और इसके निर्माताओं के सपनों को एक दिन सच कर लेंगे।
मयंक सक्सेना, Media Vigil के Executive Editor हैं और पिछले 3 माह से लगातार, किसान आंदोलन की ग्राउंड ज़ीरो से रिपोर्टिंग कर रहे हैं।