धर्म संसद के आतंकी बयानों पर चुप्पी भविष्य के लिये घातक है!

विजय शंकर सिंह विजय शंकर सिंह
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बीबीसी से एक बातचीत में जब उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य से पूछा गया कि, धर्म संसद में जो नरसंहार की बात कही गयी, उसके बारे में उनका क्या कहना है।

केशव प्रसाद ने कहा कि वह चुनाव का मुद्दा नहीं है। इतना कह कर उन्होंने माइक निकाल दिया और इंटरव्यू के लिये मना कर दिया। पत्रकार से यह भी कहा कि, वे यह सवाल एजेंडे के तहत पूछ रहे हैं।

केशव प्रसाद मौर्य एक संवैधानिक पद पर हैं और उन्होंने संविधान सम्मत कार्य और आचरण की शपथ ली है। धर्म संसद में खुलेआम, हत्या करने, अल्पसंख्यकों का नरसंहार करने, और संविधान की मूल आत्मा के विरुद्ध द्विराष्ट्रवाद के मॉडल पर, हिंदू राष्ट्र के स्थापना का आह्वान किया गया, और डिप्टी सीएम कह रहे हैं कि यह चुनाव का मुद्दा नहीं है। यह मुद्दा चुनाव का भी है और उससे भी महत्वपूर्ण यह मुद्दा देश की एकता और अखंडता का है। संविधान के मूल्यों का है। सामाजिक समरसता है। देश की बहुलतावादी संस्कृति को बचाने का है। नागरिकों की रक्षा का है। दुनिया के सबसे पुराने धर्म और संस्कृति के सम्मान का है। पर केशव मौर्य की इतनी भी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह यह भी कह दें कि जो कुछ भी धर्म संसद में कहा गया वह अनुचित और दुर्भाग्यपूर्ण था।

कारण साफ है। आज तक हरिद्वार, दिल्ली, रायपुर की धर्म संसद में जिस प्रकार से घृणास्पद बयान दिए गए, लोगो को सामूहिक हत्या और नरसंहार के लिये उकसाया गया, उस पर न तो प्रधानमंत्री जी की खामोशी टूटी, न बराबर अखंड भारत की बात कहने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस के प्रमुख, मोहन भागवत ने एक भी शब्द कहा और न ही भाजपा के किसी नेता ने इस पर ऐतराज जताया। सबकी ज़ुबां बंद रही। सब खामोश बने रहे, संविधान का चीर हरण होता रहा और सत्ता या तो खामोश दर्शक की तरह बनी रही या वह इस जुर्म में शरीक रही। ऐसी दशा मे जब, केशव प्रसाद मौर्य के आक़ा चुप हैं तो उनकी हिम्मत कैसे पड़ती वे इस धर्म संसद के इन बयानों पर कोई टिप्पणी कर देते। वैसे भी तो वे स्टूल पर विराजने की हैसियत से ऊपर तो अब भी नहीं उठ पाए हैं।

लेकिन देश के जिम्मेदार नागरिकों ने इस खतरे को भांपा और वे खुल कर सामने आए और धर्म संसद या घृणा सभा मे दिए गए नरसिंहानंद और अन्य के बयानों का विरोध किया। सबसे पहले पांच पूर्व सेनाध्यक्षों सहित सुरक्षा बलों के बड़े अफसर सामने आए और उन्होंने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को धर्म संसद के आयोजकों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिये पत्र लिखा। फिर सिविल सोसायटी के लोग और वकीलों की जमात सामने आयी उन्होंने भी इस संविधान विरोधी कृत्य की निंदा की और कड़ी कार्यवाही करने की मांग की। इसके बाद आईआईएम अहमदाबाद और बेंगलुरु के फैकल्टी सदस्य और छात्र सामने आए और उन्होंने ने भी इसे देश की एकता, अखंडता को खतरा बताते हुए, धर्म संसद के आयोजकों और भड़काऊ बयान देने वाले फर्जी साधुओं पर कानूनी कार्यवाही करने की मांग की।

दुनियाभर के अखबारों, मीडिया, सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर, इस आतंक फैलाने वाली सभा की खबरें प्रसारित होने पर प्रवासी भारतीयों के एक समूह ने, संयुक्त बयान जारी करके इस घृणासभा की निंदा की। 28 वैश्विक संगठनों के इस समूह में, हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई, सभी समुदायों के प्रतिनिधि भी शामिल हैं। उन्होंने ‘धर्म संसद’ में मुस्लिमों के जनसंहार की अपील और घृणा फैलाने वाले भाषण देने वाले लोगों को गिरफ्तार करने में विफल रहने पर सरकार की भी आलोचना की है। इन संगठनों में हिंदूज़ फॉर ह्यूमन राइट्स वर्ल्डवाइड, इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ इंडियन मुस्लिम्स वर्ल्डवाइड, इंडिया अलाएंस यूरोप, स्टिचटिंग लंदन स्टोरी यूरोप, दलित सॉलीडैरिटी फोरम यूएसए, इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल यूएसए, इंडिया सॉलीडैरिटी जर्मनी, द ह्यूमैनिज़्म प्रोजेक्ट ऑस्ट्रेलिया, पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन कनाडा और साउथ एशिया सॉलीडैरिटी ग्रुप यूके, फेडरेशन ऑफ इंडियन अमेरिकन क्रिश्चियन ऑर्गेनाइजेशन आदि शामिल हैं।

इन पत्रों या अपीलों पर भी न तो राष्ट्रपति ने कुछ कहा और न ही प्रधानमंत्री ने। हरिद्वार, दिल्ली, और रायपुर की पुलिस ने ज़रूर मुक़दमे दर्ज किये हैं, पर आज तक न तो यति नरसिंहानंद, जो इस सभा का संयोजक है, उसकी गिरफ्तारी हुयी और न ही अन्य भड़काऊ भाषण देने वालों की और न ही संविधान विरोधी शपथ दिलाने वाले सुरेश चह्वाणके की। जिन लोगो के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) अथवा यूएपीए के अंतर्गत कार्यवाही की जानी चाहिए, वे अब तक छुट्टा घूम रहे हैं। यह इस बात का संकेत भी है, उन पर सत्ता या सत्ता को भी नियंत्रित करने वालों का वरद हस्त है।

इसके साथ 10 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने भी, हरिद्वार धर्म संसद सम्मेलन के संबंध में आपराधिक कार्रवाई की मांग करने वाली एक जनहित याचिका पर तत्काल सुनवाई के लिए सहमति दे दी है। हो गया, जहां मुसलमानों के खिलाफ नफरत भरे भाषण और नरसंहार के आह्वान किए गए थे। वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तत्काल सुनवाई के लिए सीजेआई से अदालत में कहा,

“हम क्या  अलग-अलग समय में रह रहे हैं, जहां देश में नारे, बोधवाक्य, सत्यमेव जयते से बदलकर शस्त्रमेव जयते हो गए हैं?”

उल्लेखनीय है कि, हमारे बोधवाक्य सत्यमेव जयते की तर्ज पर, हरिद्वार धर्म संसद में, शस्त्रमेव जयते की बात कही। अदालत को बताया गया कि, ” हालांकि प्राथमिकी, एफआईआर, दर्ज कर ली गई है, लेकिन अभी तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है। यह मामला, उत्तराखंड राज्य का है। आप (सुप्रीम कोर्ट) के हस्तक्षेप के बिना कोई कार्रवाई नहीं हो पाएगी।”

इसके बाद सीजेआई, इस मामले की सुनवाई करने के लिए तैयार हो गए।

यह याचिका, पत्रकार, कुर्बान अली और पटना हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट, अंजना प्रकाश की ओर से दायर की गयी है। उन्होंने 17 और 19 दिसंबर, 2021 के बीच अलग-अलग दो कार्यक्रमों में दिए गए घृणास्पद भाषणों से संबंधित मामले में तत्काल हस्तक्षेप की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है। एक हरिद्वार में यति नरसिंहानंद द्वारा आयोजित और दूसरा दिल्ली में ‘हिंदू युवा वाहिनी’ द्वारा आयोजित सम्मेलन था।

याचिका में प्रार्थना की गयी है कि,

  • एक एसआईटी द्वारा, इन सम्मेलनों में, मुस्लिम समुदाय के खिलाफ अभद्र और हिंसक भाषणो और अन्य घटनाओं की ‘स्वतंत्र, विश्वसनीय और निष्पक्ष जांच’ कराई जाए।
  • तहसीन पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) केस में दिए गए दिशा-निर्देशों का पालन करने के लिए और पुलिस अधिकारियों को निर्देश जारी करने के लिए भी प्रार्थना की गई है।
  • इस याचिका में, गृह मंत्रालय, पुलिस आयुक्त, दिल्ली और पुलिस महानिदेशक, उत्तराखंड को पक्षकार बनाया गया है।

घटना की पृष्ठभूमि इस प्रकार है। 17 और 19 दिसंबर, 2021 के बीच दिल्ली और हरिद्वार में आयोजित दो अलग-अलग कार्यक्रमों में, मुस्लिम समुदाय के सदस्यों के नरसंहार का आह्वान करने वाले लोगों के एक समूह द्वारा घृणास्पद भाषण दिए गए।  याचिकाकर्ताओं ने अपराधियों के जो नाम याचिका में दिये हैं, वे हैं, नरसिंहानंद गिरि, सागर सिंधु महाराज, धर्मदास महाराज, प्रेमानंद महाराज, साध्वी अन्नपूर्णा उर्फ ​​पूजा शकुन पांडेय, स्वामी आनंद स्वरूप, अश्विनी उपाध्याय, सुरेश चव्हाणके और स्वामी प्रबोधानंद गिरि।

उत्तराखंड पुलिस ने वसीम रिजवी, संत धर्मदास महाराज, साध्वी अन्नपूर्णा उर्फ ​​पूजा शकुन पांडेय, यति नरसिंहानंद और सागर सिंधु महाराज, इन 5 लोगों के खिलाफ आईपीसी की धारा 153ए और 295ए के तहत 23.12.0221 को प्राथमिकी दर्ज की थी। दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में सुदर्शन न्यूज के सीएमडी सुरेश चव्हाणके और अन्य द्वारा दिए गए अभद्र भाषा के संबंध में, 27.12.2021 को पुलिस आयुक्त, दिल्ली के पास शिकायत दर्ज की गई थी। 31.12.2021 के एक वीडियो पर, आयोजकों ने जनवरी, 2022 में अलीगढ़ और कुरुक्षेत्र में इसी तरह के कार्यक्रम आयोजित करने की अपनी भविष्य की योजनाओं की घोषणा की थी। उन्होंने नफरत भरे भाषणों के संबंधित वीडियो को ‘प्रचार वीडियो’ के रूप में भी प्रसारित किया।

याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि

  • पुलिस द्वारा कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है।
  • उत्तराखंड पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी में भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी, 121 ए और 153 बी के तहत दंडनीय अपराधों को आसानी से बाहर रखा गया है।
  • दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में जातीय सफाई के आह्वान के बावजूद दिल्ली पुलिस द्वारा आज तक कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है।

याचिकाकर्ताओं ने आगे आरोप लगाया है कि

  • पुलिस की निष्क्रियता केवल इस विश्वास को बढ़ावा देती है कि अधिकारियों ने अपराधियों के साथ हाथ मिलाया है।
  • इंटरनेट पर व्यापक रूप से उपलब्ध इस तरह की घृणित सामग्री के घातक परिणाम होंगे।
  • मुसलमानों की जातीय सफाई पर जोर देने वाले संबंधित भाषण नरसंहार के अपराध, अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन का उल्लंघन है, जिसमें भारत एक हस्ताक्षरकर्ता है।
  • कन्वेंशन के अनुसार, “कॉन्ट्रैक्टिंग पार्टियां इस बात की पुष्टि करती हैं कि नरसंहार, चाहे वह शांति के समय में या युद्ध के समय में किया गया हो, अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत एक अपराध है जिसे रोकने और दंडित करने के लिए वे कार्य करते हैं।”

याचिकाकर्ताओं ने इस बात पर जोर दिया है कि, तहसीन पूनावाला केस में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का भी राज्य के पदाधिकारियों द्वारा पालन नहीं किया जाता है। उस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि,

” हम जोर देकर कह सकते हैं कि यह स्वयंसिद्ध है कि, यह सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है कि, शांति बनाए रखने में कानून और व्यवस्था की मशीनरी कुशलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से काम करे ताकि, लोकतंत्र में हमारे सर्वोत्कृष्ट धर्मनिरपेक्ष लोकाचार और बहुलतावादी सामाजिक ताने-बाने को संरक्षित किया जा सके। अराजकता और अराजकता के समय में, राज्य को अपने नागरिकों के लिए संवैधानिक वादों की रक्षा और सुरक्षित करने के लिए सकारात्मक और जिम्मेदारी से कार्य करना होगा। भीड़तंत्र के भयानक कृत्यों द्वारा को देश के कानून को ध्वस्त करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।  नागरिकों को बार-बार होने वाली हिंसा के पैटर्न से बचाने के लिए गंभीर कार्रवाई और ठोस कदम उठाने होंगे, जिसे “नया सामान्य” बनने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।”

याचिकाकर्ताओं ने विशेष रूप से तहसीन पूनावाला केस में निर्धारित दिशा-निर्देशों को पुलिस अधिकारियों द्वारा पालन किया जाना है, का उल्लेख किया। वे इस प्रकार हैं।

  • भीड़ की हिंसा और लिंचिंग जैसे पूर्वाग्रह से प्रेरित अपराधों को रोकने के उपाय करने के लिए एक नामित नोडल अधिकारी की नियुक्ति, जो पुलिस अधीक्षक के पद से नीचे का न हो।
  • यदि स्थानीय पुलिस के संज्ञान में लिंचिंग या भीड़ की हिंसा की कोई घटना आती है, तो अधिकार क्षेत्र का पुलिस थाना तुरंत मुकदमा दर्ज करेगा और कानून के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत बिना किसी देरी के प्राथमिकी दर्ज कर अग्रिम कार्यवाही करेगा।
  • थाना प्रभारी, जिसके पुलिस थाने में ऐसी प्राथमिकी दर्ज है, का यह कर्तव्य होगा कि वह जिले के नोडल अधिकारी को तत्काल सूचित करें, जो यह सुनिश्चित करेगा कि पीड़ित के परिवार के सदस्यों का आगे कोई उत्पीड़न न हो।
  • ऐसे अपराधों में जांच की निगरानी नोडल अधिकारी द्वारा व्यक्तिगत रूप से की जाएगी, जो यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य होंगे कि जांच प्रभावी ढंग से की जाती है और ऐसे मामलों में आरोप पत्र प्राथमिकी दर्ज होने या गिरफ्तारी की तारीख से वैधानिक अवधि के भीतर दायर किया जायेगा है।
  • इस तरह के पूर्वाग्रह से प्रेरित हिंसा के पीड़ितों को मुआवजा देने की योजना होनी चाहिए।
  • जहां कहीं भी यह पाया जाता है कि कोई पुलिस अधिकारी या जिला प्रशासन का कोई अधिकारी भीड़ की हिंसा और लिंचिंग के किसी भी अपराध की रोकथाम और/या जांच और/या त्वरित सुनवाई की सुविधा के लिए उपरोक्त निर्देशों का पालन करने में विफल रहा है, तो उसे जानबूझकर लापरवाही और/या कदाचार का कार्य माना जाता है जिसके लिए उसके खिलाफ उचित कार्रवाई की जानी चाहिए जो सेवा नियमों के तहत विभागीय कार्रवाई तक ही सीमित नहीं होगी।
  • विभागीय कार्रवाई अपने तार्किक निष्कर्ष पर प्रथम दृष्टया के प्राधिकारी द्वारा अधिमानतः छह महीने के भीतर की जाएगी।
  • यह प्रस्तुत किया जाता है कि यह ‘दंडात्मक दिशानिर्देश

(1)’ पर्यवेक्षण  के कर्तव्य’ को स्पष्ट करता है।अरुमुगम सेर्वई बनाम तमिलनाडु राज्य [(2011) केस। इस मामले में न्यायालय ने, राज्यों को संबंधित अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का निर्देश दिया है यदि यह पाया जाता है कि

(i) ऐसे अधिकारी ने घटना की पूर्व जानकारी होने के बावजूद घटना को नहीं रोका, या

(ii) जहां घटना पहले ही हो चुकी है, वहां तुरंत दोषियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही नहीं की, अभियुक्तों को नहीं पकड़ा और जांच नही शुरू किया।

  • इसी प्रकार, पूजा पाल बनाम भारत संघ (2016) केस में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया है कि, अनुच्छेद 14 और 21 के तहत निष्पक्ष जांच करना, पुलिस का संवैधानिक कर्तव्य है। उल्लेखनीय है कि, उत्तराखंड पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी ‘अज्ञात व्यक्तियों’ के खिलाफ है, हालांकि, उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से उपलब्ध हैं। इस पर, पुलिस की इस निष्क्रियता को अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करने का आरोप, याचिका में लगाया गया है।
  • कर्ण सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2013) और मनु शर्मा बनाम राज्य (दिल्ली के एनसीटी) का उल्लेख करते हुए, याचिकाकर्ताओं ने यह तर्क दिया है कि, जांच अधिकारियों को इस शरारत में शामिल नहीं होना चाहिए। उन्हें निष्पक्ष होना चाहिए।
  • प्रवासी भलाई संगठन बनाम भारत संघ (2014) का हवाला देते हुए, याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि,

” सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के उल्लंघन के रूप में ‘अभद्र भाषा’ को एक कारण माना है।

  • याचिकाकर्ताओं ने यह तर्क देने के लिए विधि आयोग की रिपोर्ट का हवाला दिया है कि,

” अभद्र भाषा केवल आपत्तिजनक भाषण, बहुसंख्यक विरोधी भाषण या असहमतिपूर्ण भाषण नहीं है, यह एक चोट है जो भावनाओं को आहत करने से भी अधिक है, लेकिन शारीरिक चोट से कम है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिबंधित की जानी चाहिए।”

  • विधि आयोग की रिपोर्ट ने वास्तव में स्वीकार किया था कि, अभद्र भाषा अनिवार्य रूप से हाशिए के समूहों के खिलाफ एक अपराध है, –

“जहां भाषण गरिमा को ठेस पहुंचाता है, वह अपने लक्ष्य को ठेस पहुंचाने की तुलना में अधिक नुकसान करेगा। यह उस “अंतर्निहित आश्वासन” को कमजोर करेगा कि, लोकतंत्र के नागरिकों, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों या कमजोर समूहों को बहुमत के समान स्तर पर रखा जाता है।”

  • याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि, जैसा कि अमीश देवगन केस में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया है,  ” अभद्र भाषा एकता, बंधुत्व और मानवीय गरिमा का उल्लंघन करती है।”
  • इसके अलावा, उन्होंने प्रस्तुत किया है कि, “अभद्र भाषा मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 7 और नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा के 20 (2) में वर्णित सिद्धांतों का अपमान है।”
  • अनुच्छेद 20(2) विशेष रूप से अभद्र भाषा की निंदा करता है –  “राष्ट्रीय, नस्लीय या धार्मिक घृणा की कोई भी वकालत जो भेदभाव, शत्रुता या हिंसा को उकसाती है, कानून द्वारा निषिद्ध होगी।”

इस धर्म संसद के बाद, बरेली में भी मुस्लिम समाज का एक सम्मेलन हुआ, जिसे तौकीर रजा ने, आयोजित किया था। इस सम्मेलन में हरिद्वार धर्म संसद की प्रतिक्रिया स्वरूप ही मरने मारने की बात की गयी। समाज को बांटने का यह एक सोचा समझा एजेंडा है। धर्मांधता या धार्मिक कट्टरता किसी भी धर्म या समाज की हो, उससे न तो नज़रअंदाज़ किया जाना चाहिए और न ही नरमी से उससे निपटा जाना चाहिए। यह उन्माद है। धर्म का उन्माद। निरा पागलपन। इस उन्माद को निर्मूल करना, देश और समाज की एकता, अखंडता और समरसता के लिये अनिवार्य है, अन्यथा हम एक पागलपन भरे, उन्मादी और कट्टर, प्रतिगामी समाज मे तब्दील हो जाएंगे।

 

विजय शंकर सिंह भारतीय पुलिस सेवा के अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं।