‘अखबारों में मेरी बेटी इंदिरा की फ़ीरोज गाँधी के साथ सगाई के बारे में खबर प्रकाशित हुई है। लोग मुझसे भी इस बारे में पूछ रहे हैं।इसलिए मैं इस खबर की पुष्टि करता हूं… मेरी लंबे समय से यही मान्यता है कि शादी के मामलों में माता–पिता को लड़के–लड़की को सलाह देनी चाहिए, लेकिन अंतिम फैसला लड़का और लड़की को ही करना है…जब मुझे इस बात की तसल्ली हो गई कि इंदिरा और फ़ीरोज एक दूसरे से शादी करना चाहते हैं तो मैंने खुशी से उनके फैसले को स्वीकार कर लिया और उन्हें अपना आशीर्वाद दिया… महात्मा गांधी ने भी इस प्रस्ताव को शुभकामनाएं दी हैं… फ़ीरोज नौजवान पारसी हैं। वह कई वर्षों से हमारे परिवार के मित्र और साथी रहे हैं, बल्कि मैं तो उन्हें देश के काम और आज़ादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भागीदार के तौर पर देखता हूँ। मेरी बेटी ने जिस किसी से भी प्रेम किया होता, मैं उसकी पसंद को कबूल कर लेता। अगर मैं ऐसा नहीं करता तो मैं उन सिद्धांतों से नीचे गिर जाता, जिन्हें मैंने हमेशा मान्यता दी है।’
(28 फरवरी 1942 के मुंबई क्रॉनिकल में इंदिरा–फ़ीरोज की शादी को लेकर प्रकाशित पं.नेहरू का वक्तव्य।)
इंदिरा और फ़ीरोज़ गाँधी की शादी 26 मार्च 1942 को हुई थी। भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो रहा था लेकिन इस अंतर्धार्मिक विवाह को लेकर तरहतरह की बातें हो रही थीं, जिसे देखते हुए प.नेहरू ने यह वक्तव्य जारी किया था। इससे स्पष्ट है कि स्वतंत्रता संग्राम की अगुवा पाँत किस तरह का भारत चाहती थी। संविधान में स्पेशल मैरिज एक्ट का प्रावधान करके उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि जीवन साथी के चयन का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। इसमें राज्य या समाज का हस्तक्षेप करना अनुचित है। बालिग़ लोग अगर सरकार चुनने की क्षमता रखते हैं तो कोई वजह नहीं कि उन्हें जीवनसाथी के चुनाव को लेकर जाति या धर्म की पाबंदियों से जकड़ा जाये। वैसे भी शादी दो व्यक्तियों के बीच होती है, न कि धर्मों के बीच। स्पेशल मैरिज एक्ट विवाह में धर्म की कोई अहमियत नहीं होती। बिना धर्म बदले किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी हो सकती है।
लेकिन आज़ादी के अमृतकाल में आधुनिक भारत का यह आधारभूत सिद्धांत ख़तरे में नज़र आ रहा है23 जून को मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत अपने मित्र ज़हीर इक़बाल के साथ शादी के बंधनों में बँध गयीं, लेकिन बीते कई महीने से सोशल मीडिया पर इस रिश्ते को लेकर जैसी नफ़रत फैलाई गयी, वह परेशान करने वाला है। सोनाक्षी के पिता, फ़िल्म अभिनेता और मौजूदा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के अलावा माँ और भाइयों की नाराज़गी की फ़र्ज़ी ख़बरों की बाढ़ आ गयी थी।
ऐसा लग रहा था कि सोनाक्षी कोई बड़ा अपराध करने जा रही है। यह अलग बात हैकि बेगानी शादी में दीवाने बन रहे इन लोगों की न सोनाक्षी ने परवाह की और न शत्रुग्न सिन्हा ने। उनका घर रामायाण शादी की ख़ुशी और रोशनी में डूबा रहा।
सोनाक्षी ही नहीं, सोशल मीडिया पर सक्रिय नफ़रती भीड़ के लिए किसी मुस्लिम से शादी करने वाली हर हिंदू लड़की का भविष्य अंधकारमय है। वह ‘लव जिहाद’ का शिकार है।उसे बहला–फुसला लिया जाता है। गोया हिंदू लड़कियों में सोचने–समझने की शक्ति नहीं होती। उन्हें फ़ैसला लेने की तमीज़ और हक़ नहीं है। ग़ौर से देखने पर इसमें मनुस्मृति का वही भाव गूँजता नज़र आता है कि ‘स्त्री को बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र के अधीन रहना चाहिए।’
‘लव जिहाद‘ सामाजिक इतिहास का सबसे हास्यास्पद ‘शब्द–पद’ है। यह तय है कि इसकी गढ़ंत करने वालों ने न प्रेम किया है और न उन्हें प्रेम मिला है।वे ‘लव‘ के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे नहीं जानते कि प्रेम किसी षड्यंत्र से संभव नहीं है। प्रेम पाने के लिए किसी की नज़र में इसके योग्य बनना पड़ता है। प्रेम के लिए एक दूसरे को जानना पहली शर्त है। ऐसे में ‘आतंकी इरादों से हिंदू लड़कियों को फुसलाने का व्यापक अभियान’ किसी प्रोपेगैंडा फ़िल्म का विषय तो हो सकता है, हक़ीक़त में ऐसा मुमकिन नहीं है।
रही बात ‘धोखे’ की तो वह किसी भी रिश्ते में संभव है। अपराधी प्रवृत्ति के लोग कहीं भी, किसी का भी शिकार कर सकते हैं। इसका किसी धर्म विशेष से क्या लेना–देना। कुछ अंतर्धार्मिक विवाहों की असफलता या उसका किसी दुखद अंजाम तक पहुँच जाना ‘लव जिहाद’ का प्रमाण नहीं है। अपनी जाति और धर्म के अंदर बने वैवाहिक रिश्तों के भयानक अंजाम की कहानियाँ भी हमारे चारों ओर बिखरी पड़ी हैं। दिसंबर 2022 में राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में सरकार ने बताया था कि 2017 से 2021 के बीच देश में 35,493 युवतियों को दहेज के कारण मार डाला गया। सबसे ज़्यादा उत्तर प्रदेश में हर दिन छह युवतियों की जान गयी जबकि देश के स्तर पर यह आँकड़ा 20 हत्या प्रतिदिन था। ये वही लड़कियाँ थीं जिनकी शादी घरवालों ने बहुत जाँच–परख कर, कुंडली मिलाकर, सारे रस्मो–रिवाज निभाते हुए की थी।इनमें ज़्यादातर मामले बहुसंख्यक समाज के हैं। क्या दहेज के लिए लड़की को ज़िंदा जलाना हिंदू धर्म सिखाता है? ज़ाहिर है, ऐसा सोचना भी हास्यास्पद है।
दरअसल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिए सत्ता पाने का फ़ार्मूला आज़माने वालों ने समाज में बड़े पैमाने पर ‘लव जिहाद’ की पुड़िया बाँटी है।लड़कियों को नियंत्रित करने को ‘मर्दानगी‘ समझने वाले समाज में इसकी स्वीकृति मिलना आसान भी है। इसका असल मक़सद हिंदू और मुस्लिम समुदाय में जितना संभव हो, उतनी दूरी पैदा करना है। वे इन समुदायों की निकटता के ख़तरे को जानते हैं। गंगा–जमुनी तहज़ीब जैसी बातें उन्हें ज़हर लगती हैं। यही वजह है कि यूपी और उत्तराखंड सहित कई बीजेपी शासित राज्यों में ऐसे क़ानून बनाये गये हैं जिससे अंतर्धार्मिक विवाह निजी मसला न होकर ‘देशद्रोह’ जैसा नज़र आने लगे।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी.लोकुर ने पिछले दिनों एक सेमिनार में ‘लव जिहाद’ को रोकने के लिए तमाम राज्यों में बनाये जा रहे क़ानूनों को असंवैधानिक बताया था।उन्होंने कहा था कि ऐसे क़ानूनों को ज़रिये ‘सुप्रीम कोर्ट की ओर से बहुत ही सावधानी से निर्मित गरिमा के न्यायशास्त्र का हाथरस जैसा अंतिम संस्कार किया जा रहा है।’ जस्टिस लोकुर के मुताबिक़ “संविधान नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है। ‘लव जिहाद’ का हौवा लोगों में भय पैदा कर रहा है। यह अंतर–धार्मिक संबंधों को परिवार, समाज और राज्य मशीनरी की गहन जांच के दायरे में लाता है, जो भारतीय लोकतंत्र को दिशा देने वाली विविधता की धारणा के विपरीत है।”
दिलचस्प ये है कि लव जिहाद के हो हल्ले के बीच ‘लव जिहादिनों’ की चर्चा ग़ायब कर दी जाती जिन्होंने हर बाधा को परे हटाकर अपने हिंदू प्रेमियों के साथ घर बसाया।फ़िल्मी दुनिया में तो ‘एक ढूँढो हज़ार मिलते हैं’ वाला मामला है। सुनील दत्त–नर्गिस, किशोर कुमार–मधुबाला (मुमताज़ बेग़म), वहीदा रहमान–कमलजीत के क़िस्से पुराने लग रहे हों तो संजय दत्त और मनोज वाजपेयी को देख लीजिए जिन्होंने मुस्लिम लड़की से शादी की। सुपरस्टार का दर्जा हासिल कर चुके ऋतिक रोशन ने भी सुज़ैन से शादी की थी जो मुस्लिम हैं। कुछ दिन पहले ही आमिर ख़ान की बेटी आइरा ख़ान ने एक हिंदू से शादी की।
ज़ाहिर है, मुस्लिम लड़कियों से शादी करने वाले ‘रिवर्स लव जिहादी’ नहीं हैं। इन्होंने उससे शादी की जिससे दिल मिला।उनका आत्मनिर्भर होना उन्हें ऐसा फ़ैसला लेने में मदद करता है और भारत का संविधान उन्हें इसका हक़ देता है। संविधान को बदलने की चाह रखने वाले सिर्फ़ आरक्षण को समाप्त नहीं करना चाहते, युवाओं से जीवनसाथी के चयन का अधिकार भी छीन लेना चाहते हैं। उन्हें ऐसी आज़ादी देने वाले संविधान से नफ़रत है। इसीलिए उन्हें पं.नेहरू से भी नफ़रत है जो कहते थे, “मेरी बेटी ने जिस किसी से भी प्रेम किया होता, मैं उसकी पसंद को कबूल कर लेता।”
पुनश्च: इंदिरा और फ़ीरोज़ गाँधी की शादी के लिए महात्मा गांधी ने एक ऐसी संहिता तैयार की थी जिसमें हिंदू और पारसी धर्म के धार्मिक मंत्रों को शामिल किया गया था।पं.नेहरू का सपना था कि आज़ाद भारत में ऐसा क़ानून हो जिसके तहत युवा अपनी पसंद की शादी करना चाहें तो धर्म या जाति कोई बाधा न बने। 1954 में लागू हुए स्पेशल मैरिज एक्ट ने इसी सपने को पंख दिये थे जिसे घृणा की सरकारी तलवार से काटने की कोशिश हो रही है।
लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं। यह लेख पहले सत्य हिंदी में छप चुका है।