जनता कर्फ्यू के दौर में 150 साल के हो रहे पेरिस कम्यून की एक याद

ईश मिश्र
ओप-एड Published On :


बीते हफ्ते 18 मार्च को पेरिस कम्यून की बरसी थी। इसी दिन 1871 में पेरिस के मजदूरों की सशस्त्र क्रांति के बाद सर्वहारा के जनतांत्रिक स्वशासन, पेरिस कम्यून की स्थापना से दुनिया भर की पूंजीवादी ताकतें सकते में आ गयी तथा सनातनी राष्ट्रीय बैर भूल कम्यून के बर्बर दमन में एक हो गयीं। इस तारीखी घटना ने 18 मार्च को अपने 150वें साल में प्रवेश कर लिया है, लेकिन कोरोना वायरस के भय से ग्रस्त इस दुनिया में इसे भुला दिया गया। 

कम्यून का मकसद विश्व गणतंत्र बनाना था। इतिहास की पहली सफल सर्वहारा क्रांति के बाद, पूंजीवादी राज्य मशीनरी को ध्वस्त कर स्थापित सर्वहारा राज्य की पहली मिसाल, पेरिस कम्यून पर क्रांति के भागीदारों और समकालीनों से लेकर आज तक बहुत लिखा जा चुका है। मार्क्स ने इंटरनेशनल की जनरल कौंसिल की तरफ से जारी फ्रांस में गृहयुद्ध (सिविल वार इन फ्रांस) में इसकी सटीक और विस्तृत, वैज्ञानिक व्याख्या और समीक्षा है। फिर भी कम्यून की संक्षिप्त चर्चा के बिना, बात अधूरी रह जाएगी।

कुछ इतिहासकारों ने इसे रूसो के सामूहिक इच्छा (जनरल विल) के सिद्धांत के औद्योगिक युग में रूपांतरण बताया तो कुछ ने वास्तविक सहभागी जनतंत्र की मिसाल। बकूनिन और अनके अराजक अनुयायियों ने इसे राज्यविहीन अराजक समाज के अभियान के कदम के रूप में देखा और एंगेल्स ने सर्वहारा की तानाशाही की जीवंत मिसाल के। कम्यून के ज्यादातर नेता इंटरनेशनल के सदस्य थे, जिनमें ब्लांकी और प्रूदों के अनुयायियों की संख्या काफी थी। जो भी हो, पेरिस कम्यून मजदूरों की पीढ़ियों के लिए मजदूर क्रांति का संदर्भ-बिंदु और प्रेरणास्रोत बना हुआ है।

क्रांति पर मार्क्स के विचारों को समझने के दो प्रमुख स्रोत हैं– कम्युनिस्ट घोषणापत्र और फ्रांस में गृहयुद्ध। घोषणापत्र 1848 की क्रांति के पहले लिखा गया था और भविष्य के अनुमानित वर्गसंघर्ष की रूपरेखा पेश करता है। घोषणापत्र के आक्रामक तेवर की जगह फ्रांस में गृहयुद्ध में दो क्रांतियों के अनुभव की परिपक्ता है। यह तब लिखा गया जब वर्ग-संघर्ष का विकास इस स्तर हो चुका था कि इसने कम्यून की एक नई अवधारणा को जन्म दिया। न तो किसी यूटोपियन समाजवादी ने, न ही भौतिकवादी मार्क्स और एंगेल्स ने ही इसकी कल्पना की थी।

मार्क्स और एंगेल्स 1872 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र के नए संस्करण की भूमिका में इस बात का संज्ञान लेते हुए स्वीकार करते हैं, “1848 के बाद पूंजीवाद के विकास की विराटता और परिणामस्वरूप मजदूर वर्ग के बेहतर और विस्तारित संगठनों के परिदृश्य तथा फरवरी क्रांति और खासकर पेरिस कम्यून के अनुभवों को देखते हुए जिसमें सर्वहारा पूरे दो महीने सत्ता पर अधिकार बरकरार रहा; कुछ मायनों में यह (घोषणापत्र का) पुरातन पड़ गया है। कम्यून ने एक बात खास तौर पर साबित किया कि मजदूर वर्ग पहले से मौजूद राज्यतंत्र पर कब्जा करके उसका उपयोग अपने उद्देश्य नहीं कर सकता”।

राज्यतंत्र को विघटित करना ही पड़ेगा। इस बात को 1971 मे जनरल कौंसिल के अपने दो संबोधनों तथा फ्रांस में गृहयुद्ध में मार्क्स ने और भी स्पष्ट किया है। इसीलिए मार्क्सवाद कोई स्थिर विचारधारा नहीं, दुनिया को समझने-बदलने का गतिमान विज्ञान है। 20 साल बाद 1891 में फ्रांस में गृह युद्ध के नए संस्करण की भूमिका में एंगेल्स लिखते हैं, “हाल के दिनों में कई टुटपुंजिया सामाजिक जनतंत्रवादी, सर्वहारा की तानाशाही जैसे शब्दों का हौव्वा खड़ा करने में लगे हैं। ठीक है आप जानना चाहते हैं कि सर्वहारा की तानाशाही कैसी होती है? पेरिस कम्यून देखिए, वह सर्वहारा की तानाशाही थी”।

कम्यून के इतिहास, मार्क्स और एंगेल्स तथा अराजकतावादी एवं उदारवादी बुद्धिजीवियों की इसकी व्याख्याओं की व्यापक समीक्षा की यहां गुंजाइश नहीं है, लेकिन कम्यून के उदय की पृष्ठभूमि; मजदूरों की सशस्त्र क्रांति; मार्क्स के कम्यून नेताओं के नाम संदेश; कम्यून की गलतियों और अमानवीय बर्बरता से दमन पर एक सरसरी निगाह डालना लाजमी है।

सोवियत संघ के प्रोग्रेस प्रकाशन से प्रकाशित पेरिस कम्यून (1971) में संकलित 1870 में फ्रांस-जर्मनी (फ्रैंको-प्रशियन) युद्ध पर इंटरनेशनल में मार्क्स के संबोधन; जनरल कौंसिल द्वारा जारी फ्रांस में गृहयुद्ध; और इसकी तैयारी के प्रारूपों; मार्क्स एंगेल्स के तत्कालीन लेखों, पत्रों, पूंजीवादी प्रेस तथा संगठनों के दुष्प्रचार के जवाब, कम्यून के उदय-पतन की प्रामाणिक कहानी बयान करते हैं और क्रांतिकारियों की गलतियों की समीक्षा। मार्क्स युद्ध पर अपने पहले संबोधन की शुरुआत इंटरनेशनल में अपने उद्घाटन संबोधन के उद्धरण से करते हैं कि किस तरह शासक वर्ग राजनैतिक सत्ता पर आए संकट से निपटने के लिए युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद का माहौल बनाकर रक्तपात में समाज की संपदा नष्ट करते हैं। यह आज भी उतनी सही है, जितनी तब थी।

“इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि विभिन्न वर्गों के संघर्षों का फायदा उठाकर सत्त्ता हड़पने और समय-समय पर विदेशी युद्धों द्वारा उसे बरकरार रखने वाला नेपोलियन बोनापार्ट शुरू से ही इंटरनेशनल को अपना सबसे खतरनाक दुश्मन मानता है। जनमत संग्रह की पूर्वसंध्या पर उसने फ्रांस में अंतर्राष्ट्रीय कामगार संघ (इंटरनेशनल) को उसकी हत्या की साजिश रचने वाला गुप्त संगठन बताकर, देश भर में इसके पदाधिकारियों की धर-पकड़ का आदेश जारी कर दिया।

“दरअसल वे फ्रांसीसी जनता से खुलेआम जोर-शोर से मतदान के बहिष्कार की जोर-शोर से अपील कर रहे थे क्योंकि मतदान का मतलब है देश में तानाशाही और दूसरे देशों से युद्ध का समर्थन है”।

बोनापार्ट के कुशासन और उसके सैनिकों के अनाचार तथा बैंकरों, कारखानेदारों और व्यापारियों की लूट से जनअसंतोष चरम पर था। इंटरनेशनल के कार्यक्रम और प्रचार मजदूर असंतोष को दिशा दे रहे थे। बोनापार्ट युद्ध का माहौल बना रहा था और इंटरनेशनल के नेता और कार्यकर्ता युद्धोन्माद के विरुद्ध जनमत तैयार कर रहे थे। फ्रांस की गरिमा के तथा ‘शत्रु’ जर्मनी से अपनी जमीन वापस लेने के नाम पर जब 15 जुलाई 1870 को बोनापार्ट ने युद्ध की घोषणा की तो इसकी चारों तरफ निंदा हुई। इंटरनेशनल की फ्रांसीसी इकाई ने “सभी देशों के कामगारों” के नाम 12 जुलाई को घोषणापत्र जारी किया।

“राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए, राष्टीय सम्मान के यूरोपीय संतुलन के नाम पर एक बार फिर दुनिया के अमन-चैन पर खतरे घने बादल मंडराने लगे हैं। फ्रांस, जर्मनी, स्पेन के कामगर साथियों! आइए हम एकजुट होकर युद्ध के विरुद्ध आवाज बुलंद करें। …….. यह युद्ध वर्चस्व या सल्तनत का युद्ध है। कामगारों की टृष्टि से यह एक आपराधिक बेहूदगी है। ….।”

कई शहरों में मजदूरों ने शांति मार्च आयोजित किया। इंटरनेशनल की जर्मन इकाई के कार्यकर्ताओं ने भी युद्ध का विरोध किया। नतीजतन जब दोनों ही देशों की सेनाएं आमने-सामने थीं तब वहां के मजदूर एक दूसरे को शांति-संदेश भेज रहे थे। युद्ध और युद्ध विरोधी अभियानों की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। इसका बोनापर्ट की पराजय से शर्मनाक अंत हुआ। 2 सितंबर 1870 को देश की पूर्वी सीमा, सेडान में बोनापार्ट की सेना की पराजय के बाद बिस्मार्क की सेना ने ‘सम्राट’ को उनके 100,000 सैनिकों के साथ बंदी बना लिया। पेरिस की सड़कों पर नारे लगाते, नाचते-गाते कामगारों का जनसैलाब उमड़ पड़ा। यह जनसैलाब राजशाही के अंत और गणतंत्र की स्थापना की मांग कर रहा था।

तथाकथित गणतंत्रवादी विपक्ष कामगारों के इस आंदोलन से सकते में आ गया लेकिन जनमत के दबाव में उसे मजबूरन गणतंत्र और अंतरिम राष्ट्रीय सुरक्षा की की सरकार की घोषणा करनी ही पड़ी। इस सरकार के प्रमुख पदों पर पूंजीवाद समर्थक गणतंत्रवादी थे। मार्क्स फ्रांस का गृहयुद्ध में लिखते हैंः

“जब पेरिस के मजदूरों ने गणतंत्र की घोषणा की तो तुरंत ही पूरे फ्रांस में ऐसी निर्विरोध घोषणाएं हुईं। मौके की ताक में बैठे कुछ बैरिस्टर होटल द विल्ले (संसद) पर काबिज हो गए, थियर उनका नेता था और थ्रोचू जनरल। ………….. हड़पी हुई अपनी सत्ता की वैधता के लिए पेरिस के प्रतिनिधित्व का अप्रासंगिक हो चुका जनादेश ही काफी समझा”।

मार्क्स ने उपरोक्त लेख में सरकार के मंत्रियों के वक्तव्यों के हवाले से बताया है कि सरकार तो समझौता करना चाहती थी लेकिन लोगों और नेशनल गार्ड की देशभक्ति के बुलंद जज्बे को देखते हुए, हिम्मत न कर सकी उल्टे शगूफा छोड़ दिया, “न तो एक इंच जमीन छोड़ेंगे, न ही जर्मनों को किले की एक ईंट ले जाने देंगे”, और जर्मन सेना ने पेरिस पर घेरा डाल दिया।

“आश्चर्यजनक हलचलों के बीच, जबकि मजदूरों के असली नेता अब भी बोनापार्ट की जेलों में थे, जर्मन सेना पहले ही पेरिस की तरफ कूच कर चुकी थी, पेरिस ने इस शर्त के साथ बागडोर संभाली कि उसका उद्देश्य महज राष्ट्रीय सुरक्षा था। लेकिन पेरिस की सुरक्षा मजदूर वर्ग को हथियारबंद कर प्रभावशाली बल में संगठित किए बगैर नहीं हो सकती, युद्ध अपने आप उन्हें प्रशिक्षण दे देगा। लेकिन हथियारबंद पेरिस का मतलब था क्रांति को हथियारबंद करना”।

पूंजीवाद के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली इस सरकार को जर्मनों से ज्यादा खतरा हथियारबंद मजदूरों से था। उनसे निपटने की तैयारी का उसे समय चाहिए था। उसे लगता था कि लंबी घेराबंदी के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव से मजदूरों का क्रांतिकारी जज्बा ठंडा पड़ जाएगा। सरकार एक तरफ राष्ट्रोन्मादी लफ्फाजी कर रही थी दूसरी तरफ बिस्मार्क से गुप्त वार्ता। लेकिन नेशनल गार्ड के रूप में संगठित पेरिस के 200,000 हथियारबंद मजदूरों की जनसेना ने पेरिस की सुरक्षा का दायित्व अपने हाथों में ले लिया। नगर की सुरक्षा सुनिश्चित कर, हथियार डालने से इंकार कर, अपने ही शासकों पर तान दिया और धरती पर पहले सर्वहारा राज्य को जन्म दिया। तब से कहीं भी किसी भी शासकवर्ग ने मजदूर वर्ग को हथियारबंद करने की गलती नहीं की।

युद्ध अकसर, खासकर, पराजय की स्थिति में, क्रांतिकारी परिस्थितियां पैदा करता है। युद्ध से लोगों की रोजमर्रा की दिनचर्या तहस-नहस हो जाती है। सरकार के कर्त्ता-धर्ताओं; परजीवी राज्य मशीनरी; सेना; मीडिया तथा सत्ता के अन्य स्तंभों के क्रियाकलापों के परीक्षण में लोगों की निगाहों का पैनापन कई गुना बढ़ जाता है। संसद में बहुमत पूंजीवादी गणतंत्रवादियों और बोनापार्टवादियों यानि दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों का था। लोगों ने कुछ दिन राष्ट्रीय एकता के नाम पर सरकार का समर्थन किया लेकिन धीरे-धीरे असंतोष फिर फैलने लगा। मजदूर वर्ग जब क्रांति की तैयारी कर रहा था तब यह गिरोह प्रतिक्रांति की।

प्रतिक्रियावादियों की यह सरकार अपनी जनविरोधी नीतियों से पेरिसवासियों, खासकर मजदूरों और नेशनल गार्ड के सदस्यों को लगातार उकसाती रही। कुछ नेशनल गार्डों का भत्ता रोक दिया गया और उन्हें “काम में क्षमता” प्रमाणित करने को कह गया। शहर के घेरे से बहुत लोग बेरोजगार हो गए थे। भुखमरी तो नहीं भुखमरी जैसे हालात पैदा हो गए थे। सभी को बकाया किराया और कर्ज 48 घंटे में जमा करने का फरमान जारी हो गया, जिससे छोटे-मोटे व्यापारियों पर दिवालियापन का खतरा मड़राने लगा। फ्रांस की राजधानी पेरिस से वर्साय स्थांतरित कर दी गयी। इन और इन सी अन्य जनविरोधी नीतियों ने गरीबों को दरिद्र बना दिया लेकिन इन्हीं के प्रतिक्रियास्वरूप मध्यवर्ग की सामाजिक चेतना का जनवादीकरण हुआ। थियर की प्रतिक्रियावादी सरकार को उखाड़ फेंकना ही पेरिस की मुक्ति का रास्ता था।

जुझारू प्रदर्शन शुरू हो गए और मजदूर वर्ग ने विद्रोह का ऐलान कर दिया — थियर जैसे तथाकथित गणतंत्रवादी और राजशाही समर्थक गद्दारों के खिलाफ आर-पार की लड़ाई। प्रसियन सरकार के समक्ष समर्पण और राजशाही के पुनरुद्धार के खतरों ने आग में घी का काम किया। नेशनल गार्ड क्रांति के अग्रदूत बन गए। 215 बटालियनों के प्रतिनिधियों ने ‘नेशनल गार्डों के महासंघ की केंद्रीय कमेटी’ का चुनाव हुआ। केंद्रीय कमेटी की सत्ता तुरंत सर्वमान्य हो गयी और थियर सरकार द्वारा नियुक्त कमांडर को इस्तीफा देना पड़ा। जर्मन सेना शहर के एक कोने में दो दिन डेरा डालकर वापस चली गयी। थियर सरकार की फौरी चिंता पेरिस के हथियारबंद मजदूर थे। मजदूरों के अधिकार में तोपों का होना पूंजीवाद के लिए “कानून-व्यवस्था” की समस्या थी। दुनिया के सभी प्रतिक्रियावदियों की आंख की किरकिरी बन गया हथियारबंद पेरिस। थियर ने नियमित सेना के 20 हजार सैनिक भेजा तोपों पर कब्जा करने जो उन्होंने आसानी से कर लिया लेकिन उनके पास उन्हें ले जाने का इंतजाम नहीं था।

धीरेन-धीरे वे मजदूरों की भीड़ से घिरते गये। नेशनल गार्ड्स भी पहुंच गए। भीड़, सैनिक, नेशनल गार्ड सब गड्ड-मड्ड हो रहे थे। सेना के कमांडर ने भीड़ पर गोली चलाने का हुक्म दिया लेकिन सैनिकों ने गोली चलाने से इंकार कर दिया। कई सैनिक नेशनल गार्ड्स को गले लगा रहे थे। क्या अद्भुत दृश्य रहा होगा। कमांडर लॉकमते और नेसनल गार्ड के पूर्व कमांडर क्लेमांत थॉमस को गिरफ्तार कर लिया गया जिन्हें क्रुद्ध सैनिकों ने मार दिया। थॉमस ने 1848 की क्रांति में मजदूरों पर गोली चलवाई थी।

इस परिघटना में केंद्रीय कमेटी की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन परिस्थिति ने उसे सरकार की स्थिति में बैठा दिया। थियर और उसके मंत्रियों की हालत खराब हो गयी। सैनिक हुक्म मानने की बजाय सोचने लगे कि विद्रोह कर दें। यह बात उन्होंने सपने भी नहीं सोची थी। भयभीत हो आनन-फानन में पेरिस से वरसाय भाग गया और सेना तथा प्रशासनिक कर्मियों को शहर खाली कर देने का हुक्म दे दिया। थियर का पीछा कर उसकी बची-खुची सेना को भी नष्ट करने के प्रस्ताव को केंद्रीय कमेटी ने नहीं माना। बाद में देखने पर लगता है कि यह एक ऐतिहासिक गलती थी।

दरअसल केंद्रीय कमेटी ज्यादातर सदस्यों में सैद्धांतिक परिपक्वता का अभाव था और वे अपनी ऐतिहासिक भूमिका लिए तैयार नहीं थे। पेरिस में अब नेशनल गार्ड सरकार की स्थिति में था तथा केंद्रीय कमेटी ने सारे सामरिक स्थानों पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया। मजदूरों के निहत्था करने की सरकार की नाकाम कोशिश के बाद पेरिस के मजदूरों और वारसाय में छिपी सरकार के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया।

“18 मार्च की भोर कम्यून जिंदाबाद के नारों की गर्जना से हुई”।

केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी घोषणापत्र में कहा गया, “शासक वर्गों की नाकामियों और गद्दारियों को देखते हुए, पेरिस का सर्वहारा समझ गया है कि वक्त आ गया है कि सार्वजनिक मसलों को संचालन वह अपने हाथ में ले ले। ……….. वह समझ गया है कि यह उसका परम कर्तव्य और असंदिग्ध अधिकार है कि वह सरकारी सत्ता पर काबिज हो अपनी भाग्य का विधाता वह स्वयं बने”।

केंद्रीय कमेटी, क्रांति के जज्बे के प्रसार के बजाय अपने लिए पहला काम तय किया कम्यून का चुनाव कराना। क्रांति की निरंतरता की बजाय कीमती समय चुनाव के प्रबंधों में लगा दिया और थियर बिस्मार्क से मिलकर प्रतिक्रांति की तैयारी करता रहा और सैन्यशक्ति और मनोबल बढ़ाता रहा। केंद्रीय कमेटी को लगा कि उनके पास शासन का वैध जनमत नहीं था। नब्बे सदस्यीय, निर्वाचित कम्यून में अधिकतर क्रांतिकारी आंदोलनों से जुड़े लोग थे और ब्लांकी के अनुयायियों और मार्क्सवादियों को मिलाकर लगभग एक-चौथाई इंटरनेशनल के सदस्य। जोशो-खरोश से ओत-प्रोत, कार्रवाई को सदा उद्यत ब्लांकी के अनुयायियों के पास स्पष्ट सैद्धांतिक समझ का अभाव था, कम्यून के पतन के बाद, बचे-खुचे ब्लांकीवादी मार्क्सवाद की तरफ उद्यत हो गये थे।

ब्लांकी स्वयं एक प्रांतीय जेल में थे। वरसाय में थियर सरकार से वार्त्ता में कम्यून ने तमाम अपनी कैद से तमाम पादरियों की रिहाई के बदले सिर्फ ब्लांकी माना था लेकिन पूंजी का दलाल थियर तो वार्त्ता में विषयांतर के लिए उलझा रहा था जिससे कम्यून के खिलाफ सारे प्रतिक्रियावादियों को लामबंद कर सके। निर्वाचित चंद दक्षिणपंथियों किसी-न-किसी बहाने इस्तीफा दे दिया और कुछ को गिरफ्तार कर लिया गया जब पता चला कि वे पुलिस के मुखबिर या जासूस थे। मार्क्स ने एटींथ ब्रुमेयर में लिखा था कि पूर्ववर्ती क्रांतियों ने राज्य-मशीनरी को नष्ट करने की बजाय उन्हें मजबूत किया और फ्रांस में गृहयुद्ध में लिखते हैं, “मजदूर वर्ग पहले से ही मौजूद राज्य मशीनरी पर मात्र कब्जा करके उसे अपने वर्गीय हितों के लिये प्रयोग नहीं कर सकता। चूँकि उसकी राजनैतिक गुलामी का हथियार कभी उसकी मुक्ति का यंत्र नहीं बन सकता”।

सत्ता संभालते ही कम्यून ने राज्य मशीनरी के सारे विशेषाधिकार खत्म कर दिए; किराया और कर्ज की अदायगी पर अप्रैल तक के लिए रोक लगा दी; बंद कारखाने कामगरों के नियंत्रण में शुरू किए गये; रात्रिकालीन काम को न्यूनतम करने तथा गरीब और बीमार के भरण-पोषण सुनिश्चित करने के प्रावधान बनाए। कम्यून ने घोषित किया कि उसका उद्देश्य समाजवादी आदर्श का प्रसार और “पूंजीपतियों के फायदे के लिए मजदूरों का आपसी अराजक प्रतिस्पर्धा का अंत करना है”।

नेशनल गार्ड में भर्ती शारीरिक रूप से सक्षम हर व्यक्ति के लिए खुली थी और जैसा ऊपर बताया गया है, उसकी संरचना पारदर्शी तौर पर जनतांत्रिक थी। खुद को लोगों से अलग-थलग और ऊपर समझने वाली सेना तथा पुलिस को अवैधानिक करार कर, भंग कर दिया गया। चर्च को राज्य से अलग कर धर्म को निजी मामला घोषित किया गया और चर्चों की बेशुमार संपत्ति जब्त कर ली गयी। प्रशासनिक अधिकारी, आम मजदूर के समान वेतन पर काम करने वाले कम्यून द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि थे, जिन्हें वापस बुलाया जा सकता था। बेघरों के लिए सार्वजनिक भवनों और भगोड़ों के घर अधिगृहित किए गए। शिक्षा, प्रेक्षागृह और ज्ञान तथा संस्कृति के सारे केंद्र सार्वजनिक रूप से सभी को सुलभ करा दिए गये। विदेशी कामगरों को तुरंत ‘अंतरराष्ट्रीय मजदूरों के सार्वभौमिक गणतंत्र’ के सदस्य के रूप में मान्यता दी गयी।

गौरतलब है कि कम्यून के निर्वाचित सदस्यों में भी कई प्रवासी थे। सामाजिक जीवन के तमाम पहलुओं को ‘साझे हित’ में व्यवस्थित करने के लिए दिन-रात हजारों लोगों की सभाएं लिए होने लगीं। कम्यून और नेशनल गार्ड की छत्रछाया में विकसित हो रही व्यवस्था का चरित्र निस्संदेह समाजवादी था। कम्यून की भयानकतम गलतियों में वार्साय की जवाबी हमलों को नजर अंदाज करना और केंद्रीय बैंक पर कब्जा करने की मार्क्स की सलाह को न मानना था जो थियर को कम्यून को कुचलने की तैयारी के लिए लाखों फ्रैंक मुहैया कराता रहा। लेनिन के नेतृत्व में 1917 में यह गलती बोलशेविकों ने नहीं दुहराया, सबसे पहले उन्होंने बैंकों और प्रसारण संस्थानों को कब्जे में लिया था।

1848 में मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा था कि यूरोप के सिर पर कम्युनिज्म का भूत मंडराता रहता है और 1871 में पेरिस कम्यून के रूप में वह भूत उन्हें साक्षात दिख गया। यूरोप के प्रतिक्रियावादी खेमे में बौखलाहट मच गयी। मार्क्स ने कम्यून को अपने संदेश में स्पष्ट किया था कि पेरिस के बाहर अड्डा जमाये प्रशियन सैनिक या तो थियर की मदद करेंगे या खुद कम्यून पर हमला कर देंगे। मार्क्स यह स्पष्ट समझ रहे थे कि सर्वहारा की इस क्रांति को पुख़्ता करने के लिए ज़रूरी है कि पेरिस के कामगारों की सेना पेरिस में प्रतिक्रान्ति की हर कोशिश को कुचलकर, बिना रुके वर्साय की ओर कूच कर जाना चाहिए था। वर्साय में ही थियेर सरकार के साथ ही पेरिस के सभी धनपशुओं ने शरण ले रखी थी। उस समय थियर की कमान में मात्र 27 हजार हतोत्साहित सानिक थे और सर्वहारा की फौज में एक लाख नेशनल गार्ड्स।

पेरिस की नकल पर कई और कम्यून बने थे। वार्साय पर झंडा गाड़ने के बाद क्रांति को देशव्यापी बनाया जा सकता था लेकिन किसी ऐतिहासिक मिसाल; सैद्धांतिक परिपक्वता; ठोस, संगठित नेतृत्व; ठोस स्पष्ट कार्यक्रम के अभाव और घेराबंदी की अफरातफरी में, पेरिस का मजदूर जमीनी हकीकतों के संदर्भ में, सर्वहारा के हित में नये समाज के गठन की प्रक्रिया में फूंक-फूंक कर कदम रख रहा था। इसीलिए, लगता है, कम्यून क्रांति को पुख्ता किए बिना क्रांति के बाद के समाज के ताने-बाने में फंस गया। छोटी मोटी झड़पों में वारसाय सेना द्वारा कुछ कम्युनार्डों को पकड़कर कत्ल कर देने की घटना के बाद, नेशनल गार्ड के दबाव में कम्यून ने वरसाय पर 3 मोर्चों से हमला करने का फैसला लिया। अपनी सामरिक कमजोरी को जानते हुए, थियर कम्यून से वर्तालाप का नाटक कर रहा था, और जैसा कि मार्क्स को पूर्वाभास था, कम्यून को कुचलने के लिए बिस्मार्क से गुप-चुप सौदे बाजी। और अंततः जब पुनर्गठित सेना के साथ पेरिस पर भारी तोपों के साथ हमला बोला तो राजनैतिक और सामरिक अनुभव और अंतर्दृष्टि की कमी के चलते, सर्वहारा की फौज को लड़ते हुए पीछे हटना पड़ा और एक सप्ताह तक पेरिस पर बमबारी होती रही, इसे इतिहास में काला सप्ताह नाम से याद किया जाता है।

सेना का चरित्र वैतनिक हत्यारों सा होता है, किसी विदेशी सेना का नहीं, अपनी विद्रोही जनता का। इसके बाद प्रतिक्रियावादियों ने सड़कों पर दमन का जो तांडव किया वह बेमिसाल है। पेरिस लाशों से पट गया। लगभग 30 हजार क्रांतिकारियों ने शहादत दी, जिसमें बच्चे-बूढ़े-महिलाएं सब थे। कम्युनार्ड लड़े तो भूतपूर्व बहादुरी से लेकिन सामरिक योजना में अपरिपक्वता के चलते 28 मई को 2 महीने का कम्यून पराजित हो गया। सशस्त्र दस्ते जून में पेरिस की सड़कों पर गस्त करते रहे और किसी को भी कम्यून के सहयोगी के संदेह में गोली मार देते थे। कम्यून के पतन के बाद सभी देशों में इंटरनेशनल के सदस्यों और शाखाओं पर दमन बढ़ता रहा और संगठन में टकराव, जिसके नतीजतन संगठन दो फाड़ हो गया और अंततः विगठित।

कम्यून की विसंगतियों और कार्यक्रमों की सैद्धांतिक अस्पष्टता, प्राथमिकताओं के गलत चुनाव के कारण समय और ऊर्जा की बर्बादी आदि कमियों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उपरोक्त पेरिस कम्यून की तत्कालीन, प्रामाणिक और वैज्ञानिक समीक्षा है। मजदूरों के पहले अल्पजीवी राज्य के उत्थान और पतन की एक संक्षिप्त समीक्षा के साथ इस चर्चा को समाप्त करते हैं।

मार्क्स ने 18 मार्च के पहले ही कहा था कि तत्कालीन, प्रतिकूल परिस्थियों में सत्ता पर कब्जा करना एक “दुस्साहसिक भूल होगी” लेकिन इतिहास में स्वफूर्तता की अपनी भूमिका होती है। पेरिस के मजदूर महज अपनी लड़ाई नहीं लड़ रहे थे बल्कि शोषण, वर्गविभाजन, सैन्यवाद और राष्ट्रोन्माद से मुक्त “एक सार्वभौमिक गणतंत्र” की। 1871 की तुलना में आज गहराते पूंजीवादी संकट के संदर्भ में विकसित और विकासशील औद्योगिक देशों में क्रांति की परिस्थियां ज्यादा अनुकूल हैं, लेकिन पहले इंटरनेशनल जैसे क्रांतिकारी संगठन की नामौजूदगी से शासकवर्ग संकट से विषयांतर के लिए नस्लोन्माद; धर्मोन्माद; राष्ट्रोन्माद का सहारा ले रहा है। आज जरूरत ऐसे समाज की ठोस बुनियाद तैयार करने की है जिसके लिए पेरिस के सर्हारा स्त्री-पुरुषों ने कुर्बानियां दीं। कम्यून, अल्पजीविता के बावजूद एक समाजवादी समाज बनाने का ईमानदार प्रयास था और क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर बन गया तथा भविष्य की क्रांतियों का संदर्भबिंदु।


लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से अवकाश प्राप्त राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं