बेशक प्रधानमन्त्री मोदी ने बिहार चुनाव प्रचार की गर्मी में लालू यादव-राबड़ी देवी के 15 वर्ष के शासन की याद दिलाते हुए महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के दावेदार उनके बेटे तेजस्वी यादव को जंगलराज का युवराज कहा हो, लेकिन एक पूर्व पुलिस अधिकारी के नाते मैं बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव की ही जीत देखना चाहूँगा. क्यों? इसके जवाब में और तेजस्वी यादव के पक्ष में मेरा सीधा तर्क होगा- इस युवा का अपनी सरकार बनने पर पहली कलम से दस लाख रोजगार देने का वादा, जिस पर बिहार का हताश वोटर भी आज विश्वास करना चाहेगा.
क्या यह भी दोहराने की जरूरत है कि रोजगार और कानून-व्यवस्था के बीच किस कदर सीधा सम्बन्ध होता है. रोजगार को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाने का श्रेय तेजस्वी को दिया जा रहा है और यह सच भी है. सभी चरणों के चुनाव के बाद आए एग्जिट पोल्स भी इस ओर इशारा कर रहा है कि बिहार चुनाव का एजेंडा मुद्दों पर केन्द्रित रहा.
तेजस्वी यादव के ‘दस लाख नौकरी’ के मुकाबले में ‘मेरा आख़िरी चुनाव’ की भावनात्मक अपील पर निर्भर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से रोजगार नीति को लेकर क्या आशा की जा सकती है? उनकी ओर से बतौर राज्य के मुख्यमंत्री 15 साल के कार्यकाल में कुल चार लाख रोजगार दे पाने का दावा किया गया है. यही नहीं, वे पुरे चुनाव में तेजस्वी के दस लाख नौकरी के वादे को भ्रामक करार देते रहे हैं. उनका यह तर्क कि राज्य के पास रोजगार देने के लिए पैसा कहाँ से आएगा, चुनावी माहौल में शायद ही व्यापक मतदाता समूह के गले उतारा.
नीतीश कुमार लाख कोशिशों पर भी राज्य में लालू यादव के कथित जंगलराज की वापसी का हौव्वा नहीं खड़ा कर पाएं. पिछला चुनाव तो उन्होंने लालू यादव के संग ही लड़ा था और कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर स्वयं उनकी अपनी उपलब्धि इस बार नेगेटिव रही है. बालिका गृह यौन-शोषण काण्ड की पोक्सो आरोपी मंजु वर्मा तक को टिकट देने में उन्होंने परहेज नहीं किया. योगी आदित्यनाथ की चुनावी सभाओं में ‘घुसपैठियों’ को सिटिजनशिप एक्ट की मार्फत देश से निकालने की धमकी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए अराजकता का ऐसा सन्देश था, जो संभवतः नीतीश कुमार के मुस्लिम वोटरों को उनसे विमुख किया ही है.
दरअसल, बतौर मुख्यमंत्री पहली पारी में नीतीश कुमार की एक बड़ी उपलब्धि उनकी अच्छी कानून-व्यवस्था ही हुआ करती थी. इस मोर्चे पर निराशाजनक लम्बे लालू अध्याय के बाद अपराधी तत्वों के खिलाफ नीतीश के आश्वस्तकारी प्रशासनिक चैप्टर ने उन्हें 2010 में लोगों से दोबारा मुख्यमंत्री की सनद भी दिलायी. हालाँकि इस बार वे अच्छी कानून-व्यवस्था के एजेंडे पर टिक नहीं सके.
उन्होंने राज्य में गुजरात की तर्ज पर पूर्ण शराबबंदी लागू कर एक अपराध-विरोधी प्रशासनिक छवि बनाने का दांव जरूर खेला, लेकिन जल्द ही यह पहल भी भ्रष्टाचार और अव्यवस्था की भेंट चढ़ गयी. भारत ही नहीं दुनिया के पैमाने पर एक जाना-पहचाना नियम है- पूर्ण शराबबंदी का मतलब पूर्ण असफलता और ज्यादा अपराधीकरण ही होता है. रूस और अमेरिका जैसे देश भी इस प्रयास में मुंह की खा चुके हैं. हरियाणा ने इसका खामियाजा भुगता हुआ है. गुजरात में यह आज 30 हजार करोड़ का अवैध धंधा बना हुआ है. नीतीश कुमार के बिहार में भी शराब का अवैध कारोबार राजनेता-पुलिस-एक्साइज़-माफिया के बीच 10 हजार करोड़ के बन्दर-बाँट में बदल चुका है.
नीतीश कुमार की शराबबंदी ने राज्य का खजाना भी खाली कर दिया है. दस लाख नौकरी देने के लिए पैसा कहाँ से आएगा, उनके इस चुनावी सवाल का जवाब तेजस्वी यादव चाहें तो कभी भी दे सकते हैं- शराबबंदी ख़त्म करके. हालाँकि उन्होंने इस सवाल का जवाब भी दिया भी, लेकिन वह शराबबंदी ख़त्म करने से अलग था. बहरहाल, यदि राज्य में शराब का कारोबार आम लोगों को कल्याण को ध्यान में रखकर व्यवस्थित किया जा सके तो यह बेहतर अर्थ-व्यवस्था ही नहीं, बल्कि बेहतर कानून-व्यवस्था के लिए भी एक उत्प्रेरक सिद्ध होगा.
यह भी कडुवी सच्चाई है कि चुनाव उपरान्त राजनीतिक रूप से कमजोर पड़ चुके नीतीश कुमार की शासन में भाजपा की भागीदारी बिहार में कानून-व्यवस्था को और पतन के रास्ते पर ही ले जायेगी. हालाँकि संभव है कि ऐसी नौबत आ ही न पाए, क्योंकि एग्जिट पोल्स की माने, तो महागठबंधन सरकार बनाने जा रही है. लेकिन फिर भी चिंता वाज़िब हो जाता है, क्योंकि हालिया घोषणा के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्य ‘लव जिहाद’ पर कानून बनायेंगे. बलात्कार और स्त्री-शोषण की मानसिकता के आगे घुटने टेक चुकी भाजपायी अब इस रूप में स्त्री सुरक्षा का एक और हवा-हवाई तिलिस्म खड़ा करने जा रही है. आश्चर्य नहीं कि पार्टी की प्रतिगामी संस्कृति के अनुरूप ऐसे कानूनों में मुस्लिम द्वेषी भावना के साथ स्त्री द्वेषी भावना भी प्रचुर मात्रा में निहित मिले. भाजपायी बिहार इससे अछूता कैसे रहने दिया जाएगा?
तेजस्वी यादव के लिए बिहार की जनता का क्या सन्देश होना चाहिए? यही कि वे रोजगार की मार्फ़त कानून-व्यवस्था की वापसी चाहते हैं, न कि कथित जंगलराज की.
लेखक रिटायर्ड आईपीएस रहे हैं क़ानून-व्यवस्था और मानवाधिकार के मुद्दों पर लगातार सक्रिय हैं। वो हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।