राजीव गाँधी : एक अभिमन्यु चक्रव्यूह में!

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पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी  21 मई 1991 को आतंकवादी हमले में शहीद हो गये थे। आज उनकी पुण्यतिथि है। समय बीतने के साथ यह मानने वालों की तादाद बढ़ रही है कि राजीव गाँधी ने भारत को आधुनिक और तकनीकसम्पन्न बनाने की राह में बेहद महवत्वपूर्ण भूमिका निभायी जिसका उचित मूल्यांकन नहीं हुआ। भारत अगर सॉफ़्टवेयर क्षेत्र में ताक़त तब सका तो उसके पीछे राजीव गाँधी का ही विज़न था, हालाँकि उस समय का लगभग संपूर्ण विपक्ष उनका माखौल उड़ा रहा था। उन्हें और उनके काम-काज को बेहद क़रीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी का यह संस्मरण उनके बारे में बहुत कुछ बताता है- संपादक

 

रामशरण जोशी

 

राजीव  गाँधी की जीवन यात्रा के हिंसात्मक पटाक्षेप को एक वर्ष कम तीन दशक हो गये हैं। राजीव गाँधी प्रधानमंत्री थे, पर मेरे नेता नहीं  थे। फिर भी इस दौर में तीव्रता से उनकी स्मृतियाँ थाप दे रही हैं मेरे स्मृति-पटल पर। जब वे कांग्रेस के महासचिव थे, कितनी ही बार  रिपोर्टिंग में मुठभेड़ें हुईं। 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री व माँ इंदिरा गाँधी के हिंसात्मक अंत के बाद जब वे प्रधानमन्त्री बने थे तब उन पर विरासत का बोझ और नये भारत के सपने, दोनों ही की चमक उनके तरुण चेहरे पर थी। उनके साथ देश-विदेश की अनेक यात्राएं की थीं, अब वे मेरी स्मृतियों की पूँजी है।

 शायद 18 या 19 मई, 1991 को राजीव जी के साथ हुए डिनर को मैं कैसे भुला सकता हूँ! हुआ यह कि 1991 में चंद्रशेखर-सरकार के  इस्तीफे के बाद मध्यावधि चुनावों की घोषणा हो चुकी थी। राजीव गांधी को अगली सुबह चुनाव प्रचार के लिए भुवनेश्वर जाना था। इसके बाद तमिलनाडु भी। इसलिए चंद वरिष्ठ पत्रकारों को डिनर पर बुलाया गया था। इस रात्रि-भोज का आयोजन कांग्रेस की वरिष्ठ नेता  मारग्रेट अल्वा के निवास पर था। तब उनका बंगला पटेल चौक के आसपास था। पूर्व प्रधानमंत्री ने बेहद बेतकुल्फ़ी के साथ चुनावी चर्चा की। मध्य प्रदेश की विदिशा सीट में  उन्होंने दिलचस्पी दिखाई और मुझसे पूछ लिया, “हमारे प्रताप भानु शर्मा के क्या हाल हैं? कोई उम्मीद है ?“ मैंने कहा, “ देखिये राजीव जी, शर्मा जी दो बार विदिशा से जीत चुके हैं। इस बार उनके सामने भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी जी हैं। खुद ही सोच लें !”.  यह सुन कर राजीव के मुँह से हंसी का फव्वारा फूट गया और बोले, “तब तो इस दफे प्रताप भानु मारा गया।”  और भी ढेर सारी बातें की और सत्ता में वापसी का आत्मविश्वास दिखाया। मुझे क्या मालूम था कि इस निर्मल-मासूम छवि के साथ मेरी  अंतिम भेंट रहेगी!

अमेठी की सीट से राजीव गाँधी के चुनाव को मैंने कवर किया है। लेकिन यहाँ ज़िक्र पूर्व प्रधानमंत्री की सुल्तानपुर से गौरीगंज यात्रा का करूंगा। सर्दी का मौसम था। मैं प्रधानमंत्री के काफिला के साथ था। तब अम्बैसडर कारों का चलन था। एक कार में हम दो-तीन पत्रकार सफर कर रहे थे। मध्य रात्रि के आस-पास जंगल से गुजर रहे थे।  अचानक हमारा काफिला रुक गया। 11वें  या 12वें नंबर पर हमारी कार थी। अचानक रुकने की वजह क्या हो सकती है, ड्राइवर समेत किसी के पास इसका उत्तर नहीं था। चंद मिनटों के बाद ही बाहर से टोर्च का फोकस हम पर पड़ा। मैंने तुरंत खिड़की का ग्लास नीचे किया। बाहर चेहरे को देख हम सभी सन्न रह गए। सर्द रात में भारत के प्रधानमंत्री हाथ में लम्बी सी टोर्च लिए खड़े थे। मैंने  पूछा, “ राजीव जी, क्या बात है?” सभी को हैरत हुई ज़वाब सुन कर। कुछ नाराज़गी के स्वरों में बोले, “क्या बताएं …  करीब सौ-सवा सौ कारें पीछे चल रही हैं। इतनी कारों की क्या ज़रूरत है? मैं एन्ड तक देख कर आता हूँ?”  यह कर पीछे की ओर चल दिए। अंगरक्षक भी उनके साथ हो लिए।  यह काम तो कोई इस्पेक्टर भी कर सकता था, प्रधानमंत्री कर रहे हैं! हम लोगों ने अपने ‘सर’ पीट लिए। दस-पंद्रह मिनिट के बाद लौटते हुए फिर से हमें अपडेट करते हुए  कहा,“मैंने फिजूल की कारों को रुकवा दिया। आप लोगों के पीछे दो-चार और रहेंगी। बस !”  राजीव गाँधी के इस भोलेपन पर कौन न मर जाए!

जब श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में उन पर हमला हुआ था तब भी मैं मीडिया पार्टी का सदस्य था। यह घटना जुलाई 1987 की है। हुआ यह कि हम पत्रकार विशेष विमान में पहले से आकर बैठ गए थे। हम लोगों से  कहा गया कि प्रधानमंत्री परेड का इंस्पेक्शन कर लौटेंगे। श्रीलंका और भारत के बीच समझौते को लेकर शहर में काफी तनाव था। वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री इस के विरुद्ध थे लेकिन राष्ट्रपति पक्ष में थे। समझौते की सुबह परेड के निरीक्षण के दौरान एक नौसैनिक ने उनपर राइफल की बट से हमला कर  दिया। सतर्क राजीव गाँधी ने स्वयं को बचा लिया। जब इसकी खबर विमान में हम लोगों तक पहुँची, सब लोग चिंतित हो गए। अफवाह यह भी उड़ी कि श्रीलंका की आर्मी ने  विद्रोह कर दिया तो और भी चिंता होने लगी। कुछ लोग सोचने लगे, हम लोग सकुशल टेक ऑफ भी कर सकेंगे ! खैर! आधा घंटे के बाद प्रधान मंत्री का काफिला एयरपोर्ट  पहुँचा। राजीव जी सीधे हम लोगों के बीच पहुँचे। अविश्वसनीय सहजभाव से बोले : “ अरे कुछ नहीं हुआ। ये देख लो” और देखते-देखते कोट खोल और कमीज की कॉलर को मोड़ कर दिखाने लगे। “मामूली खरोंच भर है,”  फिर जोर से ठहाका लगाया और अपने केबिन की तरफ चल दिये। हम सब अवाक थे, “कैसा प्रधानमंत्री है! इनकी जगह कोई  दूसरा रहता तो जम कर इशू बनाता।”

शालीनता-विनम्रता-सादगी की कितनी ही यादें हैं, सब की पुनर्यात्रा मुश्किल है। एक दफा तो उन्होंने हद कर तब वे प्रधानमंत्री नहीं थे, किस्सा तब का है। एक शाम मैं इंडिया गेट होता हुआ घर जा रहा था। मेरे पास  फ़िएट थी। एक क्रासिंग पर ट्रैफिक लाइट के कारण मैं रुक गया। देखता हूँ कि चंद पलों में एक जीप आकर रुक गयी है। पीछे दो सिक्योरिटी कारें हैं। बराबरवाली जीप पर नज़र मारी तो पाया कि राजीव गाँधी स्वयं स्टेरियिंग पर बैठे हुए है। जब उनकी नज़र मुझ पर पड़ी तो वे उतर कर आने लगे, मैं भी  उतरने लगा। इसी बीच ग्रीन लाइट हो गयी और अपनी सीट से ही जोर से कहा, “ हैलो!” वही उत्तर मैंने दिया। क्या आज हम ऐसी उम्मीद कर सकते हैं? 1985 में मुंबई के  कांग्रेस- महाअधिवेशन के समय मैंने लिखा था कि क्या राजीव गाँधी ‘विकसित पूंजीवाद लाएंगे?’ काफी शोर मचा था। वे निडर हो कर प्रेस कॉन्फ्रेन्सेस किया करते थे। जब   उन्होंने कम्प्यूटर युग की शुरुआत की थी तब कितनी खिल्ली उड़ाई गई थी! ‘कंप्यूटर बॉय’ कहा गया। विडंबनापूर्ण विरोधाभास यह है कि उनके आलोचक ही आज कंप्यूटर   संस्कृति में रमे हुए है, डिजिटल इण्डिया का नारा लगा रहे हैं। 

और अंत में,

राजीव गाँधी एक रथ को कार का रूप देने का सपना संजोय हुए थे। मैं कह सकता हूँ, उनकी स्वप्नयात्रा अधूरी ही रही।       

इस मत का मैं शुरू से रहा हूँ कि राजीव गाँधी ‘राजनैतिक अखाड़े’ के लिए मिसफिट थे। उन्हें खुर्रांटों के चक्रव्यूह में धकेल तो दिया गया या वे खुद आये, लेकिन अभिमन्यु के  समान बाहर आने के मार्ग से अनभिज्ञ ही रहे! 


 


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