मरुधरा की राजनीतिक तृष्णा
12 जून, शुक्रवार को कांग्रेस ने अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) पर 19 जून को होने वाले राज्य सभा चुनावों को लेकर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है। कॉन्फ़्रेन्स के दौरान, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि, कांग्रेस अपनी शिकायत लेकर, चुनाव आयोग के पास भी जाएगी। बुधवार को राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आरोप लगाया कि, भाजपा ने राजस्थान में उनके विधायकों को 25 करोड़ की रिश्वत का ऑफ़र दिया गया है।
कांग्रेस दावा कर रही है कि भाजपा ग़ैर-लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनाव के नतीजे पर प्रभाव डालने की कोशिश कर रही है। राजस्थान भाजपा के प्रदेशध्यक्ष सतीश पूनिया ने इन आरोपों पर आपत्ति जतायी है और कांग्रेस को चुनौती दी है कि ये आरोप साबित कर कर बताएँ। 19 जून को राज्य सभा की सीटों पर चुनाव होने वाला है। इनमें राजस्थान, गुजरात, मणिपुर, मध्य प्रदेश, झारखंड, मिज़ोरम की 19 सीटों पर फ़ैसला होना है।
कच्छ में भी रण
पिछले हफ़्ते गुजरात में भी विधायकों की ख़रीद फ़रोख़्त की कुछ इसी तरह की ख़बरें सुर्ख़ियो में थी। कांग्रेस ने, भाजपा की राजनीति से बचाने के लिए अपने विधायकों को रिज़ॉर्ट में रुकवाया है। जिस समय देश में कोरोना प्रतिदिन के आँकडे 11,000 के भी पार हैं, तब देश की दो सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ चुनावों की जद्दोजहद में लगी हैं।
केंद्र की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के पास LED लगा कर रैली करने का वक़्त है और चुनावी जोड़ तोड़ करने का भी बहुत वक़्त है। शायद केंद्र ने मान लिया है कि चुनाव जीतने से ज़्यादा ज़रूरी कुछ नहीं है, जिन देशवासियों के वोट से सरकार बनायी थी – उनकी जान भी नहीं। है। ये चुनाव पहले मार्च में होने थे, लेकिन चुनाव आयोग ने पब्लिक स्वास्थ्य इमर्जेंसी के कारण इनको टाल दिया था। इन चुनावों के वजह से मार्च में मध्यप्रदेश में ख़ूब राजनैतिक ड्रामा हुआ था। ख़ैर, इस राजनैतिक छींटाकशी से दूर राज्य सभा के चुनावों को, विधायकों और सांसदों की अदलाबदली को, बदलती हुई राजनीति को और भारत के एंटी-डिफ़ेक्शन( दल-बदल विरोधी) क़ानून को थोड़ा विस्तार में समझने की कोशिश करते हैं। इससे हम बेहतर तरीक़े से मौजूदा राजनीति के परिवेश को समझ पाएँगे।
राज्य सभा का जटिल गणित
भारतीय संविधान के चौथे स्केडूल या चौथी अनुसूची के अनुसार किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की राज्य सभा सीटों की संख्या उस राज्य की आबादी के आधार पर तय होती है। जैसे की उत्तर प्रदेश देश का सबसे ज़्यादा जान संख्या वाला राज्य है इसलिए वहाँ से 31 सीट निर्धारित की गयी हैं। इसी तरह जनसंख्या को मद्देनज़र रखते हुए महाराष्ट्र में 19 सीटें हैं, तमिलनाडु में 18 सीटें हैं, पश्चिम बंगाल और बिहार में 16-16 सीटें हैं, कर्नाटक में 12 सीटें हैं, और राजस्थान और ओडिशा में 10-10 सीटें हैं। वहीं गोवा, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम जैसे राज्यों में केवल एक-एक राज्यसभा सीटें हैं। राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सीटें मिलकर राज्यसभा में 233 सीट होती हैं। राज्य सभा के 12 सदस्य राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं। इन सबको मिलाकर वर्तमान में राज्यसभा में कुल 245 सीटें हैं।
राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल 6 सालों का होता है। और इस सदन में चुनाव हर दो साल में होते हैं। राज्यसभा चुनाव में राज्य के विधायक हिस्सा लेते हैं। इन चुनावों की वोटिंग का फॉर्मूला कुछ इस प्रकार है – (विधायकों की कुल संख्या/ खाली सीटें+ 1)+ 1
मतलब किसी राज्य की कुल विधानसभा सीटों को राज्यसभा की खाली सीटों में एक जोड़कर, उससे विभाजित किया जाता है। इससे जो संख्या आती है उसमें दोबारा से 1 जोड़ दिया जाता है। जैसे कि राजस्थान में 3 सीटें खाली हैं। राजस्थान में कुल विधायकों की संख्या 200 है। यानी की अब फॉर्मूला होता है – (200/3+1)+1 तो नतीजा आएगा 51। यानी अभी हो रहे राज्यसभा चुनाव में राजस्थान से एक राज्यसभा सीट जीतने के लिए 51 विधायकों का वोट मिलना जरूरी है।
लेकिन सारे विधायक सभी सीटों के लिए वोट नहीं करते हैं। ऐसा अगर होता तो सिर्फ़ मजॉरिटी पार्टी या सत्ताधारी पार्टी के ही उम्मीदवार जीत पाते। हर विधायक का वोट एक बार ही गिना जाता है। इसलिए विधायकों को वोट देते समय, प्राथमिकता के आधार पर वोट देना होता है। हर विधायक को पता होता उनकी पहली पसंद कौन है और दूसरी कौन। इस हिसाब से पहली पसंद के वोट जिस उम्मीदवार को ज्यादा मिलेंगे, वही जीत पाएगा। जैसे अभी राजस्थान में कांग्रेस ने दो उमीदवार नॉमिनेट किए हैं। उनके के पास कुल 115 विधायकों का समर्थन है, तो 51+51=102 विधायकों के मतदान से कांग्रेस 2 सीट जीत सकती है, परंतु तीसरी सीट नहीं वो भाजपा अपने 73 में से 51 विधायकों के मतदान से जीत सकती है। इसलिए राज्य सभा चुनावों में एक एक विधायक के वोट का बहुत महत्व होता है। अगर मान लीजिए इस ख़रीद फ़रोख़्त की राजनीति से कांग्रेस में विधायक कम हो गए तो उनकी राज्य सभा सीटें भी कम हो जाएगी। पर क्या सिर्फ़ ख़रीद फ़रोख़्त ही नेताओं को दल बदलने पर मजबूर कर देती है।
क्यों नेता दल बदलते हैं?
देश में दल बदलने का दौर 1960-70 के दशक में शुरू हुआ था। 1967-71 के बीच लोक सभा में कुल 142 सासंदों ने दल-बदली करी थी और विधान सभा में कुल 1,969 विधायकों ने दल-बदली करी थी। इस दौरान कुल 32 सरकारें गिरी और लगभग 200 से ज़्यादा दल-बदलने वाले नेताओं को राजनीतिक पद दिए गए थे। उस दौर में “आया राम, गया राम” वाली लोकोक्ति बहुत मशहूर हुआ करती थी। इसके पीछे की कहानी बहुत रोचक है। उस वक़्त हरियाणा में एक विधायक थे गया लाल जिन्होंने 14 दिन के अंतराल में तीन बार दल बदली करी थी। इसलिए “दल-बदलू” लोगों के लिए ये लोकोक्ति इस्तेमाल की जाती है। भारत के अलावा कई अन्य देशों में भी दल-बदली होती है, जैसे कि बांग्लादेश,यूनाइटेड किंगडम, सिंगापुर, दक्षिण अफ़्रीका, केन्या, जर्मनी, मलेशिया इत्यादि।
पर सिर्फ़ पैसे और पद का लालच ही वजह नहीं होती के सांसद या विधायक दल बदलते हैं। ऐसा नहीं है की इसका कोई आर्थिक फ़ायदा नहीं होता, जैसे साल 2019 में जब कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर के, 10 विधायकों ने भाजपा में शामिल होकर कर्नाटक में कुमारस्वामी की सरकार गिरायी थी तब माना जाता है कि हर विधायक को 1-1 लक्ज़री कार भेंट की गयी थी। कहा जाता रहा है ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी राज्य सभा की सदस्यता के लिए ही कांग्रेस को छोढ़ने का निर्णय लिया था। और ऐसी कई कहानियाँ हैं जहाँ पैसे, सुख-सुविधा, पार्टी टिकट और पद के लालच में नेताओं ने दल-बदली करी है। पर सिर्फ़ इन वजहों से ही दल बदली नहीं होती।
कर्म के फल की इच्छा
कई बार बहुत सालों तक पार्टी के लिए लगातार काम करने के बावजूद भी नेताओं को उनकी मेहनत का फल नहीं मिलता। कभी-कभार विधायकों और सांसदों के कुछ मुद्दों पर पार्टी से मतभेद भी हो सकते हैं। लेकिन इन मतभेदों को ज़ाहिर करने की कभी कभी अनुमति और जगह नहीं मिल पाती। पार्टी आलाकमान बहुत बार अपने ख़िलाफ़ विचार नहीं सुन पाता है। ऐसे में भी नेता दल बदलते हैं या कभी कभार अपना नया दल भी बना लेते हैं। ऐसे नेताओं को लालची और महत्वकांशी कहकर उनकी उलाहना करी जाती है। परंतु ये सिर्फ़ लालच या महत्वाकांक्षा की बात नहीं है, अगर विचारों को उनकी उचित जगह और सम्मान नहीं मिलेगा तो ये लोकतंत्र की संवाद की संस्कृति की अवहेलना है। दूसरा, अपने काम के लिए उचित माँग करना तो हर तरह के क्षेत्र में सम्मान से देखा जाता है, फिर सिर्फ़ राजनीति में ही क्यों इसको अवसरवाद या लालच कहा जाता है। पर हाँ ये सच है कि ये तय करना बहुत मुश्किल है कि कब इसे असरवाद कहें , या कब वैचारिक मतभेद या कब अपने काम के अनुरूप मुआवज़े की माँग कहें।परंतु राजनीति को और नेताओं को हीन भावना से देखना या उनके निर्णय को हमेशा अवसरवाद मानने की परम्परा पर भी चर्चा होनी चाहिए।
नया ज़माना – नई बेवफ़ाई
लेकिन मौजूदा राजनीतिक परिवेश में दल बदलने या दल छोड़ने की एक नयी वजह भी सामने आयी है। हाल ही में हिंदुस्तान टाइम्ज़ में अशोका यूनिवर्सिटी के सहायक प्रोफ़ेसर गिल्ल्स वर्नीअर द्वारा प्रकाशित लेख में इन नए कारणों पर भी लिखा गया है। उनके अनुसार इसके दो कारण और हैं, पहला चुनावों में अब विधायकों की ज़मीनी समझ और उनके मतदाताओं से रिश्तों को दरकिनार करके ज़्यादा महत्व रणनीतिकारों और डेटा को दिया जाता है। दूसरा आजकल पार्टियों में बहुत केंद्रीकरण है और राजनीति आजकल कुछ नेताओं के व्यक्तित्व के आधार पर होती है, जैसे भाजपा में मोदी जी और कांग्रेस में राहुल गांधी के व्यक्तित्व के इर्द गिर्द सारा प्रचार प्रसार होता है। इस वजह से विधायकों और सांसदों के प्रयासों को निर्थरक मान लिया जाता है। इसी कारणवश उन्हें काफ़ी असंतोष का भी सामना करना पड़ता है। डेटा और रणनीतिकारों के प्रभाव को यूँ भी समझा जा सकता है जैसे कि, कोरपोरेट में ऑटमेशन की वजह से कुछ नौकरियाँ निर्थरक हो गयी हैं। पर इस सबकी वजह से लगातार सरकारों पर दबाव रहता है अपनी सत्ता बचाने की कोशिशों में लगी रहे, जो एक लोकतंत्र और सुशासन के लिए बहुत हानिकारक है। तो इस समस्या से कैसे जूझा जा सकता है?
दल-बदल विरोधी क़ानून
जब 1960-70 के दशक में जब सरकारों को मिलें जनादेश का उल्लंघन कर लोकतंत्र को अनदेखा किया जाने लगा, तब जनादेश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को चुनाव में भाग लेने से रोकने तथा अयोग्य घोषित करने की ज़रूरत महसूस होने लगी। इसलिए संविधान के दसवें स्केडूल या अनुसूची में 52वें संशोधन के साथ 1985 में दल बदली विरोधी क़ानून बनाया गया। इस क़ानून का उद्देश्य या मक़सद था कि राजनीतिक लाभ और अवसरवाद के कारण दल बदलने वाले सदस्यों को एक राजनीतिक सज़ा मिले जैसे की उनकी सदस्यता रद्द करना। दल-बदल विरोधी कानून के तहत सदस्यों को कई कारणो कि वजह से अयोग्य घोषित किया जा सकता है, जैसे अगर कोई निर्दलीय सदस्य एक राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है, या कोई सदस्य पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट करता है या कभी कोई सदस्य स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोढ़ देता हो। इस क़ानून की वजह से अवसरवादी नेताओं पर दबाव भी पड़ा परंतु इस कानून के कुछ प्रावधान थोड़ी दिक़्क़तें भी पैदा कर देते हैं। उदाहरण के लिये यदि कोई अपनी पार्टी के फैसले की सार्वजनिक आलोचना करता है तो यह माना जाता है कि उसने पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है इस वजह से उन्हें आयोग्य घोषित किया जा सकता है। पर सदस्य भी जनता के प्रतिनिधि हैं, अगर वो अपना वैचारिक मतभेद नहीं व्यक्त कर पाएँगे तो हम एकछत्र पार्टी आलाकमान के राज की तरफ़ भी बढ़ सकते हैं। इसलिए 1992 में इस क़ानून में एक संशोधन किया गया जिससे अब सदस्यता रद्द करने वाले या आयोग्य घोषित होने वाले फ़ैसलों को कोर्ट में चुनौती भी दी जा सकती थी।
लेकिन करें क्या?
बहुत सारे देशों में दल बदलने के ख़िलाफ़ या पार्टी से वैचारिक मतभेद के ख़िलाफ़ कोई क़ानून नहीं हैं, तब भी वहाँ आय राम गया राम जैसी मानिसकता को इतना बढ़ावा नहीं मिलता। पिछले 6 सालों में लगातार विधायकों के दल बदलने की वजह से कई राज्य सरकारें गिरायी गयी हैं। और पिछले कुछ सालों में ही राजनीति में रणनीतिकारों को बहुत महत्व मिलने लगा है। इस सबको ध्यान में रख कर कुछ समाधान सोचे जा सकते हैं – पहला हमें नेताओं के काम को हीन भावना से देखना बंद करना होगा ताकि जब वो अपने प्रयासों के लिए पद और टिकट जैसे मुआवज़े की डिमांड करें तो हम उसे सिर्फ़ अवसरवाद नहीं माने।इसका एक पहलू ये भी है कि वो अपने प्रयासों के अनुकूल कॉम्पन्सेशन माँग रहे हैं।दूसरा, हर पार्टी को अपनी आंतरिक लोकतांत्रिक व्यव्यस्था पर ध्यान देना होगा। ताकि हर सदस्य को पूरा मौक़ा मिलें कि वो अपने मतभेद और विचार बिना रोक टोक प्रस्तुत कर सके। तीसरा, पार्टियाँ जो लगातार सदस्यों की ख़रीद फ़रोख़्त में लगी रहती है, जनता में ऐसी पार्टियों के प्रति जवाबदेही तय करने की निष्ठा और उन पर सवाल उठाने की तत्परता भी होनी चाहिए। चौथा, इस क़ानून में पार्टी और सदस्य के दायरे से बाहर अल्पमत सरकारों और राज्य सरकारों के लिए भी प्रावधान होने चाहिए।
लेखिका सौम्या गुप्ता, डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी उच्च शिक्षा हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर काम कर रही हैं।
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