अपना-अपना इस्लाम…!


‘मुसलमानों के विरोधी के लिए सिर्फ उर्दू अरबी नाम ही काफ़ी है, महज़ इतने भर से मुसलमान लिंच हो सकता है, भीड़ के ज़रिए मारा जा सकता है, एक पुलिस वाला कभी भी कहीं भी उसकी इज्ज़त रौंद सकता है और मामूली थानेदार 20 साल के लिए इन्हें अंदर कर सकता है। लेकिन मुसलमान ख़ुद शिया, सुन्नी, बरेलवी वगैरह के बुनियाद पर रिश्ते जोड़ेगा भी तोड़ेगा भी। और दावा करेगा कि ये तो बस क़ुरआन को मानता है। अरे भाई सब जब क़ुरआन को मानते हैं तो दर्जन भर स्कूल्स कैसे बन गए ! इन स्कूल्स का कोई फ़ायदा इस क़ौम को होता हो, मुझे ये नज़र नहीं आता, हाँ कुछ आलिम ज़रूर मुर्गा खाते हुए अच्छी ज़िन्दगी जी लेते हैं, ये आलिम जुमे जुमे गला फाड़कर रिदमिक चिल्लपों के अलावा और कुछ नहीं करते, लेकिन इस क़ौम को बर्बाद करने में इनका मुकाबला दुनिया का शायद ही कोई धर्म गुरू कर पाये।’


सलमान अरशद सलमान अरशद
ओप-एड Published On :


क़ुरआन इस्लाम का प्राथमिक ग्रंथ है। हदीस दूसरे नम्बर पर आती है, हलांकि हदीस को लेकर शिया व सुन्नियों में थोड़े मतभेद भी हैं। लेकिन क़ुरआन पर इन सबकी सहमति है। अहमदिया तक क़ुरआन मानते हैं लेकिन वो ये नहीं मानते की जनाब मुहम्मद स.अ. आखिरी नबी हैं। लिहाज़ा अहमदिया को शिया और सुन्नी दोनों ही मुसलमान नहीं मानते। पाकिस्तान में तो इनके ऊपर जानलेवा हमले तक होते हैं।

शिया और सुन्नियों का क़ुरआन एक है लेकिन शिया के नज़दीक सुन्नी और सुन्नियों के नज़दीक शिया मुसलमान नहीं हैं। फिर सुन्नियों के भीतर बरेलवी के लिए देवबंदी और अहलेहदीस काफ़िर है, अहलेहदीस के लिए ये दोनों काफ़िर हैं, मतलब ये तीनों एक दूसरे के लिए काफ़िर हैं।

इन्हें काफ़िर कहने या मानने का फैसला इन स्कूल्स ऑफ थॉट्स के आलिमे दीन के हवाले से आता है। बाहर से देखने वाले लोग समझते हैं कि ये बहुत मुत्तहिद क़ौम है। अब आप खुद सोचिये कि इन आलिमो के जीते जी क्या मुसलमान एक हो पाएंगे? मुझे तो नहीं लगता। और लोकतांत्रिक देश में किसी भी समूह की ताकत उसकी सियासी एकता में है, इससे आप इनकार नहीं कर सकते।

अब एक बात तो बिल्कुल साफ है कि ये आलिम इस क़ौम को एक होने नहीं देंगे और इन आलिमों को कूड़े में फेंकने की सलाहियत, क़ूवत और हिम्मत अभी फिलहाल इस क़ौम के पास नहीं है।

मुसलमानों के विरोधी के लिए सिर्फ उर्दू अरबी नाम ही काफ़ी है, महज़ इतने भर से मुसलमान लिंच हो सकता है, भीड़ के ज़रिए मारा जा सकता है, एक पुलिस वाला कभी भी कहीं भी उसकी इज्ज़त रौंद सकता है और मामूली थानेदार 20 साल के लिए इन्हें अंदर कर सकता है। लेकिन मुसलमान ख़ुद शिया, सुन्नी, बरेलवी वगैरह के बुनियाद पर रिश्ते जोड़ेगा भी तोड़ेगा भी। और दावा करेगा कि ये तो बस क़ुरआन को मानता है। अरे भाई सब जब क़ुरआन को मानते हैं तो दर्जन भर स्कूल्स कैसे बन गए ! इन स्कूल्स का कोई फ़ायदा इस क़ौम को होता हो, मुझे ये नज़र नहीं आता, हाँ कुछ आलिम ज़रूर मुर्गा खाते हुए अच्छी ज़िन्दगी जी लेते हैं, ये आलिम जुमे जुमे गला फाड़कर रिदमिक चिल्लपों के अलावा और कुछ नहीं करते, लेकिन इस क़ौम को बर्बाद करने में इनका मुकाबला दुनिया का शायद ही कोई धर्म गुरू कर पाये।

तालीम को लेकर इन आलिमों का अलग ही फ़ितूर है। इन्होंने तालीम को दो सोबे में बांट रखा है। एक है दीनी तालीम और दूसरी है दुनियावी तालीम। मुझे क़ुरआन में ऐसा कुछ नहीं दिखा, किसी को दिखा हो तो कॉमेंट में बताए। धर्म की शिक्षा दीनी तालीम है और दुनिया के तमाम श्किल्स और मानविकी की तालीम दुनियावी तालीम है। हलांकि क़ुरआन के तमामतर तालीमात में दीन और दुनिया दोनों शामिल है। दरअसल दीन में दुनिया और दुनिया में ही दीन है। आप दुनिया मे रह कर ही दीन पर अमल कर सकते हैं और ये अमल दीन के मुताबिक हो तो सही है। इस तरह दीन और दुनिया को अलग नहीं किया जा सकता।

यहाँ एक सियासी पहलू को भी देखा जाना चाहिए। पूँजीवादी लूट में धर्म आधारित नैतिकता आड़े आती है। इसलिए जरूरी था कि इस लूट और धर्माचरण दोनो को अलग कर दिया जाए। तो आप देखेंगे कि मज़दूरों का खून पीने वाला सेठ घर से पूजा करके निकलता है और धर्म कर्म पर पैसे भी खर्च करता है। हज के लिए अरब गया मुसलमान थोड़ी तस्करी कर लेता है। ये सभी धर्मों में है। तो आलिमों ने दीन यानी कि धर्म और दुनिया यानि कि मोह माया को अलग कर दिया। अब आप आराम से धर्म कर्म करते हुए मेहनतकश का खून भी पी सकते हैं।

एक और कमाल की बात देखिये, क़ुरआन सबसे पहले पढ़ने की बात करता है, और ये भी कहता है कि इल्म यानी ज्ञान हासिल करने के लिए जो भी जतन करना पड़े, करना चाहिए। लेकिन मुसलमान तालीम में बहुत पीछे है। हलांकि जिस तरह ये क़ौम मदरसे चलाती है उसी तरह मॉडर्न तालीमी ऐदारे भी बना सकती है, लेकिन इस दिशा में अभी बहुत कम काम हुआ है।

कुल मिलाकर आज के राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए जिन दो बेहद बुनियादी चीजों की ज़रूरत है वो है एकता और शिक्षा। मुसलमान इन दोनों पैरामीटर्स पर बहुत पीछे है। हलांकि मुसलमानों के बीच से नौजवानों का एक समूह तैयार हुआ है जो तालीमी ऐतबार से बहुत रिच है और उसके पास सियासी नज़रिया भी है। लेकिन एकता के लिए इनके बीच भी जिस धागे का इस्तेमाल हो रहा है वो मज़हबी है। इसलिए इस युवा ताकत की एकता कितनी मज़बूत होगी, ये बड़ा सवाल है।

 

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।