सरकार से 5 करोड़ लेकर 24 लाख करोड़ देने वाली LIC को हलाल करने की तैयारी!

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मशहूर कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य का यह कार्टून जीवन बीमा निगम के प्रति मोदी सरकार के रुख का सटीक बयान है। कभी आम आदमी के जीवन में थोड़ी सी निश्चिंतता भरने वाले जीवन बीमा निगम के निजीकरण की पूरी तैयारी है। इसका मक़सद और कुछ नहीं, उस पैसे को बाज़ार में लुटाना है जिसे लोगों ने अपनी जेब काटकर इकट्ठा किया था। लेखक रामजी तिवारी जीवन बीमा निगम में ही कार्यरत है। पढ़िये उनका विश्लेषण-

भारतीय जीवन बीमा निगम का राष्ट्रीयकरण 1956 में हुआ था । उससे पहले देश मे 200 से अधिक निजी कंपनियां कार्यरत थी। तब होता यह था कि जैसे ही किसी निजी कंपनी पर कोई भारी देनदारी आती, वह दिवालिया हो जाती । यानि जनता द्वारा जमा किया गया पैसा डूब जाता। ऐसी स्थिति में आजादी के बाद देश मे यह भावना विकसित हुई कि हमें अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करना चाहिए, जिसमें जनता की कमाई भी सुरक्षित रखी जा सके । तो इसलिए LIC का राष्ट्रीयकरण किया गया।

उस समय सरकार ने निगम को 5 करोड़ की मूल पूंजी उपलब्ध कराई। और साथ मे सावरेन गारंटी भी। जिसका मतलब यह था कि LIC के दिवालिया होने की स्थिति में जनता के पैसे को वापस लौटाने की गारंटी सरकार लेगी। साथ ही साथ सरकार ने LIC द्बारा जमा किये पैसे को अपने निर्देशन में निवेश के लिए उपयोग करने का फैसला भी किया।

इसके बाद LIC ने फिर कभी पीछे मुड़कर नही देखा। अपने कुल मुनाफे में से 95 प्रतिशत की राशि वह अपने पॉलिसीधारको के बीच वितरित करती है। और बाकि बची 5 प्रतिशत की राशि वह सरकार को प्रतिवर्ष डिविडेंट के रूप में देती है। यानि सरकार ने जो उसे 5 करोड़ की मूल पूंजी उपलब्ध कराई थी, उसके प्रतिफल के रूप में। यदि हम गत वर्ष का आंकड़ा देखें तो LIC ने सरकार को डिविडेंट के रूप में 2600 करोड़ रुपये प्रदान किया है। जी.एस. टी. के आंकड़े को मिला देने पर यह राशि कई गुना अधिक हो जाती है।

ध्यान रहे कि भारतीय जीवन बीमा निगम ने सरकार की सावरेन गारंटी का कभी उपयोग नही किया। चाहें जैसी भी विपरीत परिस्थितियां सामने आईं, निगम ने उसे सरकार के सहयोग के बिना ही हैंडिल किया । भुज, उत्तरकाशी, लातूर का भूकम्प हो, या सुनामी सहित तमाम प्राकृतिक आपदाएं रही हों, निगम ने अपने तमाम प्रक्रियाओं को शिथिल करते हुए स्वयं ही आगे बढ़कर जनता के सभी दावों का भुगतान किया।

मुझे याद है जब उड़ी की भयानक घटना हुई थी। तुरत ही उच्च कार्यालय से यह निर्देश आया कि इस घटना में जो भी जवान शहीद हुए हैं उनकी पॉलिसियों का भुगतान आप स्वयं ईनिशियेटिव लेकर पूरा करें। दुर्भाग्यवश उसमें बलिया के भी एक जवान शहीद हुए थे। हमारी शाखा ने उनके शव पहुंचने के अगले दिन उनके दावे का भुगतान उनके परिवार को सौंप दिया। कागजी कार्यवाईया बाद में होती रहीं। और यह सिर्फ हमारे यहां नही हुआ, वरन और शाखाओं ने भी यही तत्परता दिखाई।

और फिर जनता के पैसे के कस्टोडियन के रूप में भी निगम का रोल देश के विकास में योगदान करने वाला ही रहा। आज निगम के पास लगभग 32 लाख करोड़ रुपये का फंड है। इसमें लगभग 24 लाख करोड़ रुपये उसने केंद्र सरकार और राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं में निवेशित किया है । इनमें स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, टेलीकॉम, सड़क, और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्र शामिल हैं। पंचवर्षीय योजनाओं को साकार करने में निगम का योगदान हमेशा सराहनीय रहा है।

अर्थात निगम ने जनता के पैसे को सुरक्षित भी रखा है। और जनता के कठिन दिनों में उसका साथ भी निभाया है। साथ ही साथ जनता के पैसे को मोबेलाइज कर उसका देशहित में इस्तेमाल भी किया है। और यह सब करते हुए निगम ने हमेशा प्रगति ही की है।

हम सब जानते हैं कि जीवन बीमा क्षेत्र को सरकार ने सन 1999 में निजी क्षेत्र के लिए ओपन किया था। उसमें विदेशी पूंजी की भी कुछ सीमा तक इजाजत दी गयी थी । सन 2000 से इन निजी कंपनियों ने बीमा क्षेत्र में अपना कार्य व्यापार आरम्भ किया । आज की तारीख में लगभग 20 निजी कंपनियां इस जीवन बीमा क्षेत्र में काम कर रही हैं।

लेकिन आपको जानकर खुशी होगी कि 20 वर्षो के प्रतियोगी माहौल में भी भारतीय जीवन बीमा निगम का प्रदर्शन कमजोर नही हुआ हैृ। अभी ताजे आंकड़ो के अनुसार सम्पूर्ण जीवन बीमा क्षेत्र के व्यवसाय में LIC की हिस्सेदारी 72 प्रतिशत के आसपास है। यानि 20 देशी विदेशी कम्पनियों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए हमारे पास जीवन बीमा क्षेत्र का लगभग तीन चौथाई हिस्सा बना हुआ है । आप अन्य क्षेत्रों से तुलना कीजिये, तो यह आंकड़ा गर्व करने के लायक दिखेगा।

फिर LIC को निजीकरण की राह पर क्यों धकेला जा रहा है..? पहले यह खबर आयी थी कि सरकार निगम में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी बेचना चाहती है । और आज यह खबर अखबारों में तैर रही है कि सरकार का इरादा अब 25 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने का है।

लेकिन क्यों …? क्या निगम ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका नही निभाई है ? क्या निगम ने जनता के पैसे को मोबेलाइज नही किया है ? क्या निगम ने उस पैसे का राष्ट्रीय और सामाजिक उपयोग नही किया है ? क्या निगम ने जनता का विश्वास बरकरार नही रखा है ? क्या निगम ने प्रतियोगी माहौल का सामना सफलतापूर्वक नही किया है?

सच तो यह है कि निगम ने अपनी सारी भूमिकाएं बखूबी निभाई हैं। ऐसे में यह सवाल देश के प्रत्येक नागरिक की तरह हमे भी परेशान कर रहा है कि भारतीय जीवन बीमा निगम को निजीकरण की राह पर क्यों ले जाया जा रहा है?

हालांकि हम जानते हैं कि देश मे निजीकरण के पक्ष में एक जनमत तैयार हो चुका है। हम सरकार की मंशा से भी वाकिफ हैं। बावजूद इसके हम महसूस करते हैं कि सरकार का यह फैसला किसी भी तरह से उचित नही है। इसका असर निगम पर प्रतिकूल होगा। जाहिर है कि जनता के पैसे पर भी। और तदनुसार देश मे होने वाले भारी निवेश पर भी ।

इसलिए अपनी तो यही मांग है कि सरकार को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए।