इस आरएसएस प्रायोजित हिंदू समय में देश की तमाम विभूतियों पर क़ब्ज़ा जमाने का अभियान तेज़ हो गया है। इसी क्रम में असत्य, अर्धसत्य और कूटरचित दस्तावेज़ों के ज़रिये प्रेमचंद के हिंदू मन का भजन गाया जाने लगा है। वैसे यह नई बात नहीं है। 25 मार्च 2012 को कमल किशोर गोयनका ने जनसत्ता में ‘अगर प्रेमचंद हिंदू थे’ लेख लिखकर यही कोशिश की थी जिसका हिंदी के प्रख्यात आलोचक वीरेंद्र यादव ने 8 अप्रैल को उसी अख़बार में प्रेमचंद का हिंदू होना लिखकर तथ्य और तर्कसम्मत जवाब दिया था। प्रस्तुत है वह लेख ताकि आँखों मे डाला जा रहा जाला कुछ साफ़ हो सके- संपादक
प्रेमचंद का हिंदू होना
(वीरेंद्र यादव)
जनसत्ता 8 अप्रैल, 2012: कमल किशोर गोयनका ने ‘अगर प्रेमचंद हिंदू थे’ (25 मार्च) लेख में नामवर सिंह की ‘असाहित्यिक ग्रंथि’ का कम, अपनी ‘हिंदू ग्रंथि’ का खुलासा अधिक किया है। ऐसा वे ‘पांचजन्य’ सहित अन्य पत्र-पत्रिकाओं में जब-तब करते रहे हैं। यह सही है कि नामवर सिंह इन दिनों अपनी वक्तृता में विचलन और उन्मुक्तता से ग्रस्त हो गए हैं, लेकिन यह कह कर उन्होंने कोई चूक नहीं की है कि गोयनका प्रेमचंद को हिंदूवादी रंग में रंग रहे हैं। इसका पर्याप्त प्रमाण कमल किशोर गोयनका ने खुद अपने इसी लेख में दे दिया है। उन्होंने प्रेमचंद के लेखन में प्रयुक्त हिंदू शब्द को ढूंढ़-ढूंढ़ कर बिना संदर्भ को उद्धृत किए, प्रेमचंद के ‘हिंदूपन’ को उजागर करने का विचित्र कारनामा किया है।
कमल किशोर गोयनका का सवाल है कि प्रेमचंद हिंदू नहीं थे तो क्या थे? सच है कि प्रेमचंद उसी तरह हिंदू परिवार में पैदा हुए थे, जिस तरह बुद्ध, ज्योतिबा फुले, पेरियार, रामास्वामी नायकर, राहुल सांकृत्यायन और डॉ. आंबेडकर। लेकिन जिस प्रकार ये सभी वर्णाश्रमी हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद के कठोर विरोधी थे, उसी तरह प्रेमचंद भी। यही कारण था कि उन्हें ब्राह्मणवादियों द्वारा ‘घृणा का प्रचारक’ कहा गया। प्रेमचंद ने इसका मुंहतोड़ जवाब ‘घृणा प्रचारक महात्मा बुद्ध’ लिख कर दिया। बुद्ध के ‘सुनक सुत्त’ में ब्राह्मणवादी पाखंड का जो खुलासा किया गया है, उसको उद्धृत करते हुए प्रेमचंद ने लिखा कि ‘‘यह पांच पुराण ब्राह्मण धर्म इस समय कुत्तों में दिखाई देते हैं।’’ (जागरण, 15 जनवरी 1934)
एक अन्य लेख में हिंदू धर्म के देवी-देवताओं पर कटाक्ष करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘‘ईश्वर और देवता भी मजदूरों की श्रेणी से निकल कर महाजनों और राजाओं की श्रेणी में जा पहुंचे, जिनका काम अप्सराओं के साथ विहार करना, स्वर्ग के सुख लूटना और दुखियों पर दया करना था। भारत में तो मजदूर देवताओं का कहीं पता नहीं है। यहां के देवता तो शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करते हैं। कोई फरसा लिए प्राणियों का कत्लेआम करता फिरता है, कोई बैल पर चढ़ा भंग चढ़ाए, भभूत रमाए, ऊल-जलूल बकता नजर आता है। जाहिर है ऐसे ऐशपसंद या सैलानी देवताओं की पुष्टि करने वाले मजदूर नहीं हो सकते। ये देवता तो उस वक्त बने हैं, जब मजदूरों पर धन का प्रभुत्व हो चुका था और जमीन पर कुछ लोग अधिकार जमा कर राजा बन बैठे थे।’’
हिंदू धर्म का विखंडन करते हुए प्रेमचंद हिंदू प्रतीकों को ध्वस्त करने में कभी पीछे नहीं रहे, चाहे वह देवी-देवता हों या गो माता। गाय और हिंदू धर्म के शुद्धतावादी आचरण को लेकर प्रेमचंद का मत था कि ‘‘गौ कितनी ही पवित्र हो, लेकिन मनुष्य की तुलना नहीं कर सकती। मुसलमान कितने ही गए-गुजरे हों, फिर भी आदमी हैं। क्या अंधेर है कि हम अपने खाने के बरतनों में कुत्ते को ग्रास खिलाते हैं, लेकिन किसी मुसलमान को पानी पिलाना हो तो कुल्हड़ की तलाश करते हैं। कुत्ते के मुख का स्पर्श मांजने से साफ हो जाता है, लेकिन मुसलमान के मुख का स्पर्श अमिट है! क्या ऐसी स्थिति में भी हम आशा कर सकते हैं कि कोई आत्माभिमानी मुसलमान हमसे भाईचारे का बर्ताव करेगा?’’ (प्रताप, कानपुर, सितंबर, 1924)
प्रेमचंद हिंदुत्व के पैरोकारों के इस्लाम विरोधी अभियान से अत्यंत क्षुब्ध थे। धर्मपाल द्वारा मुसलिम विरोधी पुस्तक ‘विबलता’ लिखे जाने पर उन्होेंने कहा कि ‘‘किसी धर्म विशेष के भूतपूर्व नरपतियों का अब छिद्रान्वेषण करना केवल दो जातियों में द्वेष बढ़ाना है। मेरी राय में ऐसी पुस्तकों को दियासलाई दिखानी चाहिए।’’ (माधुरी, जून 1924)। इसी प्रकार पं. कालीचरण शर्मा की पैगंबर मुहम्मद के विरोध में लिखी गई पुस्तक पर प्रेमचंद की टिप्पणी थी कि ‘‘लज्जा औरखेद का विषय है कि कुछ प्रकाशक टके कमाने के फेर में पड़ कर ऐसी गंदी किताबें प्रकाशित कर रहे हैं।’’ (उपरोक्त) इस प्रकार के इस्लाम विरोधी अभियान का प्रतिकार करने के लिए ही प्रेमचंद ने ‘कर्बला’ नाटक लिखा और अपने मंतव्य का खुलासा कुछ यों किया, ‘‘कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुसलमानों के साथ रहने पर भी अभी तक हम लोग प्राय: उसके इतिहास से अनभिज्ञ हैं। हिंदू-मुसलिम वैमनस्य का एक कारण यह भी है कि हम हिंदुओं को मुसलिम महापुरुषों के सच्चरित्रों का ज्ञान नहीं। (कर्बला की भूमिका से, नवंबर 1924)
हिंदू धर्म की विषमतामूलक और भेदभाव से युक्त संरचना को अनावृत्त करते हुए प्रेमचंद ने समता और समानता पर आधारित समाजवादी व्यवस्था की खुले मन से प्रशंसा की। लाहौर की एक उर्दू पत्रिका ने जब रूसी क्रांति पर ‘रूस नंबर’ निकाला तो प्रेमचंद ने लिखा कि ‘‘वह कौन-सी ऐसी सामाजिक, राजनीतिक, भावनात्मक दशाएं थीं, जिन्होंने रूस में समष्टिवाद को स्थापित किया? इतने महान परिवर्तन केवल पुस्तकों से नहीं हो जाते।’’ (प्रताप, 7 अप्रैल 1936) उन्होंने अन्यत्र यह भी लिखा कि ‘‘यदि स्वाधीनता का अर्थ यह है कि जनसाधारण को हवादार मकान, पुष्टिकर भोजन, साफ-सुथरे गांव, मनोरंजन और व्यायाम की सुविधाएं, बिजली के पंखे और रोशनी और सस्ते सुलभ न्याय की प्राप्ति हो, तो इस समाज-व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया की किसी अन्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अगर पुरोहितों, पादरियों, मुल्लाओं की मुफ्तखोर जमात के दंभमय उपदेशों और अंधविश्वास जनित रूढ़ियों का अनुसरण है, तो निस्संदेह वहां इस स्वतंत्रता का अभाव है, पर धर्म स्वातंत्र्य का अर्थ यदि लोक सेवा, सहिष्णुता, समाज के लिए व्यक्ति का बलिदान, नेकनीयती, शरीर और मन की पवित्रता है, तो इस सभ्यता में धर्माचरण की जो स्वाधीनता है, और किसी देश को उसके दर्शन नहीं हो सकते।’’ (हंस, सितंबर 1936)
उल्लेखनीय है कि तर्क और वैज्ञानिक सोच से ओतप्रोत प्रेमचंद का ‘महाजनी सभ्यता’ शीर्षक यह लेख उनकी मृत्यु के चंद दिनों पूर्व ही लिखा गया था। इसके पूर्व मराठी लेखक रा. टिकेकर को दिए गए साक्षात्कार में प्रेमचंद ने साफ कहा था कि ‘‘मैं कम्युनिस्ट हूं… हमारे समाज में जमींदार, साहूकार, यह किसान का शोषण करने वाला समाज बिल्कुल रहेगा ही नहीं।’’ प्रेमचंद का यह साक्षात्कार खुद कमल किशोर गोयनका ने अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ के पहले खंड में संग्रहीत किया है। मेरे इस लेख में प्रयुक्त प्रेमचंद के सभी उद्धरण गोयनका जी की पुस्तक में शामिल हैं। काश उन्होंने अपनी पुस्तक में प्रेमचंद संबंधी सामग्री को संकलित करने के साथ-साथ उसे पढ़ा भी होता। अगर पढ़ते तो उन्हें प्रेमचंद के मार्क्सवादी रुझान की जड़ें नामवर सिंह की कम्युनिस्ट पार्टी में ढूंढ़ने की जहमत न उठानी पड़ती।
दो राय नहीं कि ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ उपलब्ध करा कर कमल किशोर गोयनका ने हिंदी साहित्य की सराहनीय सेवा की है। इस पुस्तक में संग्रहीत सामग्री स्वयं उनकी अपनी हिंदू ग्रंथि का खुलासा करने के लिए दुर्लभ स्रोत है। गोयनका जी को मलाल है कि नामवर जी आचार्य रामचंद्र शुक्ल क्यों न हुए! अच्छा ही है कि नामवर जी अभी तक आचार्य रामचंद्र शुक्ल होने से बचे हुए हैं। वरना वे भी शुक्ल जी की तरह लिखते- ‘‘योरप में नीची श्रेणियों में ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार का प्राबल्य हुआ, जिससे लाभ उठा कर ‘लेनिन’ अपने समय में महात्मा बना रहा।… ऊंची-नीची श्रेणियां समाज में बराबर थीं और बराबर रहेंगी। अत: शूद्र शब्द को नीची श्रेणी के मनुष्य का कुल, शील, विद्या, बुद्धि, शक्ति आदि सबमें अत्यंत न्यून का बोधक मानना चाहिए।’’ खतरा यही है कि कहीं नामवर जी आचार्य रामचंद्र शुक्ल न बन जाएं।
जनसत्ता से साभार।