यशदेव शल्य (26 जून, 1928- 31 जनवरी, 2021 )
ईश्वर दोस्त
दार्शनिक यशदेव शल्य नहीं रहे। हिंदी का ऐसा गौरव, जिसके बारे में हिंदी की दुनिया को सबसे कम पता है। एक मौलिक दार्शनिक, जो दर्शन के प्राध्यापकीय जगत के हाशिए में होने के बावजूद जगमग रहा।
इसी के साथ दर्शनशास्त्र की दुनिया का वह जयपुर वीरान हो गया। दयाकृष्ण एक दशक पहले ही चले गए। 2019 में राजेंद्र स्वरूप भटनागर, 2020 में मुकुंद लाठ। और अब यशदेव शल्य।
दुनिया किसी के लिए रुकती नहीं है। न बहस-मुबाहिसे, शोध रुकते हैं। नए लोग आते हैं। नए रुझान आते हैं। मगर कई बार कभी ऐसा चला जाता है, जो कभी नहीं लौटता। जैसे जयपुर में दर्शन के गूढ़ सवालों को लेकर शुरू हुई दोस्तों की चर्चा मंडली, जिसमें जिज्ञासु युवा भी जुड़ जाते थे।
इन लोगों से मिलकर पता चलता था कि दर्शन कोई अमूर्त, ठस वैचारिक कृत्य नहीं, उसमें खासी उत्तेजना और बतरस है। इस मंडली से आर.के. सक्सेना, गोविंद चंद्र पांडे, केजे शाह, अरंदिम चक्रवर्ती जैसे नाम भी कभी न कभी जुड़े रहे हैं। डीपी चट्टोपाध्याय और दुनिया भर के प्रोफेसर जहां आते-जाते रहे हैं।
जब शल्य जी के निधन की खबर मिली, मुझे दया जी के शिष्य और तेल अवीव यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डेनियल रवेह का ख्याल आया। जो हर साल निष्ठापूर्वक सर्दियों के दो महीने जयपुर में बिताते थे। कोरोना के चलते पिछले साल नहीं आ पाए। अब उन्हें कैसा सूनापन मिलेगा। और यादों के चलचित्र।
भोपाल में जब उन्हें पहली बार सुना था, वे भारत भवन में व्याख्यान देने आए थे। कई बार उनसे शंपा के घर पर मिलना हुआ। बाद में भोपाल में और फिर जयपुर में शल्य जी से हर मुलाकात में यही लगा कि वस्तुगतता और प्रश्नाकुलता कैसे मानवीकृत हो सकती है, जहां विचार विमर्श के लिए सहजता और एक अनोखा खुलापन हो।
मेरी जानकारी में ऐसा कोई दूसरा शख्स नहीं है, जिसने एमए, पीएचडी न की हो, जो कभी किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय की फैकल्टी में न रहा हो, जिसने सिर्फ हिंदी में दार्शनिक लेखन किया हो, फिर भी जिसका नाम दर्शन के इस्टेब्लिशमेंट को आखिरकार देश के शीर्ष दार्शनिकों में शुमार करना पड़ा हो।
पंजाब के फरीदकोट में जन्मे शल्य जी 1949 से 1965 तक यहीं के बलवीर हाईस्कूल में हिंदी के अध्यापक रहे। यहीं 1951 में एक दोस्त के पास उन्हें हेनरी बर्गसां की पुस्तक क्रिएटिव इवोल्यूशन्स दिखी, जिसे पढ़ते हुए उनका दर्शन से रिश्ता बन गया, जो आजीवन रहा। यहीं बर्ट्रेंड रसेल, कांट उन्हें दर्शन की अंजान राहों पर ले जाते गए।
तब तक महाराष्ट्र के आमलनेर में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फिलॉसफी की स्थापना 1916 में ही हो गई थी। 1917 में कोल्हापुर में इंडियन फिलॉसफिकल रिव्यू पत्रिका शुरू हो गई थी। 1925 में देश के प्राध्यापकों का पेशेवर संगठन इंडियन फिलॉसफिकल कांग्रेस शुरू हो गया था, जो अंग्रेजी में सोचता, बोलता था। इन संस्थाओं से ही शल्य जी को हिंदी में यह उद्यम शुरू करने की चुनौती मिली।
स्वतंत्र भारत में शल्य जी ने हिंदी में दर्शन की गतिविधियाँ शुरू करने का जो संकल्प लिया था, उसे समर्थन मिलना शुरू हुआ। डा. संपूर्णानंद, आचार्य नरेंद्र देव, प्रभाकर माचवे जैसे नायकों का प्रोत्साहन मिला। 1954 में शल्य जी ने अखिल भारतीय दर्शन परिषद की त्रैमासिक पत्रिका ‘दार्शनिक’ का प्रकाशन शुरू कर दिया। इलाहाबाद के प्रोफेसर संगमलाल पांडे के प्रयासों से 1956 में दर्शन परिषद का पहला अधिवेशन इलाहबाद में हुआ। शल्य जी व प्रो. संगमलाल शुरुआती सालों में दर्शन परिषद के आधार स्तंभ रहे। बाद में शल्य जी ने तत्त्व चिंतन, दर्शन समीक्षा और उन्मीलन पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
दर्शन परिषद इसलिए अनोखी है कि उसके दो संस्थापकों में से एक विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठान से बाहर से था। मगर और तमाम संस्थाओं की तरह ही धीरे-धीरे यह संस्था भी प्राध्यापक-सुलभ दाँव-पेंचों, कामनाओं और कैरियरोन्मुखी सहज वृत्तियों का शिकार होती गई। वह दार्शनिक पत्रिका भी अपने निस्तेज, औपचारिक या बौद्धिक-नौकरशाहाना रूप में अब भी हर साल निकलती है।
हालांकि दर्शन परिषद को इस बात की मुबारकबाद दी जानी चाहिए कि करीब चार साल पहले अपने जोधपुर अधिवेशन में उन्होंने शल्य जी को लाइफ-टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया। और शल्य जी को बहुत मानने वाले प्रोफेसर अंबिकादत्त शर्मा के प्रयासों से शल्य जी का समग्र लेखन चार खंडों में डीके प्रिंटवुड से 2017 में प्रकाशित हुआ।
फरीदकोट के बाहर जयपुर में ही शल्य जी को दयाकृष्ण, मुकुंद लाठ जैसे आजीवन दोस्त मिले, गुण ग्राहक मिले, दर्शन का एक संपन्न माहौल मिला। और शल्य जी जयपुर के हो कर रह गए। उनके अंतिम दिन भी पी-51, मधुवन पश्चिम, किसान मार्ग, टोंक रोड, जयपुर में गुजरे। वे आजीविका के लिए राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी में काम करते थे, जिसकी शुरुआत राजस्थान विवि में सामाजिक विज्ञान हिंदी रचना केंद्र के रूप में हुई थी।
जब जयपुर में उनका सम्मान हुआ तो धीरे-धीरे इंडियन कौंसिल ऑफ फिलासफिकल रिसर्च ने हिंदी में पुस्तक छापने का अपना संकोच खत्म किया। शल्य जी की बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के मध्यमक शास्त्र और विग्रहव्यावर्तनी पर लिखी टीका 1990 में आईसीपीआर ने प्रकाशित की। उन्हें आईसीपीआर व आईसीएसएसआर दोनों की वरिष्ठ फैलोशिप भी मिली। पंजाब विश्वविद्यालय ने कुछ समय के लिए विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया। उन्हें केके बिड़ला फाउंडेशन का शंकर पुरस्कार, ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी पुरस्कार, दर्शन परिषद का प्रणवानंद पुरस्कार और कई अन्य पुरस्कार मिले।
शल्य जी के नाम के साथ हिंदी में दर्शनशास्त्र की विडंबना भी जुड़ी हुई हैं। उनकी एक दर्जन से ज्यादा पुस्तकें हैं। उनके द्वारा संपादित कई पत्रिकाएं हैं। अनेक लेख हैं। सभी हिंदी में।
हिंदी में दर्शन और समाज विज्ञान को प्रतिष्ठित करने के तमाम उद्यम अब तक सिरे क्यों नहीं चढ़े, यह एक अलग ही और लंबी कहानी है। उसमें जाए बगैर शल्य जी के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि चंद व्यक्तियों और दर्शन विभागों को छोड़कर प्राध्यापकीय दर्शन जगत की हिंदी में मौलिक चिंतन, सृजन को बढ़ावा देने में कोई खास रुचि नहीं है। परीक्षापयोगी और सेमिनारोपयोगी सामग्री ज्यादा प्रचलित है। ज्यादा मौलिक काम नहीं है और स्वतंत्रता बाद अनुवादों की जो लहर आई थी, वह ठंडी पड़ गई है। इस दुनिया में शल्य जी एक औपचारिक उपस्थिति और ज्यादा हुआ तो श्रद्धा के पात्र भर हैं।
दर्शन विभागों के गलियारों से इतर देखें तो प्रतिमान जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी में काम करने वाले समाज विज्ञान के प्रतिष्ठानों व विभागों की दर्शन में रुचि उपियोगितावादी ज्यादा है। कभी जरूरत पड़ती भी है तो अंग्रेजी में पका-पकाया ही नहीं, प्रि-डाइजेस्टेड माल तक मिल जाता है।
हां यह जरूर है कि शल्य जी को पढ़ने के लिए दर्शन की परंपराओं से न्यूनतम परिचय जरूरी है या यह संकल्प जरूरी है कि अंतर्पाठीयता के धैर्य और अभ्यास के साथ उन्हें पढ़ा जाए। केसी भट्टाचार्य बांग्ला में हो सकते हैं तो शल्य जी तो उनसे कठिन नहीं हैं। संयोग से भट्टाचार्य की मूल बांग्ला में लिखी ‘कांटदर्शनेर तात्पर्य’ का अंग्रेजी अनुवाद (जेएन मोहंती व तारा चटर्जी द्वारा) ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से 2011 में और हिंदी अनुवाद (मुकुंद लाठ द्वारा) राजकमल- रज़ा फाउंडेशन से 2020 में आया है। तुलना करें तो शीशे की तरह साफ हो जाएगा कि शल्य जी की कठिन हिंदी एक हौवा है या हिंदी की सामूहिक आत्म-प्रवंचना। वैसे भी वे दार्शनिक हैं, आलोचक नहीं।
शल्य जी को पाठक मिलने में एक और समस्या है। हिंदी में दर्शन और विचारधारा के घालमेल से एक पाठकीय उपियोगितावाद का भी असर रहता है, जो एक्टिविज्म या आलोचना के लिए तुरंत आपूर्ति चाहता है। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि मार्क्स, सार्त्र, फ्रेंकफुर्ट स्कूल के विचारकों ने कभी यह नहीं कहा कि अपने जैसे विचारों को ही पढ़ो। एंगेल्स ने तो यह कहा था कि दर्शन सीखने का एकमात्र तरीका है कि विवादों के बीच कोई संकल्पना कैसे बदलती चलती है, यह जानें और दर्शन का इतिहास यानी उनके उत्तरोत्तर वाद-विवाद समझें।
गोविंद चंद्र पांडे ने लिखा था-‘अब वे न प्रत्ययवादी हैं, न भौतिकवादी, न प्रचलित अर्थ में अध्यात्मवादी। यद्यपि उसे परिभाषित करना कठिन है, किंतु उसे सामान्यतया सर्जनात्मक मानववादी या सर्जनात्मक भाववादी, बुद्धिवादी या तत्त्ववादी कहा जा सकता है। पर शल्य जी अपनी धारणाओं को निरंतर परिभाषित और विश्लेषित करते रहे हैं।’
मुकुंद लाठ लिखते हैं-
‘समकालीन चिंतन में यशदेव शल्य का स्थान विलक्षण है। वे गहराई के साथ आधुनिक हैं, और अपनी आधुनिकता में पूरे भारतीय।… शल्य जी की प्रौढ़, प्रांजल तत्त्व-दृष्टि सृजन तत्त्व को ही अपने प्रसार का आधार बनाती है, उपनिषदों के आलोक में एक अपूर्व वेदांत का विकास करती है— जो अद्वैत के मायावाद से हटकर मानव और उसकी प्रवृत्तियों में सत्य-अन्वेषण की गति देखती है, उसे परखती है।’
नामवर सिंह की कृति ‘वाद विवाद संवाद’ में एक जगह शल्य जी से भी संवाद दिखता है। सर्जनशील आलोचक के मूल्यांकन की प्रणाली व विशिष्ट शब्दावली के विकास की प्रक्रिया पर बात करते हुए वे कहते हैं:-‘इस प्रयास में उसके सम्मुख, जैसा कि श्री यशदेव शल्य ने कहा है: “सबसे बड़ी चुनौती ‘युक्तता’ की होती है। आलोचना यदि मूल्यांकन है तो आलोचना का प्रत्येक मूल्य-निर्णय युक्तता की जांच के लिए खुला हुआ है।” श्री शल्य ने अत्यंत युक्तिसंगत ढंग से यह प्रतिपादित किया है कि यदि एक ओर निर्णयों का युक्तता-प्रसंग गोलाकार होता है तो दूसरी ओर मूल्य-संबंधी निर्णयों की स्थिति तथ्य-संबंधी निर्णयों से भिन्न होती है। दार्शनिक वाद-विवाद के बीच से उपलब्ध ये दार्शनिक विचार-सूत्र साहित्य की आलोचना के लिए अत्यंत मूल्यवान साबित हो सकते हैं।…’
ईश्वर दोस्त के फ़ेसबुक पेज से साभार प्रकाशित।