सौम्या गुप्ता, मॅथ्यू कुर्याकोस
“जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं…”
कबीर के इस दोहे में अंत का ज़िक्र करता है। दोहे में लिखा है कि इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा ही। कश्मीर की एक युवा कवयत्री आथेर ज़िया भी लिखती हैं कि “मेरी चाय में चीनी मत डालना, एक सुकून और मिठास है यह जानने भर में कि हर साम्राज्य टूट कर बिखर जाता है।” इस लेख का शीर्षक मैं जूलीयन बांस द्वारा लिखी गयी मेरी पसंदीदा किताब “द सेन्स ऑफ़ ऐन एंडिंग” के आधार पर “अंत का अहसास” रखना चाहती थी, पर कबीर याद आये तो मन ललचा सा गया। तो ज़नाब यह है अंत का अहसास – यह अहसास आपको भी हो, उसके लिए थोड़ी लम्बी भूमिका बाँधनी होगी। कहीं से तो शुरू करना होगा, तो चलिये यहीं से शुरू करते हैं।
गुरुवार, 24 अक्टूबर को भारतीय जनता पार्टी के किसान मोर्चे के पूर्व अध्यक्ष तरलोचन सिंह गिल ने कृषि क़ानूनों को लेकर पार्टी से अपनी असहमति जताते हुए, इस्तीफ़ा दे दिया। गिल के मुताबिक़ “मैं पहले एक किसान हूँ ,बाद में एक नेता। किसानों का आंदोलन मेरे ज़मीर को कचोट रहा था।” इससे पहले शनिवार, 17 अक्टूबर को पंजाब भाजपा के महासचिव मालविंदर सिंह कंग ने कृषि विधेयकों के विरोध में पार्टी से इस्तीफा दिया था। कंग ने इस्तीफ़ा देते हुए कहा कि उन्होंने पार्टी की प्रादेशिक और राष्ट्रीय लीडरशिप से बहुत अनुरोध किया था कि वो लोग आंदोलनकारी किसानों की माँगें सुन लें पर किसी की तरफ़ से कोई सकरात्मक पहल देखने को नहीं मिली। इन इस्तीफ़ों की शृंखला में एक और नाम जुड़ा हरियाणा भाजपा के नेता और पूर्व विधायक श्याम सिंह राणा का। विधायक राणा ने भी कृषि क़ानूनों के विरोध में बुधवार, 30 सितम्बर को पार्टी से अपना त्यागपत्र दे दिया। इस सिलसिले की शुरुआत तब हुई जब केंद्रीय मंत्री और भाजपा के लम्बे समय से सहयोगी रही अकाली दल की सांसद, हरसिमरत कौर बादल ने मोदी कैबिनेट से 17 सितम्बर को इस्तीफ़ा दिया। इस्तीफ़ा देने के बाद उन्होंने ट्वीट किया था- “मैंने केंद्रीय मंत्री पद से किसान विरोधी अध्यादेशों और बिल के ख़िलाफ़ इस्तीफ़ा दे दिया है। किसानों की बेटी और बहन के रूप में उनके साथ खड़े होने पर मुझे गर्व है.”
ये पहला वाक़या नहीं है जब हिंदुत्व कैम्प में टकराव या दरार देखने को मिली हो। एक बड़ी दरार की मिसाल तो महाराष्ट्र के विधान सभा चुनावों के दौरान ही देखने को मिल गयी थी। तीस साल से भी ज़्यादा समय से भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक और आधिकारिक सहयोगी रही शिव सेना ने महाराष्ट्र चुनावों के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन में शामिल होकर राज्य में सरकार बनाने का निर्णय लिया। पंजाब में उभरे मतभेद हों या महाराष्ट्र में सामने आयी दरारें, किसी भी राजनैतिक विचारक का इन्हें मात्र अवसरवाद या मौक़ापरस्ती की श्रेणी में रख देना न केवल सामान्य दर्जे का बल्कि एक बेईमान विश्लेषण भी होगा। यह कहीं न कहीं एनडीए में शामिल क्षेत्रीय सामाजिक गुटों की भाजपा से स्थानीय मुद्दों को लेकर गहराते मनमुटाव का नतीजा है। 1970 के दशक में जब शिव सेना ने “सन ऑफ़ स्वायल” वाली राजनीति में हिंदुत्व का तड़का डाला तो धीरे-धीरे संघ की राजनीति के क़रीब आने लग गयी। पर आज जब भाजपा ख़ुद राम मंदिर के बाद हिंदुत्व ब्राण्ड के लिए नए मुद्दे तलाश रही है, स्वाभाविक है कि क्षेत्रीय संघर्ष से निकले ल भी अपने लिए नयी ज़मीन तलाशें।
वैसे भी एनडीए में भाजपा के वर्चस्व को देखत हुए अन्य दलों को अपना अस्तित्व बचाये रखना मुश्किल हो जाता है और यह तनाव उसका भी संकेत है। केंद्र की मोदी सरकार को भले ही ‘एनडीए सरकार’ कहा जाता है लेकिन इस समय 53 सदस्यों वाले केंद्रीय मंत्रिपरिषद में सहयोगी दल का सिर्फ़ एक नेता शामिल है। वह हैं रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के सदस्य रामदास आठवले। योगेन्द्र यादव अपनी किताब “मेकिंग सेन्स ऑफ़ इंडियन डेमोक्रेसी” में लिखते हैं कि इस तरह के आंतरिक संघर्ष भाजपा को भले मौलिक आधार पर चुनौती न दें परंतु उसके वर्चस्व और प्राधान्य की गति को धीमा ज़रूर कर देंगे। इन तमाम क़िस्सों के बावजूद यह नहीं भुलाया जा सकता कि 2019 में भाजपा ने किस स्तर और किस पैमाने पर जीत हासिल की थी।
इस दरारों की फ़ेहरिस्त में एक और नाम जो हाल ही में शामिल हुआ है , वो है गोरखा जन्मुक्ति मोर्चे के नेता बिमल गुरुंग का। बिमल ने कहा कि केंद्र सरकार ने अपने वादों के अनुसार अभी तक 11 गोरखा समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल नहीं किया है। एनडीए से अलग होते हुए उन्होंने कहा कि “केंद्र ने अपने वादों को पूरा नहीं किया लेकिन ममता बनर्जी ने अपने सभी वादों को पूरा किया है। इसलिए, मैं खुद को एनडीए से अलग करना चाहूंगा, मैं बीजेपी के साथ अपने संबंध तोड़ना चाहूंगा। 2021 के बंगाल चुनाव में हम टीएमसी के साथ गठबंधन करेंगे और बीजेपी को जवाब देंगे।” क़िस्सा यहाँ ख़त्म नहीं हो जाता है। त्रिपुरा में भी भाजपा के लिए नई मुश्किल खड़ी हो गई है। मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब को तानाशाह बताते हुए, उन्हें हटाने की मांग लेकर कुछ विधायक अक्टूबर की शुरुआत में दिल्ली गए थे। बग़ावत करने वाले विधायकों का नेतृत्व सुदीप रॉय बर्मन कर रहे थे। बर्मन ने कहा कि “बिप्लब देब का रवैया तानाशाह जैसा है और उन्हें पर्याप्त अनुभव भी नहीं है, इसलिए उन्हें पद से हटाया जाना चाहिए।” त्रिपुरा की 60 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा के 36 विधायक हैं, ऐसे में यदि सुदीप रॉय बर्मन का दावा सही है तो भाजपा के लिए सरकार को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा।
‘बात निकली है तो दूर तलक जाएगी,’ ऐसा ही कुछ हाल है भाजपा के अंदर दर्ज होते विद्रोहों का। त्रिपुरा की तरह ही बंगाल भाजपा में भी आंतरिक गुटबाज़ी की मुहिम थमने का नाम ही नहीं ले रही है। प्रदेश भाजपा में कुछ नयी नियुक्तियाँ की गयी हैं। जैसे कि 2017 में टीएमसी से भाजपा में शामिल हुए मुकुल रॉय को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है। क़रीब ढाई दशक बाद बंगाल के किसी व्यक्ति को भाजपा में उपाध्यक्ष के पद से नवाज़ा गया है। वहीं भाजपा के एक पुराने, मंझे हुए और अनुभवी नेता राहुल सिन्हा के बदले में अनुपम हज़ारा जैसे एक न्यूकमर को राष्ट्रीय सचिव नियुक्त किया गया है। राहुल सिन्हा ने अपना विरोध दर्ज करते हुए ट्विटर पर एक विडीयी साझा किया और कहा “मैंने भाजपा की चालीस साल सेवा की है। और बदले में मुझे अपनी जगह टीएमसी से आने वालों के लिए छोड़नी पड़ रही है, इससे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है?” इस मनमुटाव के दौर में जब अगले साल बंगाल में चुनाव होंगे तो कहीं ऐसी बातें तिल का ताड़ न बन जायें और मंदिर की घंटी की आड़ में ख़तरों की घंटी दब न जाये।
इसी क्रम में अक्टूबर के ही महीने में महाराष्ट्र में भाजपा के एक मंझे हुए और अनुभवी नेता एकनाथ खड़से ने भी पार्टी छोड़ कर एनसीपी का दामन थाम लिया है। वैसे इस तरह के किसी भी विरोध से दो तरह की बातों को जगह मिलती है। पहली, एक तो लम्बे समय से चुप्पी साधे असंतुष्ट सदस्यों को साहस मिलता है और दूसरा उन्हें एक मौक़ा भी मिलता है कि वो इस तरह के विरोधों को ‘लॉन्च पैड’ बना अपना विद्रोह भी दर्ज करा सकते हैं। वहीं केरल में भी पार्टी से असंतुष्ट, पी.सी. टॉमस खेमे ने भी भाजपा से टूटकर कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ गठबंधन में शामिल होने का निर्णय ले लिया है। इससे पहले भी अतीत में अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघन सिन्हा जैसे तमाम बड़े नामों ने भाजपा से दूरी बनायी थी। परंतु वो कभी एक बुद्धिजीवी आलोचक से ज़्यादा नहीं बन पाए। पर खड़से जैसे नेता जो उत्तरी महाराष्ट्र में अच्छा जनाधार सम्भालते हैं, उनका जाना सिर्फ़ आलोचना तक सीमित नहीं रह जाएगा ।
दुष्यंत कुमार की लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ याद आ जाती हैं
“आज ये दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए ”
पर क्या बुनियाद हिल रही है? 11 जून, 1945, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सातवें राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन के दौरान, कम्युनिस्ट दल के नेता और राजनैतिक विचारक माओ ज़ेदोंग ने अपने भाषण के आख़िरी हिस्से में एक चीनी लोक कथा का ज़िक्र किया था। यह प्राचीन पौराणिक लोककथा एक मूर्ख बूढ़े आदमी के बारे में थी। एक ऐसे मूर्ख बूढ़े आदमी के बारें में जो पहाड़ हटाना चाहता था। कहानी कुछ इस प्रकार है “बहुत पुरानी बात है, उत्तरी चीन में एक बूढ़ा आदमी रहता था। उनका घर दक्षिण की ओर था और घर के प्रवेश द्वार के तरफ़ दो बड़े पहाड़ थे, ताइआंग और वांग्यू। यह पहाड़, रास्ते के अवरोधक साबित हो रहे थे। बूढ़े आदमी ने बहुत ही दृढ़ता से निर्णय लिया कि वो ये पहाड़ खोद लेंगे। उन्होंने अपने बेटों को बुलाया, कुदाल उठाया और लग गए खोदने में। एक सफ़ेद दाढ़ी वाले “समझदार” बूढ़े आदमी ने यह सब देखा तो थोड़े बिदक से गये और मुँह बिचकाते हुए बोले “यह कितना मूर्खतापूर्ण कार्य है। ऐसा सोचना भी कि तुम ये दोनो पहाड़ खोद पाओगे लगभग नामुमकिन है।” तब मूर्ख बूढ़े आदमी ने जवाब दिया “जब मैं मर जाऊँगा, तब मेरे बेटे इसे खोदने का काम करते रहेंगे; जब वह मर जाएँगे तो मेरे पोते ये करेंगे और उसके बाद उनके बेटे फिर उनके पोते। और अनंतकाल तक यह काम चलता रहेगा। भले ही कितने भी ऊँचे हो यह पहाड़, यह और ऊँचे हो नहीं सकते और हम जितना इन्हें खोदेंगे यह उतने ही कमज़ोर और छोटे होते रहेंगे। तो हम कैसे मान लें कि यह पहाड़ हम मिलकर हटा नहीं सकते?” यह कहकर और दाढ़ी वाले “समझदार” बूढ़े आदमी की बात को नज़रंदाज़ करते हुए, “मूर्ख” बूढ़ा आदमी बिना विचलित हुए अपने काम में लग गया। भगवान ने “मूर्ख” बूढ़े के अटल और अड़िग विश्वास को देखते हुए मदद भेजी और अंततः दोनो पहाड़ रास्ते से हटाए गए।”
माओ ने कहानी सुनाकर कहा था कि “चीन के लिए वो दोनो पहाड़ मूल रूप से ‘सामन्तवाद’ और ‘साम्राज्यवाद’ हैं। इन्हें भी हम रास्ते से हटा सकते हैं। हम भी हमारे जिद्द और धैर्य से हमारे भगवान अर्थात हमारी चीन की जनता के दिल तक पहुँच सकते हैं। अगर वो हमारे साथ खड़ी हो गयी तो सामन्तवाद और साम्राज्यवाद के इन पहाड़ों को हटाना क्या मुश्किल होगा?”
माओ की इस कहानी का सार और भाजपा से इस्तीफ़ों और तनावों की लम्बी होती फ़ेहरिस्त में एक संभावना की ओर इशारा है। और वह यह कि भाजपा शायद अजेय नहीं है। इसका सबूत तो गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली में हुए चुनाव ख़ुद हैं, जहाँ भाजपा को दातों तले चने चबाने पड़ गए थे।
और यह पहली बार है कि हम एक स्तर पर पंजाब से लेकर केरल तक न केवल भाजपा में आंतरिक दरारें देख रहे हैं परंतु हम एनडीए के गठबंधन को टूटता और कमज़ोर होता हुआ भी देख रहे हैं। पिछले साल टाइम मैगज़ीन ने अपने मई के अंक में मोदी को “भारत का डिवाइडर इन चीफ़” कहकर सम्बोधित किया था। हम इस शीर्षक से कम ही इत्तेफ़ाक रखते हैं क्योंकि देखा जाये तो मोदी-शाह की राजनीति ने अब तक बहुसंख्यक तबके को जोड़ा ही है। उन्होंने एक ‘ऑल इन्कलूसिलव हिंदुत्व प्लाट्फ़ार्म’ खड़ा किया है। ख़ून और मिट्टी की राजनीति या “पॉलिटिक्स ऑफ़ ब्लड एंड स्वायल” के चलते भाजपा ने बहुसंख्यक तबके को अल्पसंख्यक तबक़ों के ख़िलाफ़ इकट्ठा किया है। फिर चाहे वो एनआरसी-सीएए क़ानून, राम मंदिर और धारा 370 के आड़ में मजॉरिटी को मुस्लिम माइनॉरिटी के ख़िलाफ़ एकत्र करना हो या फिर गौ-रक्षा की आड़ में दलित समुदायों को और हाशिये की तरफ़ धकेल कर मजॉरिटी की मनुवादी मानसिकता को सशक्त करना हो।ऐसा हमने नाज़ी जर्मनी में भी देखा है जहाँ दक्षिणपंथी ताक़तें न केवल ख़ून की शुद्धता को बरक़रार रखने की बात करती थीं बल्कि अपने मक़सद को हासिल करने के लिए ‘मिट्टी पर एकाधिकार’ भी माँगती थीं।
लेकिन यह ‘सम्पूर्ण हिंदुत्व समावेशी अनंत सनातन सपना’ अब टूट क्यों रहा है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि महामारी और चीनी घुसपैठ ने मोदी सरकार को एक सांस्कृतिक हिंदुत्व प्रोजेक्ट से दूर ले जाकर, आर्थिक और भौतिक मामलों में दख़ल देने पर मजबूर कर दिया है- जैसे आत्मनिर्भर अर्थ व्यवस्था, कृषि विधेयक, श्रम क़ानून। अब सिर्फ़ राष्ट्रवाद को नहीं राष्ट्र को भी मज़बूत करना होगा। इसे हम रोटी की राजनीति भी कह सकते हैं जिसमें विभाजन निहित है, क्योंकि ‘रोटी पर सबका हक़ है’- यह एक संगठित करने वाली बात है, पर रोटी किसको पहले, कितनी और कैसे मिलेगी, यह अपने आप में ही एक विभाजित करने वाला ख़याल है! रोटी का सवाल आज भी क्रांति की शुरुआत का एक व्यापक स्रोत है। और जैसा हमारे एक दोस्त ने कहा था कि क्रांति एक दिन में नहीं, एक बार में नहीं, पर हर बार लगातार प्रयास से, प्रतिदिन थोड़ी-थोड़ी करके आ ही जाती है। हार और जीत के बारे में भी हमें कुछ ऐसा ही लगता है। तो शायद रोटी के सवालों में घिरकर भाजपा की हार भी दिन-दिन करके, थोड़ी-थोड़ी करके क़रीब आ जाए। और जब तक हार नहीं आती तब तक ये तमाम दरारें भाजपा की कमज़ोरियों को तो उजागर करती ही रहेंगी। अब विपक्ष को देखना है वो इस थके हुए ख़रगोश के साथ क्या करता है?
तो जैसे हमने कबीर के दोहे से शुरुआत की थी, लेख का अंत भी कबीर के दोहे से करेंगे-
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय !
यह लेख सौम्या गुप्ता और मॅथ्यू कुर्याकोस (ऊपर तस्वीर) ने मिलकर लिखा है। मॅथ्यू कोलकाता में राजनीति पढ़ाते हैं। सौम्या मीडिया विजिल की असिस्टेंट एडिटर हैं।