विश्लेषण: मैं राहुल गाँधी को गंभीरता से क्यों लेना चाहता हूँ?

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राकेश कायस्थ

राहुल गाँधी को मैंने हमेशा उसी नज़रिये से देखा है, जिस तरह कोई पत्रकार (स्टार एंकर नहीं) देख सकता है। यानी मेरा नज़रिया हमेशा विश्लेषणात्मक रहा है। 2009 की जादुई जीत के बाद सुपर स्टार के तौर पर उभरने से लेकर, अन्ना आंदोलन के साथ उनके करियर में आयी पहली बड़ी फिसलन के बाद लगातार पराभव के हर बिंदु पर मेरी नज़र रही है।

राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक उपस्थिति बनाये रखने के अनेक कच्चे-पक्के प्रयास, तरह-तरह के सलाहकारों पर आजमाये गये नाकाम नुस्खे, राजनीति से मोहभंग के कई दौर और रहस्मय छुट्टियाँ, इन तमाम बातों को भी मैंने ठीक से नोटिस किया है।

2012 से 2017 के बीच राहुल गाँधी पर मैंने विश्लेषणात्मक लेख नहीं के बराबर लिखे हैं। वे सिर्फ मेरे व्यंग्य लेखों का विषय रहे हैं। 2017 का गुजरात चुनाव राहुल गाँधी के करियर का एक अलग तरह का टर्निंग प्वाइंट था, जहाँ उन्होंने जान लड़ाने का जज्बा दिखाया। उसके बाद से राहुल की पूरी राजनीति में एक तरह की कंसिस्टेंसी रही है।
कंसिस्टेंसी से मेरा आशय पब्लिक प्लेटफॉर्म पर उनकी संवाद शैली और उठाये गये मुद्धो से है, काँग्रेस पार्टी की अंदरूनी राजनीति और उनका अध्यक्ष पद छोड़ने जैसे मामलों से नहीं।

राहुल गाँधी को ब्रांड पप्पू में बदले जाने के अनथक प्रयासों के बारे में भी मेरे पास बहुत सी दिलचस्प कहानियाँ हैं, जो पत्रकार रहते हुए मैंने देखी हैं और विरोधी पार्टी वाले विश्वस्त सूत्रों के मुँह से सुनी है। लेकिन ये कहानियाँ इस लेख का विषय नहीं है।

मैंने राहुल गाँधी को मैंने पप्पू कभी नहीं माना। मेरे लिए उनकी आलोचना के तीन बड़े आधार रहे हैं। पहला यह कि 2010 के बाद से राहुल ज्यादातर वक्त (कम से कम 2017 तक और 2019 के बाद भी कुछ समय) एक reluctant politician की छवि में कैद नज़र आये हैं।

कई बार ऐसा लगा कि राजनीति उनके बस की नहीं है। अपने बेस्ट फॉर्म में वो किसी एनजीओ के जोशीले कार्यकर्ता और वर्स्ट फॉर्म में कोई ऐसे व्यक्ति लगे जो अपने लिए एक खास तरह की इमेज गढ़ने की कोशिश कर रहा है और नाकाम हो रहा है।

मेरी आलोचना का तीसरा आधार राजनीति सफल होने के लिए ज़रूरी किलर इंस्टिंक्ट का ना होना है, जिसे आप शुद्ध देशी भाषा में कमीनापन भी कह सकते हैं।

अगर किसी व्यक्ति में ये बातें ना हों, तो आप इस बात का विश्लेषण कर सकते हैं कि वह राजनीति में सफल होगा या नहीं होगा। लेकिन क्या आप उसे राजनीति में होने से रोक सकते हैं? कनस्तर पीटकर पप्पू-पप्पू चिल्लाते लोग लगभग एक दशक से राहुल गाँधी के पीछे हैं लेकिन उसके बावजूद राहुल गाँधी ने ना तो कभी रियेक्ट किया और ना कभी मैदान छोड़ा।

संघर्ष और नाकामी का इतना लंबा दौर झेलकर मैदान में बने रहने के लिए जो मानसिक मजबूती चाहिए वो कितने राजनेताओं में है? भारत में कोई दूसरा ऐसा राजनेता नहीं है जो पत्रकार और पेशेवर ट्रोल्स की भीड़ में जाकर उनकी बातें सुने और सवालों के जवाब दे। कोई ऐसा राजनेता नहीं है, जो अपनी गलतियाँ सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करे और सीखने की कोशिश करता हुआ दिखाई दे।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रतिपक्ष का नेता देश के सबसे बड़े सवालों पर सिलसिलेवार तरीके से अपनी बात रखे और मीडिया सिरे से गोल कर जाये तो आप समझ सकते कि डेमोक्रेसी और फ्रीडम ऑफ प्रेस किस हालत में है।

कोरोना संकट के बाद से राहुल गाँधी ने लगातार रचानात्मक सुझाव दिेये हैं। प्रधानमंत्री मोदी या सरकार के किसी मंत्री के बारे में एक शब्द नहीं कहा है। क्या किसी ने इन सुझावों पर (आलोचनात्मक दृष्टि से ही सही) गौर किया है?

बीजेपी ने हर बार काउंटर करने के लिए अपने गालीबाज मंत्रियों और प्रवक्ताओं की फौज उतारी है और प्रधानमंत्री मोदी ने लगातार यही संदेश देने की कोशिश की है कि देखो तुम्हे औकात बताने के लिए यही लोग काफी हैं। लेकिन औकात असली में भारतीय लोकतंत्र को बताई जा रही है।

पूरी तरह बिक चुकी पत्रकारिता, प्रोपैगैंडा महामशीन, सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग और छह साल में तैयार की गई नफरती भीड़ के सामने जो अकेला आदमी सीना तानकर खड़ा है, वो मेरे लिए पप्पू नहीं बल्कि इस देश में लोकतंत्र की सबसे बड़ी उम्मीद है।

राहुल गाँधी की अगर आलोचना होनी है, तो उनके पॉलिटिकल कंटेट को लेकर होनी चाहिए? लेकिन सवाल ये है कि क्या उनके विरोधियों की कंटेट बेस्टड पॉलिटिक्स में रूचि है? क्या आपने कभी ये देखा है कि न्याय जैसी स्कीम या कोरोना से निपटने के कांग्रेस के सुझावों पर बीजेपी के किसी बड़े नेता ने तार्किक ढंग से कोई आलोचनात्मक बात कही हो? नहीं कह सकते क्योंकि क्षमता नहीं है और मौजूदा राजनीति में इसकी ज़रूरत भी नहीं रह गई है।

बीजेपी के समर्थकों को लगता है कि लड़ाई `महाबली बनाम पप्पू ‘ बनी रहे तो वो चुनाव दर चुनाव जीतते जाएंगे। मैंने अपने एक सत्ताधारी मित्र से पूछा था कि जीत जाओगे लेकिन उसके बाद करोगे क्या? वे बगले झांकने लगे। मुझे नहीं लगता है कि जवाब शीर्ष नेतृत्व के पास भी होगा।

खैर इतनी लंबी-चौड़ी बातें सिर्फ इसलिए कर रहा था कि नेता प्रतिपक्ष के तौर पर राहुल गांधी को ना सही बल्कि उनके कंटेट को वाजिब सम्मान मिलना चाहिए। उन मुद्धों पर बात होनी चाहिए जो वो उठा रहे हैं। इसलिए मैं आनेवाले दिनों में राहुल गाँधी की राजनीति पर विश्लेषाणात्मक रूप से लगातार लिखूँगा।

राजनीति के अध्येयताओं के अलावा कम जानकारी रखने वाले शालीन किस्म के उत्सुक लोगों के साथ भी संवाद संभव है। लेकिन ट्रोल्स के मुँह मैं नहीं लगता। जिसे मुद्धों पर बात ना करके सिर्फ नमो संकीर्तन करना है, वो अलग से संपर्क करके चाहे तो मुझसे कोई पैरोडी भजन लिखवा दे और सुबह शाम गाये। लेकिन मेरे वॉल पर अपना वक्त बर्बाद न करे।

 


लेखक चर्चित व्यंग्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह टिप्पणी उनकी फ़ेसबुक वॉल से साभार।