पूंजीपतियों के दान की अक्सर बड़ी महिमा गाई जाती है। अव्वल तो दान आर्थिक और परिणामस्वरूप सामाजिक असमानता को दूर करने का कोई उपाय नहीं है। दूसरे दान, दान देने वालों को अहंकार से और लेने वालों को हीन भावना से भर देता है। बावजूद इसके सारे दानदाता दान के नाम पर बड़ा खेल खेलते हैं।
दान देकर टैक्स में छूट ले लेते हैं, यानि देश को मिलने वाला राजस्व इस दान के कारण कम हो जाता है। दूसरे दान अपने ही ट्रस्ट या फाउंडेशन को देते हैं जिसका पैसा घूम कर इन्हीं के व्यवसाय में ख़र्च होता है। ये न भी हुआ तो भी ऐसे काम करते हैं जिससे कंपनी की ब्रॉन्डिंग और मार्केटिंग होती है।
सही मायने में ये दान भी तब दान होगा जब इसके बदले टैक्स रिलीफ न लिया जाए और पैसे को सीधे देश/ सरकार को दे दिया जाए जहाँ से इसका इस्तेमाल शिक्षा और सेहत जैसी बुनियादी जरूरतों पर हो।
अजीम प्रेम जी देश के सबसे बड़े दानदाता पूंजीपति हैं। एक कल्पना कीजिये, ये अपने एक साल के दान से 50 अस्पताल खोल दें जो पूरी तरह निःशुल्क हो, बाकी हर साल दिए जाने वाले दान से इसका ख़र्चा चलता रहे। सोच कर देखिये की अगर सारे कॉरपोरेट 10 -10 अस्पताल चलाने लगे तो हज़ारों लोगों को बेहतर इलाज मिल जाएगा लेकिन ये ऐसा नहीं करते।
अजय पिरामल, आदित्य विड़ला और अजीम प्रेमजी जैसे कई पूंजीपति हैं जो सैकड़ों करोड़ रूपये शिक्षा पर ख़र्च करते हैं, लेकिन ये खर्च ऐसा बिल्कुल नहीं होता कि किसी समूह या किसी इलाके के लोगों की शिक्षा की ज़रूरत बिना किसी अतिरिक्त व्यवस्था के पूरी हो जाये। ऐसे में इस दान का उपयोग क्या है ? समय हो तो एक सर्वे कीजिये। किसी ऐसे इलाके को चुनिए जहां कुछ या एक NGO किसी एक मुद्दे पर 10 साल से काम कर रहे हों, उदाहरण के लिए शिक्षा या स्वास्थ्य पर। अब देखिए कि बेस इयर, यानी जब काम शुरू किया गया था तब उस इलाके में शिक्षा की क्या स्थिति थी और अब 10 साल बाद क्या स्थिति है ? आप पाएंगे कि या तो इतने दिन काम का कोई फायदा ही नहीं हुआ या बहुत कम हुआ। इस मामले में कोई रिपोर्ट न पढियेगा, रिपोर्ट बड़ी चतुराई से बनती है। खुद पहल कर देखिये तो ही सही तश्वीर पता चलेगी। एक और बात, कहीं कहीं आपको बड़ा परिवर्तन भी दिख सकता है लेकिन ये वैसे ही है जैसे सिस्टम बड़े अन्याय से ध्यान हटाने के लिए छोटे छोटे न्याय करता है।
इस पहलू पर भी एक नज़र डालिये!
सभी पूंजीपति अपना NGO चलाते हैं, उनका CSR फंड इसी में इस्तेमाल होता है। NGO में कुछ लोगों को रोज़गार मिलता है। एक समय था जब वामपंथी आंदोलनों से जुड़े या कटे लोगों को इनमें रोज़गार मिलता था। आज भी किसी बड़े NGO में बड़े पदों पर आपको वामपंथी पृष्ठभूमि के लोग मिलेंगे या फिर सिविल राइट्स से जुड़े हुए लोग। इनके काम करने के तरीकों को करीब से देखियेगा तो पाइयेगा कि ये कम्युनिस्टों की तरह कपड़े पहनते हैं (हलांकि अभी ये ट्रेंड बदल रहा है) उन्हीं के अभियान गीत गाते हैं। व्यक्तिगत अधिकारों, निजता के सम्मान के पक्ष में बोलते हैं। जेंडर डिस्क्रिमिनेशन की मुख़ालफ़त करते हैं, जाति और धर्म के भेदभाव को भी खारिज़ करते हैं। ये सब सुन कर आपको अच्छा लगेगा, लेकिन इन सबके बाद हर समस्या का समाधान इसी सिस्टम के दायरे में ढूढने या करने की वकालत करते हैं।
पूंजीपति का दान इस तरह व्यापक सामाजिक आर्थिक बदलाव के रास्तों को बाधित करता है दूसरे “इस व्यवस्था में ही समाधान” की वकालत करते हुए कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं होने देता।
जिन इलाकों में जल जंगल और ज़मीन की लूट की योजना बनती है वहाँ सरकार से पहले NGO पहुँचते हैं। ये पिछले लगभग 30 सालों का ट्रेंड है। राजस्थान के उदयपुर में अकेले 3 हज़ार से ज़्यादा NGO हैं। धीरे धीरे पूरे राजस्थान में NGO कुकरमुत्ते की तरह फैल रहे हैं। जल्दी ही राजस्थान में बड़े पैमाने पर अलग अलग मक़सद के लिए खनन शुरू होगा। पत्थर निकालने का काम तो सालों से चल ही रहा है। यही हाल हिमांचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे इलाकों का है।
ऐसा माना जा रहा है कि जिस इलाके में NGO के लोग लोगों के बीच मौजूद हैं वहाँ से सामाजिक एवम आर्थिक बदलाव का कोई बड़ा आंदोलन खड़ा करना बहुत कठिन है।
ये दानवीर पूंजीपति और इनकी दलाल सरकारें अपने लूट के साम्राज्य को बचाने के लिए भभूत मार्का सेवाओं से उस जनसैलाब को रोकने का तटबंध बनाते हैं जिसे ये लम्हा लम्हा लूट और चूस रहे हैं। यानि पूंजीपति चुटकी भर आंटा देकर भूख के दावानल बन जाने को रोक देता है। इसलिए पूंजीपतियों की दानवीरता नहीं ये देखिये की इसकी आड़ में आपको कहाँ कहाँ से पंगु बनाया जा रहा है।
जब पूरी व्यवस्था ही सड़ चुकी हो तब झाड़फूंक (दान और सेवा) की नहीं इंक़लाब की ज़रूरत होती है। इंक़लाब यानि कि सड़ चुकी व्यवस्था को नष्ट कर नई व्यवस्था बनाना। बाकी आप क्या सोचते हैं, ज़रूर बताइएगा !
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।