मोदीजी परसेप्शन के माहिर हैं. वो शब्दजाल के जादूगर रहे हैं. इस जादू के अंत में मोदीजी कहते थे– “भारत में सब अच्छा है, भारत में सब चंगा सी, सबो ख़ूब भालो”. यह सुनते ही भारतीय मध्यवर्ग खड़ा होकर घंटों तालियाँ पीटता था. लेकिन मुश्किल यह है कि अब मोदीजी के दर्शक ऊब चुके हैं और यह ऊब धीरे-धीरे खीझ में तब्दील होती जा रही है.
दरअसल, जिस चमचमाते टेंट में यह शो चल रहा था वो कोरोना के चलते उजड़ रहा है. ग़रीबों पर जो गुजर रही है, उसको शब्द बयाँ नहीं कर सकते. लेकिन जो “मध्यवर्ग” महंगा टिकट कटाकर जादू देखने आता था, कोरोना संकट ने उसकी भी ज़ेब काट दी है. मध्यवर्ग मोदी की हाथ की सफ़ाई देख चुका है और यह भी कि मोदीजी एक भी शो फ्री में दिखाने को तैयार नहीं होते हैं.
वो जान गए हैं कि यह “जादू” उनकी नौकरियाँ नहीं लौटा सकता है. देश के ग़रीब मज़दूर की दुर्दशा उन्होंने अपनी आँखों से देखी है. बढ़ते मरीज़ों की भारी तादात उनके मोबाइल पर अपडेट हो रही है. वो यह भी देख रहे हैं कि मोदीजी ने रिलीफ पैकेज को भी जादू के खेल का हिस्सा बना दिया है.
उनको “सब चंगा सी” मार्का फ़ीलिंग नहीं आ रही है क्योंकि हॉस्पिटल्स से लेकर क्वारंटाइन सेंटर्स तक की बदहाली के किस्से सुनकर उनका दिल बैठा जा रहा है. वो जानते हैं कि अगर कहीं उन्हें या उनके परिवार में किसी को कोरोना हो गया तो किसी मेदान्ता, अपोलो या फोर्टिस में पैसा फेंककर इलाज का तमाशा नहीं देखा जा सकता.
इसीलिए ‘लॉक’ से लेकर ‘अनलॉक’ के जादू के बीच मेरे कई “प्राउड मोदीभक्त” रिश्तेदारों की ऊब अब खीझ में बदलने लगी है. क्योंकि लॉकडाउन के समय 536 मरीज़ों की संख्या थी जो कि आज 1 लाख चौहत्तर हजार हो चुकी है . लेकिन मोदीजी हैं कि हवा में हाथ लहराकर लॉकडाउन पर तालियाँ पीटने को कह रहे हैं.
उनको लग रहा है कि अगर लॉकडाउन ही इकलौता इलाज़ था तो उसका असर कहाँ हुआ? अगर अब अनलॉक ही इलाज है तो क्या पहले गलत इलाज़ चल रहा था? यानी जो बात लोगों को पिछले कई सालों से समझ नहीं आ रही थी, कोरोना ने उन्हें समझा दी है. उनकी आँख का मोदियाबिंद कट चुका है और उनको मोदीजी की नीतियों का “बेसिक पॉलिसी फ्ला” साफ़-साफ़ नज़र आने लगा है।
लेकिन उनको जो सबसे बड़ी बात समझ आयी है वो कुछ और है. जिस इंसान की सबसे ज्यादा खिल्ली उड़ाकर वो मोदीजी का जादू देखने जाते थे, उनको लगने लगा है कि वो एक उम्मीद है. मैंने कई बार लिखा है कि एक दिन यह देश राहुल गांधी को “पप्पू” कहने पर सामूहिक प्रायश्चित करेगा. कोरोना संकट के बीच उसके पहले संकेत मिलने लगे हैं.
मेरे कई “प्राउड मोदीभक्त” परिचित इस संकट पर राहुल गांधी की ‘प्रोएक्टिव एप्रोच’ की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे हैं. उनको लगने लगा है कि अगर कांग्रेस होती तो बीमारी भले फैलती, लोगों को बेहतर राहत मिल सकती थी। भले ही इस बात की इस देश को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी है लेकिन फिर भी “देर आयद दुरुस्त आयद”.
मोदीजी का ‘परसेप्शन’ और ‘औरा’ बिखरने लगा है क्योंकि राहुल गांधी ने इस परसेप्शन को तोड़ने से ज्यादा एक पैरलल परसेप्शन खड़ा करना शुरू कर दिया. राहुल गांधी ने बेहद सलीक़े से लोगों को यह अहसास दिलाया है कि अगर वो होते तो क्या करते. कोरोना की त्रासदी के बीच आशा करनी चाहिए कि अच्छे दिन आने वाले हैं.
लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक हैं।