इन दिनों हम कोरोना के वायरस और सरकारों की काहिली की जैसी दोहरी-तिहरी त्रासदी से दो चार हैं, किसी भी देश के सामने वैसी विकट घड़ी उपस्थित होती है, तो उसके नेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे अपनीजनता के साथ खड़े होंगे और बेबसी में उसकी तकलीफें कम करने के लिए और कुछ नहीं कर पायेंगे, तो भी निराश होकर मनोबल खोने से बचायेंगे और ढाढ़स बंधायेंगे। इतना भी नहीं बन पड़ेगा तो कम से कम जले पर नमक तो नहीं ही छिड़केंगे।
लेकिन अफसोस कि हमारे ज्यादातर नेता, खासकर सत्तापक्ष के, वे जिन्हें शक्ति देकर हम अपेक्षाकर रहे थे कि गाढ़े वक्त पर हमारे काम आयेंगे, इस उम्मीद के विलोम ही सिद्ध हो रहे हैं। उनके दिलो-दिमाग या कि हाथ-पैर हमारे दुःखदर्द हरने के लिए तो अपवादस्वरूप ही सक्रिय हो रहे हैं, लेकिन बड़बोलेपन की अभ्यस्त जबान कतारब्यौंत में कैंची को भी मात देती हुई न असंवेदनशीलता व अमानवीयता से परहेज बरत रही है, न अवैज्ञानिकता और न पोगापंथ से।
मिसाल के लिए, हाल में ही ‘भूतपूर्व’ हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को ऐसे वक्त में कोरोना वायरस के ‘जीवन के अधिकार’ की हिमायत अपना सबसे पवित्र कर्तव्य लग रही है, जब उसकी करतूतों का बोझ न सरकारें उठा पा रही हैं, न अस्पताल और न श्मशान व कब्रिस्तान। त्रिवेन्द्र सिंह रावत की ‘दार्शनिक’ दृष्टि, कौन जाने उन्हें बेदखल कर मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत की महिलाओं की फटी जींस देखने वाली ‘संस्कारी’ दृष्टि को मात देने के लिए, कोरोना वायरस को जीने के अधिकार से सम्पन्न एक ऐसे प्राणी के रूप में देखने लगी है, हम जिसके पीछे लगे हुए हैं और जो बचने के लिए अपना रूप बदल रहा यानी बहुरुपिया हो गया है। यानी आक्रामक हम हैं, वायरस नहीं और वह बेचारा बचने के लिए बहुरुपिया बनने को विवश है।
आश्चर्य नहीं कि उनके इस कथन ने देश के उन सारे हलकों में रोष व क्षोभ की लहर फैलाई है, जहां इस त्रासदी में भी मानवीय गुणों, मूल्यों और संवेदनाओं को इस तरह के अविवेक से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सका है। उसने इस सवाल को भी जन्म दिया है कि कोरोना एक प्राणी है, तो क्या उसका आधार कार्ड और राशन कार्ड भी है? इस सुझाव को भी कि ऐसा है तो क्यों नहीं इस वायरस जीव को सेंट्रल विस्टा में आश्रय दिया जाना चाहिए।
यों, इस सिलसिले में सबसे सीधा और जरूरी होने के बावजूद अब तक एक बार भी नहीं पूछा गया सवाल यह है कि क्या कोरोना वायरस के जीने के अधिकार का मतलब यह है कि उसकी रक्षा के लिए हमें ऐसे दर्दनाक हालात के हवाले कर दिया जाये कि हमारा जीना-मरना दोनों दूभर हो जायें? अगर नहीं तो ऐसा क्यों किया जा रहा है?
इस सवाल का जवाब बार-बार यह याद करने के बावजूद नहीं मिल रहा कि न त्रिवेन्द्र सिंह रावत के निकट ऐसी लफ्फाजी कोई नई बात है, न ही वे अपने खेमे के इकलौते मुंहजोर नेता हैं। वे दो साल पहले भी ऐसा दावा करके चर्चा में रह चुके हैं कि श्वसन क्रिया के वक्त गाय न केवल ऑक्सीजन लेती है, बल्कि आक्सीजन निकालती भी है। इतना ही नहीं, गाय पर हाथ सहलाने से सांस लेने की समस्या और उसके लगातार संपर्क में रहने से टीबी ठीक हो सकती है।
उनसे पहले केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा को पत्रकारों द्वारा याद दिलाया गया कि कर्नाटक हाईकोर्ट ने कोरोना टीकाकरण की रफ्तार को टीकाकरण के उद्देश्य को ही विफल कर देने वाली बताया है, तो कोई तर्कसंगत जवाब देने के बजाय वे आपा खो बैठे और चिढ़कर सवाल पूछने लगे। यह भूलकर कि वे मंत्री हैं और मंत्री के रूप में उनका काम पत्रकारों से सवाल पूछना नहीं, उनके सवालों के जवाब देना है। उन्होंने पूछ लिया कि क्या सरकार में बैठे लोगों को अदालत के आदेशों के अनुसार टीके के उत्पादन में नाकामी की वजह से खुद को फांसी पर लटका लेना चाहिए?
उनके इस सवाल पर सिर्फ और सिर्फ हंसा जा सकता है-बशर्ते उससे पहले यह सोचकर रुलाई न फूट पड़े कि आखिर हमने अपने लिए कैसे-कैसे सत्ताधीश चुन लिये हैं, जो इतना भी नहीं जानते कि वे अपने कर्तव्य न निभा सकें तो उनके पास खुद को फांसी पर लटका लेने का ही विकल्प नहीं है। देश में कानून का राज है और कानून कहता है कि वे अपनी मर्जी से न खुद को फांसी पर लटका सकते हैं, न किसी और को। ये दोनों ही कृत्य भारतीय दंड संहिता के तहत दंडनीय हैं।