फ़ादर स्टेन स्वामी
“हम घर जाना चाहते हैं”. ज्यादातर प्रवासी मजदूरों का यही रोना हैं जहाँ कहीं भी वे हैं, लेकिन उनके घरों में एक अनिश्चित भविष्य उनका इंतजार कर रहा है। अपने घरों में आत्म-सम्मान और गरिमा के साथ रहने के लिए उन्हें क्या करना होगा?
झारखंड सरकार की घोषणा के अनुसार, तालाबंदी हटने पर कम से कम पांच लाख झारखंडी प्रवासी श्रमिक देश के विभिन्न हिस्सों से अपने घर लौटेंगे. आश्वासन दिया गया है कि उन सभी का गर्मजोशी से स्वागत किया जाएगा, सुरक्षित रूप से अपने घरों तक पहुंच जाएगा और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में उन्हें काम मिलेगा. अब तक सब ठीक भी है.
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रवासी श्रमिकों की स्थिति पर दो कारक काम कर रहे हैं.
“पुल-एंड-पुश”
पहला ‘पुल’ (खींचने वाला कारक) यह है की लॉकडाउन खत्म होने पर छोटे और बड़े उद्योगपतियों को उत्पादन शुरू करने के लिए कहा जाएगा और बदले में वे उन श्रमिकों को बुलाएंगे जो कभी उनके साथ थे लेकिन अब देश के विभिन्न भागों में स्थित अपने घरों को लौट गए हैं. वे उन्हें वापस बुलाने के मकसद से आकर्षित करने के लिए अन्य प्रोत्साहन दे सकते हैं. हमें यकीन है कि कई मजदूर वापस काम की खोज में प्रवास का विकल्प चुन लेंगे.
दूसरा ‘पुश’ (धकेलने वाला कारक) कारक यह होगा कि घर पहुंचने के बाद उनमें से अधिकांश को पता चलेगा कि उन्हें और उनके परिवारों को स्वावलंबी रखने के लिए उनके घर पर कुछ खास (मौद्रिक) इंतेज़ाम नहीं है. झारखंड में मुख्य रूप से आदिवासी जिले सिमडेगा से लिए गए नमूनों के अध्ययन से प्रत्यक्ष होता है की 60% आदिवासी परिवारों के पास 1 से 2 एकड़, 7% के पास 3 से 4 एकड़ और केवल 7% आबादी के पास 4 एकड़ से अधिक कृषि योग्य भूमि है. इसका मतलब है कि महान बहुमत के पास सिर्फ जमीन के छोटे टुकड़े हैं, और यह भूमि ज्यादातर मानसून पर निर्भर, एक-फसल वाली भूमि है. तो फिर वे उस जमीन पर कुछ भी उगायें, वह पूरे वर्ष परिवार का पेट भरने के लिए या परिवार की अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा. यही वह मूल कारण था कारण था कि रोजगार की तलाश में सुदूर प्रांतों में चले गए, ताकि अपने परिवारों के लिए कुछ पैसे कमा सकें.
अब, जबकि वे घर वापस आ रहे हैं और उनमें से कुछ घर पर ही रहने का फैसला करेंगे, ऐसी कुछ संभावनाएँ हैं जिनके द्वारा वे अपने परिवार के साथ रहते हुए आर्थिक रूप से व्यवहार्य भी होंगे:
एक असहाय उम्मीद, कि प्रकृति उनके अनुकूल होगी, पर उन्हें सिंचाई सुविधाओं में सुधार के लिए कुछ सकारात्मक कदम उठाने होंगे ताकि उनके पास दूसरी या तीसरी फसल उगाने के लिए पर्याप्त पानी हो. जहां कहीं भी संभव हो, सरकार की परियोजनाओं का लाभ उठाते हुए नदी नालों पर खेती के लिए छोटे-छोटे चेक-डैम बनाने चाहिए.
यह एक तथ्य भी है कि अधिकांश गांवों में टैंकों की तरह छोटे या बड़े जल निकाय होते हैं जो वर्षों से भरते हुए छिछले हो गए हैं. गाँव समुदाय को स्वतंत्र रूप से काम करते हुए और संगठित करने की आवश्यकता है. ऐसा कर के ही वे समुदाय को मौजूदा जल निकायों को गहरा करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. इस तरह के निकाय विभिन्न उपयोगों के साथ-साथ सामुदायिक-मछली पालन के लिए अधिक पानी उपलब्ध करा सकते हैं.
घरेलू और सामान्य खुले कुओं का महत्व एक सार्वजनिक ज्ञान है. एक बार अन्य जल निकायों को गहरा कर पानी से भर दिया जाए तो रहस्यात्मक तरीके से कुओं में भी जलस्तर बढ़ जाएगा. यहाँ ध्यान दिया जा सकता है कि सरकार के पास जल भंडारण को बढ़ाने के लिए कई योजनाएं हैं जो ज्यादातर अप्रयुक्त हैं.
इस महान कार्य में मनरेगा का भी अच्छा उपयोग किया जा सकता है. पहले ही सुझाव दिए जा चुके हैं मनरेगा के अधीन प्रति परिवार कार्यावधि को बढ़ा कर सालाना 250 दिन किया जाए और पारिश्रमिक को बढ़ाकर 300 रुपये प्रतिदिन कर दिया जाए. यदि इस योजना में प्रत्येक ग्रामीण परिवार को शामिल किया जाए, तो यह जबरदस्त मात्रा में श्रम शक्ति की पैदा करेगा. इसका उपयोग न केवल समुदाय के मौजूदा साझा परिसंपत्तियों को मजबूत करने के लिए किया जा सकता है, बल्कि व्यक्तिगत परिवारों की अपनी संपत्ति को मजबूत करने के लिए भी किया जा सकता है जैसे कि खुले कुओं, रोपाई और फसलों की कटाई आदि के संसाधन. यह बेहद जरूरी होगा कि ग्राम सभा इस पूरी प्रक्रिया (परियोजनाओं की पहचान करना, कार्यबल आवंटित करना, पारिश्रमिक का निष्पादन आदि) में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं. ऐसा करते हुए ग्राम समुदायों के स्व-शासन के पारंपरिक स्वरूप को बहाल किया जा सकता है. यह वास्तव में एक हार्दिक विकास होगा.
सहकारी खेती
छोटे-टुकड़े वाले भूखंडों पर व्यक्तिगत खेती के बजाय सहकारी खेती सबसे वांछनीय विकल्प प्रतीत होगी. हर कोई महसूस करता है कि कैसे प्रत्येक परिवार विवशता में छोटे भूखंडों पर खेती करने की कोशिश कर रहा है और किसी तरह जीवन यापन कर रहा है. यद्यपि यह एक दूर का सपना प्रतीत हो सकता है, पर सहकारी खेती, पारंपरिक आदिवासी साम्यवादी स्वामित्व और सभी प्राकृतिक संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग को बहाल करने की दिशा में एक वास्तविक कदम होगा.
आदिवासी समाज, पूंजीवादी ताकतों द्वारा उस पर निजी स्वामित्व स्थापित करने के पहले समाजवादी ही था. सब कुछ जन-स्वामित्व में था और प्रकृति के फल हर एक की जरूरतों के अनुसार साझा किए जाते थे. यह ऐसे लोगों के लिए एक ऐतिहासिक अवसर होगा जो भूमि के मालिक थे और आज अनुबंध पर श्रमिक के रूप में कार्य करने को विवश हैं और वे सामुदायिक स्वामित्व और आपसी साझेदारी के अपने प्राचीन गौरव को दोबारा प्राप्त कर सकेंगे. इसके अलावा सहकारी खेती के माध्यम से हर एक-एक भूमि पर खेती करने के खंडित प्रयासों के दौरान होने वाले दोहराव से बचा जा सकेगा, जो अधिक से अधिक अविश्वसनीय साबित हो रहा है. क्या वे इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए आगे आएंगे? निश्चित रूप से इस नए रास्ते पर चलने का प्रस्ताव देने और उन्हें मनाने से कोई नुकसान तो नहीं हीं होगा.
न्याय के लिए
23 मार्च को भारतीय सरकार द्वारा एकतरफा तौर पर तत्काल प्रभाव से तालाबंदी की घोषणा सभी भारतीयों, लेकिन विशेष रूप से पूरे देश में कई लाख प्रवासी कामगारों के साथ अन्याय था. उन्हें तुरंत नौकरी से निकाल दिया गया और उन्होंने खुद को सड़क पर पाया. उनका एकमात्र विकल्प था घर को लौट जाना, लेकिन उनमें से अधिकांश अपने घरों से बहुत दूर थे. सरकार ने उनके घर तक पहुंचने का कोई प्रावधान नहीं किया, क्योंकि सभी सार्वजनिक परिवहन (वायु, ट्रेन, बस) तुरंत बंद हो गए. उनमें से हजारों ने अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ सैकड़ों मील दूर स्थित अपने घरों की ओर चलना शुरू कर दिया. उनमें से कुछ अपने छोटे बच्चों को अपने कंधों पर ले गए तो कई दर्जन थकावट के कारण रास्ते में ही मारे गए.
लॉकडाउन को पहले 3 मई तक बढ़ाया गया था, और अब 17 मई तक. सड़क पर आने वाले सभी लोगों को रोक दिया गया और कुछ को अस्थायी आश्रयों में रखा गया, जहां बुनियादी जरूरतों का भी अभाव था. अब उन्हें भुखमरी सता रही है. कई स्वैच्छिक संगठनों /व्यक्तियों ने उन तक पहुंचने की कोशिश की है, लेकिन ये प्रयास अपर्याप्त हैं. इधर कार्यपालिका और न्यायपालिका का कहना है कि जब उन्हे भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है तो उन्हें और क्या चाहिए? (!)
गरीब से गरीब व्यक्ति के साथ घोर अन्याय किया जा रहा है. न्याय के प्रति समर्पण का एकमात्र तरीका यह भी है कि सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर जनहित याचिका दायर करके सरकार से सड़क पर फंसे लोगों को पर्याप्त मुआवजा देने की मांग की जाए. वंचित प्रवासी श्रमिकों की ओर से इस कार्य को करने के लिए सामाजिक रूप से संबंधित कानूनी पेशेवरों को आवाहन है.
एक नया पृष्ठ खोलें
निष्कर्ष के तौर पर, हम कह सकते हैं कि जो प्रवासी श्रमिक घर जाने को आतुर हैं वे आर्थिक और सामाजिक रूप से अस्थिरता को लिए, निराशा की भावना के साथ घर न लौटें, बल्कि अपने जीवन में एक नया पृष्ठ खोलने का इरादा रखें जो उन्हें आत्मसम्मान के साथ अपने घरों में रहने के लिए सक्षम करेगा. ऊपर दिए गए सुझाव, यदि स्वीकार किए जाते हैं और उनका पालन किया जाता है, तो यह निश्चित रूप से संभव हो पाएगा. यह उनके द्वारा झेले गए भारी कष्ट की स्थायी कीमत होगी और यह सभी सामाजिक रूप से संबंधित नागरिकों का बाध्य कर्तव्य होगा कि वे अपने जीवन में ’नए पृष्ठ खोलने’ के लिए घर आने वाले प्रवासी श्रमिकों को जो भी संभव मदद पहुचाएं.
अनुवाद : सूर्यकांत सिंह