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अयोध्या में अपनी धुन के धनी एक ‘बेदार’ नाम के शायर हैं। पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में कुछ ध्वंसधर्मी अपने धर्म को हिन्दूधर्म का पर्याय बनाने पर तुल गये और हर असहमत से पूछते फिरने लगे कि क्या वह हिन्दू नहीं है, तो उन्हें जवाब देने के लिए रची गई ‘बेदार’ की एक गजल का शे’र है : मैं भी हिन्दू हूं मगर हरदम ये रखता हूं खयाल, मेरी करतूतों से मेरा धर्म शर्मिन्दा न हो। दुःख की बात है कि ध्वंसधर्मियों ने दशकों बाद भी इस जवाब का संदेश समझना गवारा नहीं किया है। क्या आश्चर्य कि हिन्दू धर्म को शर्मिन्दा करने वाली अपनी करतूतें रोकने के बजाय वे उन्हें और तेज करते जा रहे हैं। खासकर देश-प्रदेश में अपनी संरक्षक सरकारें आने के बाद से।
पिछले दिनों उन्होंने गाजियाबाद के एक मंदिर में पानी पी लेने को कुसूर बनाकर एक मुस्लिम बच्चे की बेरहमी से पिटाई कर डाली। अनपढ़ होने के कारण वह उनकी उस ‘राजाज्ञा’ का पालन नहीं कर पाया था, जो उसे धर्म के आधार पर मंदिर का पानी पीने से रोकती और बताती थी कि अब प्यासे को पानी पिलाना तो क्या पीने देना भी धर्म नहीं रहा। कहते हैं कि उक्त मन्दिर बन रहा था तो उक्त बच्चे के अभिभावकों ने भी चन्दा दिया था। अभी लोग इस सिलसिले में बिना प्रश्नों का उत्तर दिये तालाब का पानी पी लेने पर महाभारतकालीन यक्ष द्वारा युधिष्ठिर के भाइयों को बेहोश कर देने की घटना का जिक्र कर ही रहे थे कि मेरठ के किसी सैलून में फैज खान नामक युवक की पिटाई का वीडियो वायरल हो गया, जिसमें भाजपा युवामोर्चा का एक कार्यकर्ता उसे पीटते और गालियां देते हुए पूछ रहा है कि रुद्राक्ष की माला पहन रखी है तो क्या वह मंदिर में गीता और हनुमान चालीसा भी पढ़ेगा?
सोचिये जरा, यह सवाल उस गंगा-जमुनी तहजीब वाले देश में पूछा जा रहा है, जिसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द लिख गये हैं : इन मुसलमान हरिजनन पै कोटिक हिन्दू वारिये। अतीत गवाह है, जिन मुसलमानों ने हिन्दुओं को इतने हरिजन दिये, अयोध्या में रामलला विराजमान अरसे तक उनके सिले वस्त्र ही धारण करते रहे हैं। अहमदाबाद में मुस्लिम समुदाय के लोग कई सालों से जगन्नाथ मंदिर में रथयात्रा से पहले चांदी का रथ भेंट करते हैं तो बनारस व रामपुर में कई मुस्लिम नवरात्र के समय माता की चुनरी बनाते हैं। हां, रवायतों का यह मामला कतई एकतरफा नहीं है। कितने ही हिन्दू दरगाहों में चादर चढ़ाते हैं और मन्नतें मांगते हैं। वे रोजे भी रखते हैं और ताजिए भी बनाते व उठाते हैं।
ऐसा नहीं है कि ध्वंसधर्मी इस सांस्कृतिक या धार्मिक आदान-प्रदान और उससे निर्मित गंगा-जमुनी तहजीब से अवगत नहीं हैं। लेकिन धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल का खून इन दिनों उनके मुंह इस तरह लगा हुआ है कि वे अपना सामाजिक-सांस्कृतिक विवेक ही खो बैठे हैं। इसीलिए हर हाल में हमारी गंगा-जमुनी तहजीब के उन्मूलन पर आमादा हैं और अपनी भावनाओं {पढिये : दुर्भावनाओं} को हर कदम पर नागफनी बनाये डाल रहे हैं।
आपको याद होगा, लॉकडाउन के दौरान वैष्णोदेवी श्राइन बोर्ड ने कई संक्रमित मुसलमानों को अपने आशीर्वाद भवन में क्वारंटीन रखा और रमजान के मद्देनजर उनके खाने-पीने की व्यवस्था की तो इन अविवेकियों की दुर्भावनाएं किस तरह आहत हो गई थीं। अभी हाल में मथुरा के नंद बाबा मंदिर परिसर में खुदाई खिदमतगार नामक संस्था के कुछ सदस्यों ने नमाज पढ़ ली तो भी ये दुर्भावनाएं आहत होने से नहीं ही बच पाईं। एक विज्ञापन में मुस्लिम परिवार में हिन्दू बहू की गोदभराई की रस्म दिखाई गई तो भी। पिछली दीपावली पर इन दुर्भावनाओं के आहत होने के नाम पर ही कई जगह पटाखा व्यापारियों को धार्मिक तस्वीरों वाले पटाखे बनाने व बेचने को लेकर धमकाया-चमकाया गया, जबकि इसकी पुरानी परम्परा रही है।
ये तत्व इसी तरह खुले खेलते रहे तो कोई आश्चर्य नहीं कि एक दिन निर्दोषों को ऐसे सवालों की आड़ में भी मारने-पीटने लगें कि वे सिख नहीं हैं तो हाथ में कड़ा क्यों पहन रखा है, ब्राह्मण हैं तो जनेऊ क्यों नहीं पहनी है? हिन्दू हैं तो माथे पर बिंदी क्यों नहीं लगा रखी है? शादीशुदा हैं तो गले में मंगल सूत्र या मांग में सिन्दूर क्यों नहीं है? मुसलमान हैं तो टोपी या बुर्का कहां है और ईसाई हैं तो नाम हिन्दुओं जैसा क्यों रख लिया है? फिर देश और समाज के तौर पर अपनी यात्रा में हम कहां जा पहुंचेंगे और अपने उदात्त सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा कैसे करेंगे?
इसे कुछ इस तरह समझ सकते हैं कि पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सरकारी कार्यक्रम में लगाये जा रहे ‘जयश्रीराम’ के नारों पर वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के एतराज के बाद गृहमंत्री अमित शाह ‘पॉलिटिकल माइलेज’ के लिए एक सभा में पूछने लगे कि जयश्रीराम बंगाल में नहीं तो क्या पाकिस्तान में बोला जाएगा? हम जानते हैं, उनकी जमात भगवान राम के नाम के राजनीतिक इस्तेमाल की कड़ी में इस सवाल को इससे पहले भी कई रूपों में पूछ चुकी है। मसलन, राममन्दिर अयोध्या में नहीं तो और कहां बनेगा? आज की तारीख में अयोध्या में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से भव्य राममन्दिर बन रहा है और बहुत संभव है कि राम के नाम का दुरुपयोग इस जमात को पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कुछ और वोट दिलवा दे।
लेकिन राम व राममन्दिर से जुड़े उक्त दोनों ही सवाल सच पूछिये तो भगवान राम के सर्वव्यापी होने की मान्यता पर ही सवाल हैं। इसीलिए लेखक तनवीर जाफरी पूछते हैं कि जब भगवान राम कण-कण में समाये हुए हैं तो उस पाकिस्तान में ‘जयश्रीराम’ क्यों नहीं बोला जा सकता, जो कभी भारत का ही हिस्सा था? खासकर जब विश्व के अलग-अलग धर्मों व विश्वासों से संबंध रखने वाले अनेकानेक लेखकों व कवियों ने राम के गुण गाये हैं और कई भारतेतर देशों में उनके मंदिर हैं। तनवीर जाफरी कहते हैं कि चुनावी फ़ायदे के लिए राम और राममन्दिर की बाबत इस तरह के सवाल पूछना क्या उन्हें अयोध्या या पश्चिम बंगाल तक सीमित कर देना नहीं है? है तो यकीनन, यह उनकी महिमा को कम तथा असीम को सीमित करना ही है।
विडम्बना यह कि इन दिनों ऐसे सवालों की अनसुनीकर जो लोग अपने स्वार्थी सवालों से सर्वव्यापी राम को सीमित करने और किसी इतर धर्मावलम्बी के मन्दिर में पानी पीने व रुद्राक्ष की माला पहनने पर उसे मारपीट कर हिन्दू धर्म को नये सिरे से शर्मिन्दा करने में लगे हैं, वे अपने को हिन्दू धर्म, चिन्तन, दर्शन व परम्पराओं का सबसे बड़ा हितकामी सिद्ध करना चाहते हैं। साफ है कि वे इस धर्म की स्थापना की आड़ भर ले रहे हैं और उसके बजाय धर्म की ऐसी राजनीति को स्थापित करना चाहते हैं जो अधर्म से भी घातक सिद्ध हो सकती है। फिर भी समझने को तैयार नहीं कि उनकी इन करतूतों से हिन्दू धर्म के साथ देश का संविधान भी कुछ कम शर्मिन्दा नहीं हो रहा।
लेकिन एक बार किसी हद तक लोगों को गुस्सा दिलाने और लड़ाने में सफल हो जाने के बाद वे समझते हैं कि हमेशा उस गुस्से को भुनाते रहेंगे, तो गलती पर हैं। फिलहाल, अवध की यह कहावत झूठी नहीं सिद्ध होने वाली कि जुलाहे की बुनी उधेड़ी नहीं जा सकती और बकौल ‘बेदार’ एक न एक दिन लोग समझ ही जायेंगे कि हम कहारों की तरह ताउम्र बस ढोते रहे, पालकी में धर्म की दुलहन हमारी तो नहीं।
कृष्ण प्रताप सिंह, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।