मार्टिन नीमोलर को, उनकी इस और पिछली सदी की सबसे ज्यदा उद्धृत की जाने वाली कुछ पंक्तियों के आलोक में, जिन पर आगे चर्चा करेंगे, आमतौर पर कवि मान लिया जाता है, जबकि वास्तव में वे सैनिक थे। कट्टर राष्ट्रवादी उन्माद से भरे, प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार से खासे व्यथित और दो-दो बार हिटलर व नाजीराज का उत्साहपूर्वक स्वागत करने वाले। लेकिन इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद कि नाजी हुकूमत दरअसल क्रूर तानाशाही है, उनका मोहभंग हुआ और उन्होंने उसका विरोध शुरू किया, तो वे हिटलर के कोपभाजन बने। फिर तो कई बार गिरफ्तार किये जाने के बाद कंसंट्रेशन कैम्प में भेज दिये गये, जहां उन्हें सात साल गुजारने पड़े। हिटलर की पराजय के बाद छूटे तो खासे मंथन के बाद उन्होंने लिखा : जब नाज़ी कम्युनिस्टों के लिए आए/मैं चुप रहा/मैं कम्युनिस्ट नहीं था।/जब उन्होंने बंद किया सोशल डेमोक्रेट्स को/मैं चुप रहा/मैं सोशल डेमोक्रेट नहीं था।/जब वे आए ट्रेड यूनियनवालों के लिए/मैं चुप रहा/मैं ट्रेड यूनियनवाला नहीं था।/जब वे आए यहूदियों के लिए/मैं चुप रहा/मैं यहूदी नहीं था/और जब वे मेरे लिए आए/बोलने को कोई बचा ही नहीं था।
उनकी ये पंक्तियां याद करने का संदर्भ यह है कि अब, जब नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने निरंकुश बहुमत कहें अथवा संख्याबल के बूते दिल्ली की वास्तविक सत्ता उसकी निर्वाचित सरकार से छीनकर उपराज्यपाल को देने वाले राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन (संशोधन) विधेयक {जीएनसीटीडी बिल} को बारी-बारी से संसद के दोनों सदनों में पारित करा लिया है, आम आदमी पार्टी {आप} न सिर्फ इसे लेकर प्रबल नाराजगी, क्षोभ व आक्रोश का प्रदर्शन कर रही और उसे पिछले दरवाजे से सत्ता में आने की भाजपा की चाल बल्कि चुनी हुई सरकार के अधिकार खत्म करने वाला काला कानून और देश के लोकतंत्र व संविधान की हत्या भी बता रही है। राज्यसभा में बहस के दौरान पार्टी के सांसद संजय सिंह उसे ’संविधान का चीरहरण’ बताने की हद तक गये तो मुख्यमंत्री केजरीवाल लोकतंत्र के लिए शोक का दिन कहने तक।
गौरतलब है कि यह वही आम आदमी पार्टी है, जो गत पांच अगस्त, 2019 को कतई रुष्ट या क्षुब्ध नहीं हुई थी, जब इसी मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर के लोगों से किया भारत का वादा तोड़कर संविधान का अनुच्छेद 370 समाप्त कर दिया, साथ ही उसका विशेष तो क्या पूर्ण राज्य का दर्जा तक छीन लिया था। सच पूछिये तो वह भी मोदी सरकार की पिछले दरवाजे से जम्मू कश्मीर की सत्ता पर काबिज होने की चाल ही थी। लेकिन तब आप के नायक अरविन्द केजरीवाल ने उसका स्वागत किया था। यकीनन, उस वक्त उन्होंने केन्द्र सरकार के बजाय जम्मू-कश्मीर के लोगों से एकजुटता जताई होती तो खुद से वैसी ही जोर-जबरदस्ती के वक्त प्रदर्शित उनके गुस्से को अतिरिक्त वैधता हासिल होती। इसे लेकर वे संविधान के तकाजे याद दिलाते तो उनके ऐसा करने को भी बहुत जायज समझा जाता। कोई यह कहने की हिमाकत न कर पाता कि उनके खफा होने के पीछे कोई नीति या नैतिकता नहीं, बल्कि यह है कि जीएनसीटीडी बिल के कारण दिल्ली में उनकी शानदार चुनावी जीत हार में बदल जा रही है।
ठीक है कि देश में जो दल या संगठन मोदी सरकार द्वारा देश में हर कहीं येनकेन प्रकारेण लोकतंत्र, उसकी परम्पराओं व मूल्यों की हत्या अथवा अपहरण की कोशिशों से अवगत या उसके भुक्तभोगी हैं, वे ऐसे मामलों में आप की मुखमुद्रा देखकर अपना दृष्टिकोण तय नहीं करने वाले। यही कारण है कि संसद में उक्त बिल के विरोध के दौरान कोई एक दर्जन विपक्षी पार्टियों ने उसको अकेली नहीं पड़ने दिया। उनके सांसदों ने संसद में बहस के दौरान ’तानाशाही बंद करो’ के नारे ही नहीं लगाये, कार्यवाही का बहिष्कार तक किया। लेकिन क्या करते, संख्या बल उनके खिलाफ था, इसलिए बिल को पारित होने से नहीं रोक सके और अब राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करते ही उसे कानून बन जाना है।
लेकिन प्रोफेसर अपूर्वानन्द द्वारा मार्टिन नीमोलर की उक्त पंक्तियों के संदर्भ में किया गया यह सवाल कि वे उद्धरण, कविता, अफ़सोस, चेतावनी या विलाप क्या हैं, आप के इस गुस्से के संदर्भ में भी मौजूं हैं। उन लोगों के संदर्भ में भी, जो अभी भी इस बाबत अपना दृष्टिकोण तय करने में अपनी राजनीतिक सुविधाओं-असुविधाओं की बिना पर आगा-पीछा कर रहे हैं। सवाल है कि क्या अब भी आप जैसी राजनीतिक शक्तियां हेल-हिटलर कहने जैसी अपनी गलतियों से कुछ सबक लेंगी या नहीं?
नहीं लेंगी तो उन्हें शायर नवाज देवबन्दी की ये पंक्तियां भी शायद ही रास्ता दिखा सकें : जलते घर को देखने वालो, फूस का छप्पर आपका है।/आग के पीछे तेज हवा है, आगे मुकद्दर आपका है।/उसके कत्ल पे मैं भी चुप था, मेरा नंबर अब आया।/मेरे कत्ल पे आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है।
जहां तक भाजपा की बात है, 2014 में मोदी के नेतृत्व में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से ही वह यही प्रदर्शित करती रही है कि उसके लिए सत्ता पर कब्जे का उद्देश्य सर्वोपरि है और उसे पूरा करने के लिए वह संविधान की धज्जियां उड़ाने या नैतिकता और उसूलों को ताक पर रखने से कोई परहेज नहीं करती। इस उद्देश्य के प्रति उसके समर्पण का ही नतीजा है कि अब किसी भी राज्य में विधानसभा चुनाव हो, प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल उसमें इस तरह लिप्त हो जाते हैं कि लगता है, चुनाव वही लड़ रहे हैं। इस कारण विधानसभा चुनावों में पिछले छह-सात सालों से अभूतपूर्व हलचल मचती रही है। तिस पर अब भाजपा नगर निगम और पंचायत चुनावों में भी ‘राष्ट्रीय स्तर की दखलंदाजी’ करने लगी है और हार जाती है, तो आपरेशन लोटस जैसे अभियान चलाने लग जाती है। पिछले दिनों कई राज्यों में हम उसकी ऐसी कारस्तानियां व अभियान देख चुके हैं।
केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली की बात करें तो शायद ही किसी जानकार को संदेह हो कि वहां निर्वाचित मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों के बंटवारे की लम्बी लड़ाई के पीछे विधानसभा चुनाव में आप को न हरा पाने से खीझी भाजपा द्वारा अपनी केन्द्रीय सत्ता का दुरुपयोग कर उसे सबक सिखाने की मंशा रही है। 2018 में यह लड़ाई सुप्रीम कोर्ट पहुंची तो उसने कहा था कि तीन मुद्दों को छोड़कर चुनी हुई सरकार के पास राज्य और समवर्ती सूची के बाकी सभी मुद्दों पर निर्णय का अधिकार है और उपराज्यपाल उसके निर्णयों में कोई बाधा उत्पन्न नहीं कर सकते। अब, मोदी सरकार द्वारा पारित कराया गया जीएनसीटीडी बिल यकीनन इस स्थिति को पलटने की ही कोशिश है, क्योंकि इससे उपराज्यपाल ही दिल्ली की सरकार बन जाएंगे और निर्वाचित सरकार हर मुद्दे पर उनकी अनुमति की मोहताज हो जायेगी।
इसको लेकर जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर चुकी आप ने सुप्रीम कोर्ट जाने का एलान किया है तो कई प्रेक्षकों को इस सवाल के जवाब में ज्यादा दिलचस्पी है कि उसके नायक केजरीवाल दिल्ली के हक व संविधान को बचाने के लिए अन्ना हजारे के दौर वाले अनशन व आन्दोलन जैसा कोई दांव चलकर अपना प्राप्य पा लेने में सफल होते हैं या भाजपा उन्हें परास्त करके ही दम लेती है? लेकिन असल सवाल यह है कि सत्ता की लालसा में लोकतंत्र को लगातार परास्त करने के प्रयत्नों का यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा? इसे चलाने वाले कभी देश के लोकतंत्र को लंगड़ा करार देने वाली रिपोर्टों के आईने में अपनी शक्लें देखेंगे या नहीं?
कृष्ण प्रताप सिंह, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।