वित्तवर्ष 2020-21 की पहली तिमाही यानी गत अप्रैल मई व जून के बीच देश की विकास दर का माइनस 23.9 तक गिर जाना कितना भी अभूतपूर्व या त्रासद हो और सेंसेक्स उस पर कैसी भी प्रतिक्रिया क्यों न दे रहा हो, आशंकातीत नहीं कहा जा सकता। ज्यादातर रेटिंग एजेंसियों व आर्थिक विशेषज्ञों को उसमें इतनी बड़ी गिरावट का अनुमान लगाते संकोच हो रहा था तो उसका कारण यह नहीं कि उन्हें इसकी आशंका नहीं थी। दरअस्ल, उनकी समझ थी कि कौन जाने प्रधानमंत्री अपने पराक्रम से इस गिरावट को रोक दें। अन्यथा जीएसटी के राजस्व में आई भारी गिरावट भी इस गिरावट का संकेत दे ही रही थी, जिसके चलते केन्द्र के लिए राज्यों को जीएसटी कम्पेन्सेशन देना मुश्किल हो रहा है।
साफ कहें तो इस वित्तवर्ष का बजट आने के बाद से ही वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को, उस मंदी के चलते जिसे स्वीकार करना भी उन्हें गवारा नहीं था, जिस तरह प्रावधानों से पलटने और कॉरपोरेट टैक्स में कटौती जैसे कदम उठाने पड़ रहे थे, उसके चलते कोरोना संक्रमण की चेन तोड़ने के नाम पर घोषित देशव्यापी लाॅकडाउन में आर्थिक गतिविधियों को ठप करना एक बड़ा जोखिम था, जिसने पहले से ही मंद अर्थव्यवस्था को ठप करके रख दिया। उद्योग-धंधों और कल-कारखानों के साथ निवेश व निर्यात पर पूरी तरह लगाम लग जाने का विकास दर पर कोई और प्रभाव हो भी कैसे सकता था, जब अंदेशों से हलकान आम लोगों ने भी खर्चों से हाथ समेट लिये? वैसे, जब न सिर्फ उनकी आय बल्कि वर्तमान व भविष्य भी ग्रहणग्रस्त हो चले थे और जीवन निर्वाह के लिए जरूरी चीजों की खरीद-फरोख्त को छोडकर बाजार में किसी और गतिविधि की इजाजत ही नहीं थी, तो वे खर्च करते भी तो कैसे और कहां?
इस लिहाज से इस गिरावट की पिछले वित्तवर्ष की इसी तिमाही की विकास दर 5.2 प्रतिशत से तुलना भी सर्वथा असंगत ही है। यह कहकर स्थिति का भयावह चित्र खींचने का भी कोई अर्थ नहीं है कि देश की मौजूदा पीढ़ी ने विकास दर में शायद ही कभी इतनी बड़ी गिरावट देखी हो। चित्र खींचना ही हो तो इस सच के आईने में खींचा जाना चाहिए कि इस पीढ़ी ने कोरोना जैसी महामारी और उसके कारण पैदा हुए इतने विषम हालात ही कभी कहां देखे? हां, देश के कृषिक्षेत्र यानी किसानों व मजदूरों को, ‘सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था’ के तमगे अथवा ‘बूम’ के फेर में जिनकी परवाह करने का चलन ही खत्म होता जा रहा है, धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उनकी कड़ी मेहनत के चलते इस संकटकाल में भी अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव थोड़े काबू में रहे हैं।
किसी भी पहलू से देखें, यह सारी गिरावट बिना सोचे-समझे लाॅकडाउन थोपकर अचानक सारे देश के सारे पहिये ठप कर देने का ही खामियाजा है। यकीनन, इसे भुगतने की तकलीफ इस अर्थ में भी बहुत बड़ी है कि लाॅकडाउन की विफलता की कहानी अब किसी से भी छिपी नहीं है। उसके कारण देश के समक्ष ‘न खुदा ही मिला न बिसालेसनम’ की स्थिति हो गई है। अर्थव्यवस्था पर कहर ढाकर भी इस लाॅकडाउन ने कोरोना के संक्रमण की चेन तोड़ दी होती तो आज हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘जान है तो जहान है’ के जुमले से खुशी-खुशी इत्तेफाक रख सकते थे। लेकिन दुःख की बात है कि हम दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले सबसे ज्यादा कोरोना संक्रमितों के आंकड़े के सामने खड़े होकर माइनस विकास दर से जूझने को अभिशप्त हैं। इतना ही नहीं, महामारी की दूसरी लहर अभी भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के प्रयासों को बड़ी चोट देने पर आमादा है और हम ‘अब पछताये होत का चिड़िया चुग गई खेत’ की स्थिति में लाचारगी के हवाले हो गये हैं। इस स्थिति से बचा जा सकता था, अगर सरकार ने कोरोना के कहर का समय रहते वस्तुनिष्ठ आंकलन किया होता और भय फैलाकर उसे अपने बचाव के अवसर में बदलने में लग जाने के बजाय उपयुक्त कदम उठाये होते।
लेकिन अभी लोग शायद ही भूले हों कि तब सरकार की समर्थक जमातें सब कुछ भूलकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को ‘नमस्ते’ करने और मध्य प्रदेश समेत जिन भी प्रदेशों में संभव हो, विधायकों का पालाबदल कराकर सत्ता हथियाने में लगी हुई थीं। इनसे निपट कर क्या पता, किस अतिउत्साह या अपराधबोध में केन्द्र सरकार ने, बल्कि कहना चाहिए, अकेले प्रधानमंत्री ने, बिना विशेषज्ञों से समुचित परामर्श किये अचानक सारे देश को लाॅक कर दिया। ऐसे करते हुए उन्होंने अर्थव्यवस्था की परवाह करना कितना गैरजरूरी समझा, इसे उनका ‘जान है तो जहान है’ का जुमला ही समझा देता है।
कई जानकारों ने तभी सुझाया था कि लाॅकडाउन के तहत सामाजिक जीवन को ही नियंत्रित किया जाना चाहिए, अन्यथा सारी आर्थिक गतिविधियों को एकदम से ठप कर देने के विषफल के दुष्प्रभाव से बचा नहीं जा सकेगा। लेकिन प्रधानमंत्री अपनी ही रौ में कहें या कोरोना से जंग का सारा श्रेय अपने ही हिस्से में रखने के लिए थालियां पिटवाते व मोमबत्तियां वगैरह जलवाते रहे और उन्होंने इस सुझाव को कान देना गवारा नहीं किया। गवारा करते तो लाॅकडाउन अर्थव्यवस्था को इस तरह नहीं झकझोर पाता। न प्रवासी मजदूरों पर उसके पहाड़ टूटते, न ही असंगठित व सेवा क्षेत्र में करोड़ों लोगों को अपने रोजगारों से हाथ धोना पड़ता। लेकिन जब तक प्रधानमंत्री को चेत आया, एक बार फिर देर हो चुकी थी।
‘जान के साथ जहान’ की चिन्ता की जो बात उन्होंने काफी बाद में कही, जिसके अनन्तर अनलाॅक की प्रकिया शुरू कर राज्यों से लॉकडाउन लगाने का अधिकार वापस ले लिया और केवल कंटेनमेंट जोन में ही लॉकडाउन की इजाजत दी गई, वही पहले कह देते तो आर्थिक गतिविधियों को इतने बुरे दिन नहीं ही देखने पड़ते।
तब प्रधानमंत्री इस आलोचना से भी अपना बचाव कर लेते कि जब देश में कोरोना के मरीज महज सैकड़ों थे तो, उन्होंने लोगों को घरों में कैद कर दिया और अब, जब उनकी संख्या रोज-रोज रिकार्ड तोड़ रही है, सब कुछ अनलाॅक किया जा रहा है। तिस पर पालिसी पैरालिसिस यानी नीतियों का संकट इतना गहरा हो गया है कि गत 26 अगस्त को ईएमआई ब्याजदर के मामले पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय को सरकार को लताड़ लगानी पड़ी। यह कहकर कि चूंकि लाॅकडाउन का फैसला उसका था, तो वह उसके किसी भी प्रभाव की जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। न ही उनके सम्बन्ध में उसके किसी अनिर्णय को स्वीकार किया जा सकता है।
लेकिन विडम्बना देखिये कि जब तक कोराना से जंग में सफलता के आसार दिखेे, प्रधानमंत्री के समर्थकों द्वारा लगातार दावे किये जाते रहे कि उसे तो अकेले प्रधानमंत्री लड़ रहे हैं और जैसे ही हालात नियंत्रण से बाहर होने लगे, सारा दारोमदार राज्यों पर छोड़ दिया गया। जनता पर यह ठीकरा फोड़ते हुए कि वह सोशल डिस्टेंसिंग का ईमानदारी से पालन नहीं कर रही। लेकिन प्रधानमंत्री और उनकी सरकार का दुर्भाग्य कि वे विकास दर की इस गिरावट के लिए अपने फैसलों के अलावा और किसी को दोष नहीं दे सकते। अलबत्ता, प्रलाप की बात और है, जिसके तहत कभी वे फाइव ट्रिलियन डालर अर्थव्यवस्था और दो अंकों वाली विकास दर की बातें किया करते थे और अब उनकी वित्तमंत्री गोलपोस्ट बदल कर उसके खस्ताहाल को ‘ऐक्ट ऑफ गाॅड’ बताती हुई भूल जा रही हैं कि लाॅकडाउन ‘ऐक्ट ऑफ गाॅड’ नहीं ‘ऐक्ट आफ गवर्नमेंट’ ही था।
अब उनकी अदूरदर्शिता के कारण वह ऋणात्मक रूप से दो अंकों तक जा पहुंची है और भारतीय रिजर्व बैक तक को जल्दी हालात बदलने की उम्मीद नहीं है, तो यही कह सकते हैं कि देश को इसके नकारात्मक परिणामों से उबरने में लंबा वक्त लग सकता है। वह भी ऐसे दौर में, जब कोरोना का वायरस कोई अंकुश मानने को तैयार नहीं है और सरकार द्वारा फौरी राहत पैकेज घोषित करने या भातीय रिजर्व बैंक द्वारा कुद अन्य आपात उपायों के साथ ब्याज दरें घटाने का धरातल पर कोई प्रभाव नजर नहीं आ रहा। किसी भी स्तर पर यह उम्मीद भी अभी बंधती नहीं दिखती कि इस वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही तक विकास दर में धनात्मक वृद्धि देखने को मिल सकती है। इस कारण और भी नहीं कि भारतीय रिजर्व बैंक का जुलाई का एक सर्वेक्षण कहता है कि उपभोक्ताओं का हौसला अभी भी सबसे निचले स्तर पर है। इतता नहीं नहीं, भारतीय स्टेट बैंक की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि वास्तविक जीडीपी तो वित्तवर्ष की अगली तीन तिमाहियों में भी गिरेगी ही।
ऐसे में हालात बदलने का सारा दारोमदार इस सवाल के जवाब पर ही निर्भर करेगा कि सरकार अर्थव्यवस्था सम्बन्धी अपनी अब तक की गलतियों से सबक लेकर कुछ नयी परिकल्पनाएं करने और नये सपने देखने को तैयार है या नहीं।
कृष्ण प्रताप सिंह, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।