आजादी से कोई डेढ़ दशक पहले की बात है। प्रेमचंद के बहुचर्चित उपन्यास ‘गबन’ के एक पात्र देवीदीन ने पूछा था, ‘साहब, सच बताओ, जब तुम सुराज का नाम लेते हो, उसका कौन-सा रूप तुम्हारी आंखों के सामने आता है? तुम भी बड़ी-बड़ी तलब लोगे, तुम भी अंग्रेजों की तरह बंगलों में रहोगे, पहाड़ों की हवा खाओगे, अंग्रेजी ठाठ बनाये घूमोगे, तो इस सुराज से देश का क्या कल्याण होगा?… तुम दिन में पांच बेर खाना चाहते हो, और वह भी बढ़िया, पर गरीब किसान को एक जून सूखा-चबेना भी नहीं मिलता।… तुम्हारा ध्यान कभी उनकी ओर जाता है?’
आजादी मिल गई और अंग्रेजों के राज में भी भोग विलास पर मरने वाले साहब लोग, देवीदीन के अंदेशे के मुताबिक, अपना राज आते ही गरीबों को पीसकर पी जाने लगे तो बाबा नागार्जुन ने अपनी लम्बी कविता ‘26 जनवरी, 15 अगस्त.’ में पूछा था : किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?/कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?’ फिर जैसे देश की व्यवस्था से कोई जवाब मिलने की उम्मीद खो बैठे हों, अपने सवाल का खुद ही जवाब भी दे डाला था : सेठ है, शोषक है, नामी गलाकाटू है/गालियां भी सुनता है, बड़ा थूक चाटू है/चोर है, डाकू है, झूठा मक्कार है/कातिल है, छलिया है, झूठा मक्कार है/जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला शासन के घोड़े पर वहां भी सवार है/उसी की जनवरी छब्बीस उसी का पन्द्रह अगस्त है।/बाकी सब दुखी हैं, बाकी सब पस्त है।
तब से हम बहुस्तरीय सुरक्षा घेरे और राजधानी के आम नागरिकों के लिए बेहद त्रास वाली सरकारी सतर्कता की छाया में सम्पन्न होने वाले गणतंत्र दिवस की कितनी ही भव्य परेडें और कितनी ही मनोरम व नयनाभिराम झांकियां देख चुके, मगर बाबा ने जिन्हें ‘बाकी सब दुःखी हैं, बाकी सब पस्त हैं’ कहा था, उनके दुःख और पस्ती दूर नहीं कर सके हैं। कर सके होते तो गणतंत्र दिवस का जश्न इतना औपचारिक या सरकारी होकर न रह गया होता। उसमें देश की आम जनता का मन भी होता और उसके मूल्य भी। तब सत्तातंत्र से नागरिकों का संवाद इस कदर कतई नहीं टूटता कि राजधानी में प्रविष्ट न होने दिये गये अन्नदाताओं को हाड़ कंपाती ठंड के बीच दो महीने सीमावर्ती सड़कों पर बैठे रहने के बाद अपनी सुनाने के लिए राजपथ की परेड के समानांतर ट्रैक्टरों की ‘किसान गणतंत्र परेड’ निकालनी पड़े। इरोम चानू शर्मिला के सबसे लम्बे अनशन की तरह सबसे लम्बे आन्दोलन का रिकार्ड बनाकर भी वे सत्तातंत्र को यह समझाने में नाकाम रह जायें कि देश का लोकतंत्र उसे निवेशकों को इस तरह नागरिकों पर तरजीह देने की इजाजत नहीं देता कि वे पूंजी लगाने के नाम पर नागरिकों की छाती पर मूंग दलने लग जाये।
आज की तारीख में यह एक खुला हुआ तथ्य है कि नागरिकों की यह उपेक्षा इसलिए है कि 26 जनवरी, 1950 को जिस संविधान को अधिनियमित, आत्मार्पित व अंगीकृत किया गया था, शातिर सत्ता तंत्र ने उसे अपनी सुविधा भर बना लिया है और उसके आचरण में जीवनदर्शन के रूप में संविधान का किंचित भी समावेश नहीं रह गया है।
अकारण नहीं कि संविधान की प्रस्तावना में जिस सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा व अवसर की समता और व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने पर जोर दिया गया था, मौका पाते ही व्यवस्था का मुंह उसकी उलटी दिशा में घुमा दिया गया है। इससे सम्पूर्णप्रभुत्वसम्पन्न, लोकतंत्रात्मक, समाजवादी और पंथनिरपेक्ष गणराज्य बनाने की प्रतिज्ञा का अंजाम यह हुआ है कि भूमंडलीकरण पोषित पूंजीवाद के नग्न नृत्य के बीच समाजवाद की अब कोई बात ही नहीं करता। साथ ही बराबरी के सपने को अमीरी के सपने में बदल दिया गया है, जबकि पंथनिरपेक्षता कहें या कि धरर्मनिरपेक्षता, उसको इस हद तक घृणास्पद बना दिया गया है कि कई लोगों को इस गणराज्य को धर्मराज्य में बदल देने की अपनी परियोजनाओं का खुला एलान करते हुए भी लज्जा नहीं आती।
दूसरी ओर दुनिया भर में घूमते रहने वाले हमारे प्रधानमंत्री अब कोरोना वायरस के कारण घूम-घूम कर नहीं कर पा रहे तो वर्चुअली ही सही, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आश्वस्त करने में कतई नहीं चूकना चाह रहे कि उन्होंने भारत को न्यू इंडिया में बदल दिया है और उसमें उनके लिए लाल गलीचे बिछा दिये हैं। वे खुशी-खुशी आयें, हमारे ही देश में हमारे लोगों को मजदूर बनाकर जो भी चाहें, बनायें-बेचें और हमारी तारनहार बनकर भरपूर मुनाफा कमायें।
क्या आश्चर्य कि कई प्रेक्षक कहते हैं कि उक्त कम्पनियों के लिए इस बड़े देश को एक बड़े गणराज्य से बड़े हाट में बदल दिया गया है। इस कदर कि गणतंत्र से तमाम सुरक्षाओं की उम्मीद लगाये बैठे दलित व वंचित तबके नाउम्मीद होकर रह गये हैं और फिर से संकीर्ण जातीय, धार्मिक व साम्प्रदायिक किलेबंदियों में सुरक्षाएं ढूंढ़ने लगे हैं! गुलामी के दिनों में जिस स्वतंत्रता की सबको बड़ी जरूरत थी, उसके सारे के सारे आशय झुठला दिये गये हैं और वह कुछ विशेषाधिकार प्राप्त वर्गां का हथियार बनकर रह गयी है, जिसे वे चुनावों तक में अपनी जरूरत के हिसाब से आजमाते फिरते हैं। तभी तो देश में चौतरफा इतने उद्वेलन फैल गये हैं कि सत्तातंत्र को कथित अंदेशों की आड़ में नागरिकों की एकता, अधिकारों व स्वतंत्रताओं को किसी भी सीमा तक कुचलने की सहूलियत हासिल हो गयी है। इस सहूलियत का इस्तेमाल करके वह वैकल्पिक विचारों और मान्यताओं की जगह लगातार सामित करता जा रहा है।
सोचिये जरा, किसी गणतंत्र में विचारों की कमी होती जाये, साथ ही निवेशक नागरिकों की छाती पर मूंग दलने तक को आजाद कर दिये जायें और प्रवासियों की वापसी के लिए निवासियों का कुछ ठिकाना न रह जाये कि उन्हें कब, कहां और कैसे शरणार्थियों में बदल दिया जायेगा, तो सत्तातंत्र के हर 26 जनवरी को अपने गणों के साथ गणतंत्र के जश्न में डूबने का क्या मतलब है?
यह सत्तातंत्र शायद ही याद करना चाहे कि आजादी से पहले 26 जनवरी गणतंत्र नहीं, स्वाधीनता दिवस के रूप में मनायी जाती थी, क्योंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1929 में लाहौर में हुए अपने अधिवेशन में रावी नदी के तट पर फ्रांस की क्रांति की अनुगूंज के बीच इसी दिन पूर्ण स्वाधीनता की शपथ ली थी। तब से हर 26 जनवरी को सड़कों पर स्वाधीनता के जुलूस निकाले जाते थे और तिरंगा फहराया जाता था। कई बार सरकारी अमले की रोक-टोक की कोशिशों को धता बताकर ऐसा किया जाता था।
उन जेलों में जहां स्वतंत्रता सेनानियों को बंद रखा गया होता था, यह दिन उनकी आजादी की उद्दाम ललक के छलक-छलक पड़ने का होता था। अंग्रेजों के जुल्म व सितम के बीच इस दिन लोग निर्भय, उल्लसित व तरंगायित रहकर खुद को गुलाम देश के आजाद नागरिक प्रमाणित करते थे। लेकिन आज के हालात में इस दिन, और तो और, राजधानी दिल्ली तक कड़े सुरक्षा प्रबंधों में जकड़ी हुई डरती या डराती रहती है और ‘आजाद देश के गुलाम नागरिक’ अपने गणतंत्र दिवस को हाइजैक होते देखते रहते हैं।
अफसोस कि इसके बावजूद किसी तरफ से कोई ऐसा जतन होता दिखाई नहीं देता, जिससे 26 जनवरी को लेकर वह आजादी के पहले का पुराना जज्बा फिर से जागे, जो अन्दर ही अन्दर टूटते-रिसते देश को फिर से गहरे भावनात्मक स्तर तक एकजुट कर सके। लेकिन आज नहीं तो कल, हमें ऐसे जतन करने ही होंगे, क्योंकि उनका कोई विकल्प नहीं हो सकता।
कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।