कांग्रेस के तेईस वरिष्ठ नेताओं द्वारा पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर उसमें ऊपर से नीचे तक बदलाव की मांग करने के बाद सोनिया द्वारा पदत्याग की इच्छा जताने से लेकर कार्यसमिति की बैठक में उक्त पत्र की टाइमिंग पर सवाल उठने, विभिन्न धड़ों द्वारा अपने-अपने स्वार्थों के हिसाब से एक दूजे पर बरसने, फिर सुलह-सफाई व मान मनौवल करने तक जो कुछ भी हुआ है, उससे और कुछ हुआ हो या नहीं, यह बात पूरी तरह साफ हो गई है कि देश की यह सबसे पुरानी पार्टी दुर्दिनों की बाढ़ में भी अपने अंतद्र्वंद्वों, असमंजसों और अनिर्णयों के पार नहीं जा पा रही है। इतना ही नहीं, उसमें भविष्य के रास्ते को लेकर भी ऊहापोह है और नेतृत्व को लेकर भी।
अब उसका संकट इतना भर नहीं है कि लम्बे प्रशिक्षण के बावजूद राहुल गांधी या प्रियंका वाड्रा उसके सुनहरे दिनों की वापसी की गारन्टी नहीं बन पा रहे या वह उनके पार जाकर गांधी परिवार के बाहर कोई सक्षम नेतृत्व नहीं तलाश पा रही। कारण यह कि एक ओर उसके इतिहास के सबसे बुरे दिन खत्म होने को नहीं आ रहे और दूसरी ओर उसके युवा व बुजुर्ग नेताओं के बीच अपनी सुपीरियारिटी प्रदर्शित करने और दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतिस्पर्धा-सी छिड़ी हुई है। इन दोनों के बीच के कहे-अनकहे संघर्ष को कोई पीढ़ियों का झगड़ा कहे या स्वार्थों का, वह कभी किसी प्रदेश में उभरकर पार्टी की सरकार के लिए संकट खड़ा करता नजर आता है, कभी मीडिया की बहसों में और कभी शीर्ष नेतृत्व तक को लपेटे में ले लेता है।
पार्टी का यह संकट पिछले साल अगस्त में संविधान के अनुच्छेद 370 के खात्मे की मोदी सरकार की कार्रवाई के वक्त तो निरावरण हुआ ही था, जब पार्टी के अनेक नेताओं ने उसके घोषित स्टैंड के विपरीत रुख प्रदर्शित किया, इस साल प्रधानमंत्री द्वारा अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए किये गये भूमि पूजन के वक्त भी अपनी लज्जा नहीं ही बचा सकी। उसका एक धड़ा अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को लेकर चिंतित दिखा तो दूसरा अपने हिंदुत्व को निजी आस्था से बढ़कर सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित करने में नहीं झिझका। जहां तक पार्टी की बात है, उसने अयोध्या विवाद के सुप्रीमकोर्ट के फैसले से पहले ही उसके सम्मान की बात कह रखी थी।
दूसरे पहलू से देखें तो आजादी के पहले से ही यह भ्रांत धारणा चली आती है कि कांग्रेस का नेतृत्व हमेशा कुछ हाथों में केन्द्रित रहा है, लेकिन यह बात पूरी तरह सच होती तो महात्मा गांधी की सर्वोपरिता वाले दिनों में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उनके प्रत्याशी पट्टाभिसीतारमैया के विरुद्ध अध्यक्षी का चुनाव नहीं लड़ते, न ही जीत पाते। लेकिन वे न सिर्फ लड़े बल्कि जीते भी। भले ही इससे विचलित महात्मा गांधी को पट्टाभि की हार को अपनी हार बताना पड़ा। यह और बात है कि बाद में नेेताजी को पहले अध्यक्ष पद और बाद में कांग्रेस पार्टी ही छोड़ देनी पड़ी।
कई प्रेक्षक यह भी कहते हैं कि एक तो कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है, दूसरे गांधी परिवार के करिश्मे के भरोसे रहने की आदत ने भी उसका बेडा गर्क कर रखा है और तीसरे मनोनयन व तदर्थवाद की बैसाखियों ने उसके संगठन में प्रतिबंद्ध कार्यकर्ताओं को हां-हूजूरों की जमात से प्रतिस्थापित कर दिया है। ये तीनों बातें अपनी जगह सही हैं, लेकिन आजकल उसके नेताओं के बयानों व कार्यों को देखकर लगता है कि उसमें आंतरिक लोकतंत्र की जगह उच्छृंखलता व्याप रही है और केन्द्रीय नेतृत्व कमजोर हो गया है तो उसकी परवाह किए बगैर क्षत्रप बेझिझक अपनी-अपनी राय दे और अपने-अपने खेल खेल रहे हैं।
नेतृत्व की कमजोरी यहां तक है कि सोनिया की अंतरिम अध्यक्षता के एक साल बाद भी पार्टी कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं तलाश पायी है और जब तब इस मांग से बावस्ता होती रहती है कि उन राहुल को ही फिर से नेतृत्व संभाल लेना चाहिए, जिन्होंने गत आम चुनावों में हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और इस बात पर जोर दिया था कि पार्टी अपना अगला अध्यक्ष गांधी-नेहरू परिवार के बाहर से चुने। लेकिन पार्टी इस बाबत ठीक से सोच भी नहीं पाई और अभी भी गैर-गांधी अध्यक्ष की चर्चा से असहज महसूस करने लगती है। तिस पर उसके विरोधियों ने उसकी गांधी परिवार की पूजा करने वाली वंशवादी पार्टी की छवि इतनी स्थायी कर दी है कि बाकी पार्टियों की इस तरह की कमजोरियों की चर्चा तक नहीं होती और उसकी कमजोरियां सुर्खियांे में छाई रहती हैं।
अतीत में वह वैचारिक या स्वार्थी टकरावों में कई बार टूट का सामना कर चुकी है। इस कारण आज उसके अनेक नेता विरोधी पार्टियों में हैं तो शरद पवार, ममता बनर्जी और वाई एस जगनमोहनरेड्डी जैसे कई ने अपनी अलग पार्टियां बना ली हैं। कहा जाता है कि अब उसमें बचे नेताओं में ज्यादातर सत्ता की खातिर आदर्शों या विचारधारा को तिलांजलि देने को गलत नहीं मानते और कुछ ही ऐसे हैं, जिन्हें विचारधारा की अहमियत सत्ता से अधिक लगती है। लेकिन जिन्हें विचारधारा से ज्यादा सत्ता प्रिय है, उनमें से भी अनेक उसका साथ छोड़ ही चुके हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर रीता बहुगुणा जोशी और हेमंत बिस्वसरमा तक इसके दर्जनों उदाहरण हैं।
इस सिलसिले में एक और बात दिलचस्प है। राहुल की नेतृत्व क्षमता पर जितने सवाल कांग्रेस के बाहर उठाए जाते हैं, उतने कांग्रेस के अन्दर नहीं उठाये जाते। कांग्रेस के बाहर कई बहसों में कुछ पुराने कांग्रेसी, उनके समर्थक और स्वनामधन्य पत्रकार यह कहते पाये जाते हैं कि कांग्रेस को गांधी परिवार से मुक्ति पा लेनी चाहिए। कांग्रेस के भीतर फिर भी उसके खिलाफ कोई बगावत देखने में नहीं आती।
कई बार कई कथित शुभचिन्तकों द्वारा गांधी परिवार को यह बिना मांगी सलाह भी दी जाती है कि उसे स्वयं ही कांग्रेस में अपना वर्चस्व खत्म कर उसे मुक्त कर देना चाहिए। यकीनन, यह सलाह न सिर्फ गांधी परिवार बल्कि सारे कांग्रेसियों के विवेक को संदिग्ध करार देने की मंशा रखती है। अन्यथा उसे देने वालों को मालूम है कि देश में लोकतंत्र है और कांग्रेसियों के सामने गांधी परिवार को बोझ समझने के बावजूद कांगे्रस में बने रहने की कोई मजबूरी नहीं है। वे चाहें तो अनेक दूसरे नेताओं की तरह पार्टी छोड़कर जा सकते या कांगे्रस का अधिवेशन बुलाकर नेतृत्व परिवर्तन का फैसला कर सकते हैं। वे ऐसा करने के इच्छुक नहीं हैं तो बेमांगी सलाहों का कोई अर्थ नहीं है। न कांग्रेस में रहते हुए उसकी विचारधारा से अलग चलना या बयानबाजी करना ही ठीक है।
हां, मानना होगा कि अंतर्द्वंदों, असमंजसों व अनिर्णयों की कांग्रेस की बीमारी नई नहीं पुरानी है। अपने वसंत में वह इस बीमारी के बावजूद सुभीते से हंस, खिलखिला और बोल लेती थी, लेकिन अब पतझड़ के पार जाना है तो उसे इसका इलाज करना ही होगा। वह चाहे तो उसके इतिहास के कई उदाहरण इस इलाज में उसके काम आ सकते हैं। याद कीजिए, असहयोग आंदोलन के चरम पर होने के बावजूद चैरी-चैरा कांड के बाद महात्मा गांधी ने अचानक उसे स्थगित कर दिया था। इस फैसले का विरोध हुआ तो उन्होंने कहा था कि वे आन्दोलन की सफलता के लिए अहिंसा की विचारधारा से समझौता नहीं कर सकते। तब जनता निराश या हताश न हो, इसके लिए उन्होंने उसे रचनात्मक कार्यों से जोड़े रखा था। कांग्रेस को आज भी इसी तरह की पहल करने से किसी ने नहीं रोक रखा। भाजपा और नरेन्द्र मोदी की भावनात्मक मुद्दों की राजनीति का जवाब देने के लिए शुरू की गई उसकी कोई भी रचनात्मक पहल उसके अंतर्द्वंदों को खत्म करने में भी उपयोगी होगी।
राहुल गांधी की सारी विफलताओं के बावजूद कोरोनाकाल की उनकी राजनीति इस लिहाज से अच्छा संकेत है। इस दौरान वे देश-विदेश के विशेषज्ञों से चर्चाएं कर मोदी सरकार की काहिली और कमियां उजागर करते रहे हैं। लेकिन भविष्य बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि वे और कांग्रेस के दूसरे नेता अंदरूनी संघर्षों में उलझे रहने के बजाय देश की जनता की तकलीफों से सीधे साक्षात्कार का रास्ता अपनाकर पार्टी मशीनरी को उस दिशा में सक्रिय कर पाते हैं या नहीं। अगर नहीं तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि वे दिन हवा हो चुके हैं जब उनका या कांग्रेस का पसीना गुलाब हुआ करता था। अब इत्र भी मलेंगे तो पुरानी खुशबू के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
कृष्ण प्रताप सिंह, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।