देश की सुरक्षा को तो दलीय स्वार्थों से परे रखिये!
अभी गत छः फरवरी को ही विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने लाचारगी- सी जताते हुए कहा था कि पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर दस महीनों से चले आ रहे सैन्य गतिरोध को दूर करने के लिए चीन से अब तक हुए सैन्य कमांडर स्तर की वार्ता के नौ दौरों का जमीन पर कोई असर नहीं हुआ है। उनके शब्द थे, ‘हमें लगता है कि कुछ प्रगति हुई है, लेकिन उसे समाधान के तौर पर नहीं देखा जा सकता।’ लेकिन अब रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने ‘खुशी के साथ’ संसद को बताया है कि उक्त गतिरोध दूर करने के प्रयासों में ‘एक बड़ी सफलता’ मिल गई है। यह कि भारत व चीन दोनों पैगोंग झील के दक्षिणी व उत्तरी किनारों पर स्थित क्षेत्रों से अपनी सेनाएं पीछे हटाने पर सहमत हो गये हैं।
रक्षामंत्री के साथ खुश हुआ जा सकता था, अगर वे खुद यह न कहते कि अभी भी एलएसी पर सेना की तैनाती और गश्त से जुड़े कई विषय अनसुलझे पड़े हैं, साथ ही रक्षा मामलों के विशेषज्ञ उनकी खुशी पर सवाल न उठाते या उनके इस दावे से असहमत न होते कि इस समझौते में देश के एक इंच भूमि भी नहीं खोयी है। रक्षामंत्री के उलट विशेषज्ञों का कहना है कि इस समझौते के तहत चीन को फिंगर-4 तक गश्त करने अधिकार दे दिया गया है यानी एलएसी फिंगर-8 से फिंगर-4 पर शिफ्ट कर दी गई है।
साफ है कि यह अप्रैल, 2020 के पूर्व की स्थिति की बहाली नहीं है, जिसकी भारत की ओर से लगातार मांग की जाती रही है और इससे होगा यह कि भारत के जवान फिगर-3 के अपने बेस में रहेंगे, चीन फिंगर-8 के पूर्व में और परम्परागत स्थलों की, जिनमें फिंगर-8 भी शामिल है, गश्त स्थगित रहेगी, जब तक कि इस बाबत सैन्य या राजनयिक वार्ता में समझौता नहीं हो जाता।
तिस पर अभी यह तक साफ नहीं कि डेपसांग और अन्य क्षेत्रों में चीनी अतिक्रमणों को लेकर क्या तय हुआ है, जबकि यह इस लिहाज से बहुत जरूरी है कि शुरुआत से ही चीनी सेना का असल मकसद डेपसांग पर कब्जा करना रहा है और वहां से उसके हटने की कोई संभावना या संकेत अभी तक सामने नहीं आया है। फिर भी रक्षामंत्री खुश हैं तो सवाल है कि वे दुःखी भला कब होंगे? देश को दुःखी करने वाली कम से कम एक बात तो अभी भी है ही। यह कि न चीनी सेना के बयान में अप्रैल, 2020 से पहले की स्थिति की बहाली का कोई जिक्र है, न ही ये पंक्तियां लिखने तक इस बाबत भारत की सेना का ही कोई बयान आया है। बस, राजनीतिक बयानबाजियां की जा रही हैं। राहुल गांधी पूछ रहे हैं कि क्यों सरकार हमारे जवानों के बलिदान को अपमानित कर अपनी जमीन हाथ से जाने दे रही है, तो भी रक्षामंत्रालय का राजनीतिक बयान ही आया है : चीन के कब्जे में 1962 से ही हमारी 43000 वर्ग किलोमीटर जमीन है। है तो आप उसे वापस लेने के लिए सत्ता में आये हैं या और दे देने के लिए?
सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि चीन के साथ सैन्य गतिरोध शुरू होने के बाद से ही इस तथाकिात राष्ट्रवादी सरकार ने ‘साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं’ जैसा रवैया अपना रखा है। न खुलकर कुछ बोलती है, न ज्यादा बताती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बार इस गलतबयानी के बाद कि ‘न कोई हमारी सीमा में घुस आया है, न ही कोई घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है’ चीन का नाम तक जिह्वा पर नहीं ला पा रहे। हां, एक बार लद्दाख जाकर बिना नाम लिये उसको ललकार आये हैं और उससे सैन्य झड़प में हुई बीस जवानों की शहादत का बिहार विधानसभा चुनाव में लाभ लेते दिखाई दिये हैं। अब उनसे कम से कम इतना तो पूछा ही जाना चाहिए कि अगर चीन घुसा ही नहीं था तो क्या अपनी भूमि से ही अपनी सेनाएं वापस ले जा रहा है?
विदेशमंत्री की ‘लाचारगी’ व रक्षामंत्री की ‘खुशी’ में भी कोई समन्वय नहीं ही दिखता। उलटे लगता है कि सरकार में दाहिने हाथ को पता नहीं रहता कि बायां क्या कर रहा है, जबकि एक और चिंताजनक खबर जता चुकी है कि चीन का अतिक्रमण सिर्फ लद्दाख तक सीमित नहीं है, उसने हमारे अरुणाचल प्रदेश में एक गांव भी बसा लिया है। सुबनसिरी जिले के त्सारी चू नदी के किनारे बसे इस गांव में 101 घर हैं, जिसमें चीनी नागरिक रह रहे हैं। यह भारतीय सीमा के साढ़े चार किलोमीटर अंदर है। इस गांव में चौड़ी सड़कें और बहुमंजिला इमारतें बनाई गई हैं और घरों पर चीनी झंडे लगे हैं।
गौरतलब है कि त्सारी चू नदी के किनारे का यह वह क्षेत्र है, जिसे लेकर चीन से 1959 के बाद से कई बार झड़प हो चुकी है। 1959 में असम राइफल्स को हटाकर चीन ने इस पर कब्जा कर लिया था। 1990 के दशक के अंतिम वर्षों में उसने इस इलाके में सड़कों का जाल बिछाना शुरू किया और ताजा सैटेलाइट तस्वीरें बताती हैं कि यह गांव पिछले साल बसाया। यानी जिस वक़्त लद्दाख में भारतीय सैनिक चीनी सैनिकों को पीछे धकेलने में लगे थे, उस वक्त वह दूसरी सीमा पर भारत की जमीन पर कब्जा कर रहा था। इसके जवाब में नरेन्द्र मोदी सरकार ने अभी तक कुछ चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध भर लगाया है और उसे ही मुंहतोड़ जवाब बताती रही है।
जानकार कहते हैं कि 2017 में डोकलाम में भारतीय सेना के हाथों मात मिलने के बाद ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तिब्बत में ‘बॉर्डर डिफेंस विलेज’ बनाने की शुरुआत कर दी थी। तिब्बती संगठनों की मानें तो इसका मकसद तिब्बत और बाकी दुनिया के बीच अभेद्य ‘सुरक्षा बैरियर’ बनाना था। भारत के अरुणाचल प्रदेश में बसाया गया चीनी गांव भी इसी एजेंडे का हिस्सा बताया जाता है। भारतीय विदेश मंत्रालय का कहना है कि उसे इस बात की जानकारी है कि चीन ने पिछले कई वर्षों में ऐसी अवसंरचना निर्माण गतिविधियां संचालित की हैं, बदले में भारत सरकार ने भी सड़कों, पुलों आदि के निर्माण समेत सीमा पर बुनियादी संरचना का निर्माण तेज कर दिया है, जिससे सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाली स्थानीय आबादी को अति आवश्यक संपर्क सुविधा मिली है। लेकिन उसे बताना चाहिए कि क्या इतने से ही सरकार के कर्तव्य की इति हो जाती है?
अगर नहीं तो रक्षामंत्री चीन से जिस समझौते को बड़ी सफलता बताकर खुश हो रहे हैं, उसे इस समझ के आईने में देखने और किसी भी गफलत से बचने की जरूरत है कि भारत और चीन के बीच 3,488 किलोमीटर लंबी एलएसी को लेकर विवाद है और यह महज लद्दाख या अरुणाचल प्रदेश तक सीमित नहीं है। चीन जिस अकड़ के साथ अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताकर भारत की संप्रभुता को चुनौती देता रहा है, उससे शायद ही किसी को लगता हो कि उसके दावे को खारिज करने या जबानी चेतावनी देने भर से समस्या सुलझ जानी है।
इसलिए जरूरी है कि हमारे पास समूचे सीमा-विवाद को लेकर समग्र, सोची-समझी और सर्वस्वीकार्य रणनीति हो। यह रणनीति नेताओं के बजाय विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा करके बनाई जाये, तो और अच्छा। लेकिन विडम्बना यह है कि मोदी सरकार देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मसलों को भी राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिये से ही देखती और विश्लेषित करती है। कई बार तो जानकारों तक को समझ में नहीं आता कि वह कब किस विषय पर कौन- सी नीति अपना लेगी। ताजा समझौते पर रक्षामंत्री की खुशी के साथ भी कुछ ऐसा ही है। बेहतर होगा कि वे समझें कि देश की सुरक्षा से जुड़े मामलों में व्यापक तर्कसंगत दृष्टिकोण का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता।
कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।