ज्योतिबा फुले ने बहुजन भारत को अंधकार-युग से निकाला

संजय श्रमण
ओप-एड Published On :


ज्योतिबा फुले  (11 अप्रैल 1827-28 नवंबर 1890 ) को हमें उनके वास्तविक रूप मे देखने का प्रयास करना चाहिए। भारत मे ब्राह्मणवादी विचारधारा के मजबूत होते जाने के दौर मे दो विपरीत खेमों से आने वाले नेरेटिव और ग्रेंड नेरेटिव के संघर्ष को उसकी तार्किक पूर्णता मे देखने के प्रयास कम ही हुए हैं। एक विशेष अर्थ मे यह ब्राह्मणवादी खेमे के प्रतिपक्ष अर्थात बहुजन खेमे की वैचारिक असफलता भी कही जा सकती है।

भारत मे ओबीसी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सहित कनवर्टेड माइनोरिटी (मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध) को बहुजन कहा गया है। आधुनिक समय मे साहब कांशीराम की राजनीतिक प्रस्तावनाओं मे इस युति का आग्रह और इससे उपजी रणनीति नजर आती है। “बहुजन” की यह परिभाषा अपने दूरगामी राजनीतिक लक्ष्यों के लिए रची गयी थी और बीते कुछ दशकों मे इसने अपनी ताकत का प्रदर्शन भी किया था। लेकिन एक विशेष कारण से यह राजनीतिक रचना शक्तिशाली होने के बावजूद कुछ ही समय मे धराशायी हो गयी। आज ज्योतिबा फुले के जन्मदिन के अवसर पर हमें इस शक्तिशाली रचना के धराशायी होने के वास्तविक कारणों पर विचार करना चाहिए। 

कांशीराम साहब के “बहुजन” का समानांतर अगर हम महामना ज्योतिबा फूले के लेखन मे खोजने की कोशिश करें तो वह “शूद्रातिशूद्र” है।  इसी की एक अन्य अभिव्यक्ति हम बाबा साहब अंबेडकर के लेखन मे पाते हैं जब वे “डिप्रेस्ड क्लासेस” शब्द का इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार महामना ज्योतिबा फुले, बाबा साहब अंबेडकर और साहब कांशीराम तीनों अपने अपने दिए गए शब्दों द्वारा भारत के गैर द्विज बहुसंख्यकों को संबोधित कर रहे हैं। ये बहुसंख्य-जन जो कि आज की संविधानसम्मत श्रेणियों मे ओबीसी, सनुसूचित जाति और जनजाति कहलाते हैं, एक जैसी सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक निर्योग्यताओं और बंधनों द्वारा सताये जा रहे हैं। द्विज या सवर्ण समाज ने सदियों से भारत मे जिस तरह के धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आधिपत्य का निर्माण किया है उसके नतीजे मे भारत के ओबीसी, अनुसूचित जाति एवं जनजाति (बहुजन) लोगों का सब तरह से शोषण हुआ है।  इस शोषण के इतिहास, इससे प्रभावित जनसंख्या और इससे प्रभावित भू-भाग की विशालता इत्यादि पर गौर करें तो पता चलता है कि यह दुनिया का सबसे संगठित, सबसे घिनौना और सबसे लंबा शोषण है जो आज भी जारी है। 

इस शोषण और दमन से मुक्ति के उपाय की कल्पना और रचना करते हुए भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, गोरखनाथ, कबीर, रैदास से लेकर ज्योतिबा फुले तक एक लंबी यात्रा नजर आती है। जिस तरह भारत मे ब्राह्मणवादी षड्यन्त्र और शोषण की लंबी कहानी है वैसी ही इससे मुक्ति के प्रयासों की भी एक लंबी कहानी है। इस कहानी मे ओबीसी माली समाज से आने वाले ज्योतिबा फुले जिस तरह से समाधान निर्माण करने का प्रयास करते हैं वह हमारे लिए बहुत विचारणीय है। दुनिया के इस सबसे भीषण सांस्कृतिक और वैचारिक युद्ध मे गौतम बुद्ध से लेकर ज्योतिबा फुले तक बहुत सारे नेरेटिव और विमर्श उभरते हैं जिनकी सफलताओं और असफलताओं के इतिहास से साहित्य भरा हुआ है। आदि-शंकर द्वारा बौद्ध धर्म के खिलाफ की गयी प्रति-क्रांति के बाद गोरखनाथ ने उत्तर भारत से ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक नई पहल की थी। उनके बाद कबीर और रैदास द्वारा जिस तरह की प्रस्तावनाएं आईं उनमे फिर से ब्राह्मणवाद को चुनौती देने की तैयारी और रणनीति नजर आती है। 

विशेष रूप से कबीर के बाद ब्राह्मणवाद से लड़ाई की जो धारा बनती और बहती है, वह अंग्रेजी हुकूमत के आने के बाद लगभग एक अनजान से रेगिस्तान मे खो जाती है। कबीर की क्रांति गाँव के गरीबों और अशिक्षितों के बीच कैद हो जाती है, भारत का बौद्धिक अभिजात्य कबीर को जिस तरह देखना और दिखाना शुरू करता है उसमे भक्ति और रहस्यवाद की अत्यधिक प्रशंसा द्वारा वह कबीर कि सामाजिक क्रांति को खत्म कर देता है। 

उपनिवेश काल मे ब्राह्मणवाद से लड़ाई की जो धारा अदृश्य हो चुकी थी उसे सबसे पहले और सबसे जोरदार ढंग से उठाने वाले नायक ज्योतिबा फुले हैं। उन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ चल रहे इस ऐतिहासिक संघर्ष को जिस ढंग से शुरू किया और जिस तरह उसकी तार्किक ऊंचाई तक पहुंचाया वैसा प्रयास हम इतिहास मे और कहीं नहीं देख पाते हैं। इसका एक विशेष कारण भी है। जब भारत मे मुगलों का शासन अपने शिखर पर था तब कबीर और रैदास जिस ढंग से काम कर रहे थे वह ढंग उपनिवेश काल मे चल भी नहीं सकता था। मुग़लों ने भारत की सामाजिक व्यवस्था मे और पारंपरिक शक्ति संरचना मे सीधे सीधे कोई हस्तक्षेप नहीं किया था। इसीलिए ब्राह्मणवाद द्वारा रचे गए शोषण के उपकरणों को पारंपरिक ढंग से अर्थात धर्म और अध्यात्म इत्यादि के फ्रेम-वर्क मे रखकर चुनौती दी जा सकती थी। हालांकि यह रणनीति इतिहास मे कभी भी सफल नहीं हुई लेकिन चूंकि शिक्षा और तकनीक के अभाव मे यही संभव था इसलिए तथाकथित भक्ति-काल के बहुजन नायकों ने इस तरीके का इस्तेमाल किया। 

लेकिन अंग्रेजी शासन मे आते आते यह स्थिति एकदम बदल गयी। यूरोप के पुनर्जागरण के बाद जिस ज्ञान का विस्फोट यूरोप मे हुआ उसका प्रकाश भारत मे भी अंग्रेजों द्वारा पहुंचा। अंगरेजी शासन की तमाम बुराइयों और दमन के बावजूद एक बात बहुत अच्छी हुई कि भौतिकवादी ज्ञान के आधार पर सामाजिक और राजनीतिक मुक्ति की चेतना भारत के बहुजनों मे स्थापित हो गयी। एक बार जब अंग्रेजों ने भारतीय समाज की मूलभूत शक्ति संरचना और इसके इतिहास सहित इसके धर्म-दर्शन का ठीक से अध्ययन कर लिया, उसके बाद उन्होंने इसमे बदलाव के प्रयास शुरू किए। उनकी योजना भारत के सबसे वंचित और शोषित तबके को साथ लेकर भारतीय समाज की शक्ति संरचना मे अपने लिए स्थान बनाने की थी। उनके इस निर्णय के तुरंत बाद ही भारत मे शूद्रों और अतिशूद्रों सहित महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खुलने लगे। 

ठीक इसी ऐतिहासिक बिन्दु पर ज्योतिबा फुले महाराष्ट्र मे सक्रिय होते हैं और देखते हैं कि प्राचीन संतों और राजाओं ने जिस तरह की रणनीति अपनाई है अब वह काम नहीं करने वाली। अब शिवाजी की तरह सशस्त्र विद्रोह, संतों की तरह याचना और भक्ति इत्यादि काम नहीं आने वाली है, यह समझकर उन्होंने यूरोपीय आधुनिकता द्वारा निर्मित नए अवसर का लाभ उठाते हुए सामाजिक मुक्ति के नए उपकरणों को परिभाषित करना आरंभ किया। ज्योतिबा फुले उपनिवेशी शासन के सबसे शक्तिशाली दौर मे सक्रिय थे और उस समय भारत मे पहली बार ओबीसी, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को शिक्षा और शासकीय सेवा मे रोजगार पाने का अवसर मिला था। इस अवसर के साथ अन्य हजारों अवसर भी निर्मित हुए थे जिनके आलोक मे सामाजिक मुक्ति, राजनीतिक मुक्ति और आर्थिक मुक्ति की अलग अलग धारनाएं और इनके भिन्न भिन्न उपकरणों की कल्पना करना संभव हुआ। 

ज्योतिबा फुले के पहले जितने भी बहुजन क्रांतिकारी हैं उनमे बहुजन मुक्ति के या शूद्रातिशूद्रों की मुक्ति के लिए एकसाथ इतने सारे प्रोपॉजल नहीं दिखाई देते जीतने कि हमें ज्योतिबा फुले मे दिखाई देते हैं। कबीर और रैदास मे हमें एक धार्मिक, दार्शनिक और भक्ति से ओत-प्रोत पहल नजर आती है जो बहुत हद तक आम जन को प्रभावित तो करती है लेकिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुक्ति की स्पष्ट कल्पना नहीं देती है। उन भक्त संतों मे जिस तरह के प्रतीकों और उपमाओं का प्रयोग देखने को मिलता है वे सब प्रतीक या तो पहले से ही ब्राह्मणवादी प्रतीक रहे हैं या बाद मे वे ब्राह्मणवाद द्वारा हजम कर लिए गए। ऐसे मे जो रणनीतिक शून्य निर्मित होता है उसमे ज्योतिबा फुले सक्रिय होते हैं और यूरोपीय आधुनिकता को आधार बनाते हुए एकदम नए ढंग से ब्राह्मणवाद से मुकाबला करने का मार्ग बनाते हैं। इस बीच स्वयं ब्राह्मणवाद भी मुगलों और अंग्रेजों की सेवा करते हुए नए उपायों के निर्माण द्वारा अपना सामाजिक धार्मिक वर्चस्व बनाना सीख रहा था। 

इस तरह उपनिवेशी काल मे भारत के बहुसंख्य शूद्रअतिशूद्रों को आधुनिकता और नए जमाने की सामाजिक राजनीतिक मुक्ति की तरफ ले जाने के लिए ज्योतिबा फुले क्रांति के एक नए ही मार्ग की रचना करते हैं। गोरख, कबीर या रैदास की तरह यह नया मार्ग धर्म, भक्ति या समर्पण पर नहीं बल्कि शिक्षा और ज्ञान की राजनीति के संघर्ष पर आधारित था। सामान्य स्कूली शिक्षा से कहीं आगे जाते हुए ज्योतिबा फुले पौराणिक कहानियों का जो विश्लेषण देते हैं उसमे वे शिक्षा और जागरूकता की परिभाषा ही बदल देते हैं। ऐसा करते हुए वे शिक्षा और ज्ञान कि पर बहस ही नहीं बदलते बल्कि ब्राह्मणवाद के उदय से पहले जिस तरह के भौतिकवाद और तर्क की आभा भारत मे फैली थी, उसे फिर से उजागर कर देते हैं। इस तरह बौद्ध धर्म के पतन के बाद ब्राह्मण धर्म के उदय के साथ भौतिकवादी ज्ञान की प्रणाली और तर्क की जो ज्योति भारत से लुप्त हो गयी थी, उसे ज्योतिबा फुले फिर से भड़काकर एक मशाल बना देते हैं। यही मशाल आगे चलकर बाबा साहब अंबेडकर के हाथों मे आती है और दावानल बनकर पूरे भारत मे बौद्ध धर्म की विराट आभा फैलाना शुरू कर देती है। 

ज्योतिबा फुले को अब तक जिस भांति देखा और दिखाया जाता रहा है उसमे ज्योतिबा फुले को एक सामाजिक सुधारक या शिक्षक की तरह चित्रित किया गया है। इसके अपने कारण रहे हैं। भारत मे किसी ओबीसी अर्थात शूद्र को महान विद्वान या क्रांतिचेता सिद्ध करना बड़ा कठिन काम है। तथाकथित ऊंची जातियों द्वारा संचालित मीडिया और साहित्य के गलियारों मे एक ओबीसी विद्वान या क्रांतिकारी को न्याय मिल भी नहीं सकता। इसीलिए बुद्ध कबीर, रैदास और गोरखनाथ की तरह ज्योतिबा फुले को भी लगभग इतिहास की धुंध मे दफन कर दिया गया है। लेकिन आधुनिक भारत मे विशेष रूप से बाबा साहब अंबेडकर और साहब कांशीराम के आने के बाद ज्योतिबा, पेरियार, अयंकाली, नारायण गुरु, आयोथी थास, ललई यादव, बाबू जगदेव कुशवाह जैसे असंख्य ओबीसी और अनुसूचित जाति जनजाति के महापुरुषों को नकार देना या भुला देना अब संभव नहीं है। 

ठीक से देखा जाए तो ज्योतिबा फुले आगमन के साथ ही भारत का इतिहास दो हिस्सों मे टूट जाता है। ज्योतिबा फूले के पहले का जो भारत है और उसमे बहुजनों की सामाजिक, राजनीति चेतना का जो स्वरूप है वह ज्योतिबा फुले के आने के बाद बिल्कुल एक नया ही रूप और आकार ले लेता है। उनके साथ बहुजन मुक्ति की ऐतिहासिक लड़ाई एक नए और निर्णायक दौर मे प्रवेश करती है जहां बहुजन भक्ति, समर्पण और याचना नहीं कर रहे हैं बल्कि ज्ञान विज्ञान और नयी राजनीतिक चेतना के हथियार से अपना हक छीन लेने के लिए संगठित हो रहे हैं। ज्योतिबा फूले के आने के साथ शोषण के कारणों की व्याख्या और शोषण से मुक्ति की रणनीति पूरी तरह बदल जाती है। पूरा बहुजन भारत जैसे एक अंधकार युग से आधुनिक युग मे छलांग लगाता है। इसीलिए आज ज्योतिबा फुले के जन्मदिन पर हमें उन्हे भारत की आधुनिकता के पिता की तरह पहचानना चाहिए।

 


   

  • संजय श्रमण (संजय श्रमण जोठे मूलतः मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीय, गैर शासकीय संस्थाओं, विश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं। यह लेख एक साल पहले  भी इसी दिन प्रकाशित हुआ था।)