सेवानिवृत्ति के बाद जजों को मिलने वाली नियुक्ति न्यायपालिका की आजादी और गरिमा पर ‘धब्बा’ है।
यह बात देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अपने कार्यकाल के दौरान एक मामले की सुनवाई करते हुए कही थी। अपनी सेवानिवृत्ति के महज तीन महीने बाद ही अब रंजन गोगोई राज्यसभा के सदस्य हो गए हैं। राष्ट्रपति ने उन्हें सरकार की सिफारिश पर संसद के उच्च सदन का सदस्य मनोनीत किया है।
रंजन गोगोई ने प्रधान न्यायाधीश के रूप में अपने 13 महीने के कार्यकाल के दौरान कई मामलों में सरकार के मनमाफिक फैसले दिए हैं। उनके इन फैसलों की न्यायिक निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठे हैं और न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर देश के आम आदमी का भरोसा डिगा है। इसीलिए अब राज्यसभा में उनके मनोनयन को लेकर भी अगर सवाल उठ रहे हैं तो ऐसा होना स्वाभाविक ही है। सवाल उठाने वालों में राजनीतिक दलों के नेता और कई वरिष्ठ वकील तो हैं ही, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है सुप्रीम कोर्ट में रंजन गोगोई के ही समकक्ष रहे सेवानिवृत्त जस्टिस मदन बी. लोकुर का सवाल।
जस्टिस लोकुर ने एक अंग्रेजी अखबार को दी अपनी प्रतिक्रिया में कहा है, ”कुछ समय से अटकलें लगायी जा रही थीं कि जस्टिस गोगोई को क्या पुरस्कार मिलेगा, इसलिए राज्यसभा के लिए उनका मनोनयन आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि यह फैसला इतनी जल्दी आ गया। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता को फिर से परिभाषित करता है। क्या लोकतंत्र का आखिरी किला भी ढह गया?’’
जस्टिस गोगोई के राज्यसभा में मनोनयन के बाद न्यायपालिका की इसी स्वतंत्रता और निष्पक्षता को लेकर सोशल मीडिया पर भी लोग सवाल और शंकाएं उठा रहे हैं। ऐसे ही सवाल और शंकाए तब भी उठी थीं जब करीब दो साल पहले 2 जनवरी, 2018 को देश के न्यायिक इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने एक प्रेस कांफ्रेन्स के माध्यम से उस समय के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठाए थे। उन चार जजों में जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस लोकुर भी शामिल थे।
दो अन्य जज थे जस्टिस जे. चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन जोसेफ। चारों जजों ने अप्रत्याशित और अभूतपूर्व कदम उठाते हुए कहा था कि प्रधान न्यायाधीश द्वारा महत्वपूर्ण मामलों का आबंटन सही तरीके से नहीं किया जा रहा है। उन्होंने देश के लोकतंत्र को खतरे में बताते हुए कहा था कि कुछ मामलों में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा को कोई व्यक्ति बाहर से नियंत्रित कर रहा है। ऐसे मामलों में जज ब्रजगोपाल लोया की कथित संदिग्ध मौत की जांच का मामला भी शामिल था। चारों जजों का परोक्ष इशारा सरकार और प्रधान न्यायाधीश के रिश्तों की ओर था। जस्टिस गोगोई का उस प्रेस कांफ्रेन्स में शामिल होने का फैसला चौंकाने वाला था, क्योंकि अगले प्रधान न्यायाधीश के लिए वरीयता क्रम में उन्हीं का नाम था। ऐसे में उनका तीन अन्य जजों के साथ मिलकर ऐसे सवाल उठाना लोगों को जोखिम भरा लगा था। इसी वजह से जब जस्टिस गोगोई में लोगों को एक अलग ही उम्मीद की किरण दिखाई दी। कुछ समय बाद जब वे प्रधान न्यायाधीश बने तो लगा कि न्यायपालिका में काफी कुछ बदलने वाला है।
मीडिया से मुखातिब चारों जजों ने यद्यपि सरकार को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की थी, लेकिन सरकार और सत्तारुढ दल के प्रवक्ताओं ने उन चार जजों के बयान पर जिस आक्रामकता के साथ प्रतिक्रिया जताई थी और प्रधान न्यायाधीश का बचाव किया था, वह भी न्यायपालिका की पूरी कलंक-कथा को उजागर करने वाला था। उस समय सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीवी सावंत ने एक टीवी इंटरव्यू में चारों जजों के बयान को देशहित में बताते हुए कहा था कि देश की जनता यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी न्यायाधीश भगवान नहीं होता। न्यायपालिका के रवैये पर कठोर टिप्पणी करते हुए उन्होंने दो टुक कहा था कि अदालतों में अब आमतौर पर फैसले होते हैं, यह जरूरी नहीं कि वहां न्याय हो।
जस्टिस गोगोई ने प्रधान न्यायाधीश बनने के कुछ ही दिनों बाद ही अर्ध-न्यायिक ट्रिब्यूनलों से जुडें कानूनों से संबंधित 18 याचिकाओं की सुनवाई करते हुए जजों की सेवानिवृत्ति के बाद होने वाली नियुक्तियों पर सवाल उठाए थे। जस्टिस गोगोई की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की संविधान पीठ ने कहा था, ”एक दृष्टिकोण है कि सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति न्यायपालिका की न्यायिक स्वतंत्रता पर एक धब्बा है। आप इसे कैसे संभालेंगे।’’
जो बात उस वक्त जस्टिस गोगोई ने कही थी, वही बात अब उनके राज्यसभा के लिए मनोनीत किए जाने पर उनके पुराने सहयोगी जस्टिस लोकुर कह रहे हैं। जस्टिस लोकुर के इस सवाल में बेहद गंभीर संदेश है कि क्या लोकतंत्र का आखिरी किला भी ढह गया? यह सवाल न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ ही न्यायपालिका और सरकार के रिश्तों पर भी गंभीर टिप्पणी है।
ऐसा नहीं है कि जस्टिस गोगोई पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें सरकार के मनमाफिक फैसले देने के बदले सेवानिवृत्ति के बाद पुरस्कृत किया गया है। इससे पहले भी ऐसे कई उदाहरण हैं। छह वर्ष पहले पूर्व प्रधान न्यायाधीश पी. सदाशिवम को भी इसी सरकार ने केरल का राज्यपाल बनाया था। कहने की आवश्यकता नहीं कि जस्टिस सदाशिवम को यह पद मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह को आपराधिक मामलों में बरी करने के बदले पुरस्कार स्वरूप मिला था। इससे पहले कांग्रेस के शासनकाल में भी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को उपकृत करने के कई उदाहरण मौजूद हैं।
सरकार और न्यायपालिका के इसी नापाक गठजोड के चलते न्यायतंत्र पर मंडराते विश्वसनीयता के संकट ने ही करीब एक दशक पहले देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एस.एच. कापडिया को यह कहने के लिए मजबूर कर दिया था कि जजों को आत्म-संयम बरतते हुए राजनेताओं, मंत्रियों और वकीलों के संपर्क में रहने और निचली अदालतों के प्रशासनिक कामकाज में दखलंदाजी से बचना चाहिए। 16 अप्रैल 2011 को एमसी सीतलवाड स्मृति व्याख्यान देते हुए न्यायमूर्ति कापडिया ने कहा था कि जजों को सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति के लोभ से भी बचना चाहिए, क्योंकि नियुक्ति देने वाला बदले में उनसे अपने फायदे के लिए निश्चित ही कोई काम करवाना चाहेगा। उन्होंने जजों के समक्ष उनके रिश्तेदार वकीलों के पेश होने की प्रवृत्ति पर भी प्रहार किया था और कहा था कि इससे जनता में गलत संदेश जाता है और न्यायपालिका जैसे सत्यनिष्ठ संस्थान की छवि मलिन होती है।
ऐसा भी नहीं है कि सारे ही जज अपनी सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से उपकृत होने के लिए तैयार बैठे रहते हों। कई उदाहरण हैं, जिनमें सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीशों और न्यायाधीशों ने अपनी सेवानिवृत्ति की बाद अन्यत्र नियुक्ति की सरकार की पेशकश को ठुकराया है। इस सिलसिले सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश रहे जस्टिस जगदीश शरण वर्मा और जस्टिस वीएन खरे को भी उनकी सेवानिवृत्ति के बाद तत्कालीन सरकारों की ओर से अन्यत्र नियुक्ति की पेशकश की गई थी, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। इसी तरह की पेशकश जस्टिस चेलमेश्वर को भी की गई थी लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता को लेकर लोगों में गलत संदेश जाएगा।
बहरहाल, देश की न्यायपालिका की आज जो दशा है, इसकी चेतावनी एक साल पहले ही सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए जस्टिस कुरियन जोसेफ ने दे दी थी। अपनी सेवानिवृत्ति से एक दिन पहले एक इंटरव्यू में उन्होंने न्यायपालिका के संदर्भ में कहा था कि मौजूदा स्थिति को देखते आने वाले समय में माहौल और खराब हो सकता है। आम तौर पर सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट से सेवानिवृत्त होने वाले जज भविष्य में किसी नई नियुक्ति की प्रत्याशा में सरकार को अप्रिय लगने वाली बातें बोलने से बचते हैं, लेकिन न्यायमूर्ति जोसेफ ने जो बात कही थी, उससे जाहिर है कि ऐसी कोई प्रत्याशा उन्होंने नहीं पाल रखी थी। उन्होंने जो आशंका जताई थी, वह उनकी सेवानिवृत्ति के बाद से लगातार सच साबित हो रही है। जस्टिस रंजन गोगोई का राज्यसभा के लिए मनोनयन उस आशंका की प्रतिनिधि मिसाल है। मौजूदा हालात देखते हुए कहा नहीं जा सकता कि ऐसी और कितनी खतरनाक मिसालें देखने को मिलेंगी।
अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं