“संवैधानिक और कानूनी उपायों के बावजूद लोकतंत्र को कुचलने वाली शक्तियां आज पहले से अधिक मज़बूत हैं. मैं यह नहीं कहता कि राजनैतिक तृत्व परिपक्व नहीं है.. लेकिन कुछ कमियों के कारण मुझे यह भरोसा नहीं है कि आपातकाल फिर से नहीं होगा…! (भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ;इंडियन एक्सप्रेस; 28 जून,2015)
समय, शासन और सत्तारूढ़ अध्यक्षों में विभिन्नता के बावजूद असाधारण महिमा मंडन की अभिन्न मानसिकता की अविच्छन्न निरंतरता को देखकर हैरत होना स्वाभाविक है. 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने ‘इमरजेंसी या आपातकाल’ देश पर थोपा था. सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के तब के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने प्रधानमंत्री का यशोगान करते हुए एक नायाब नारे का आविष्कार किया था- “इण्डिया इज़ इंदिरा, इंदिरा इज़ इंडिया”… पूरे आपातकाल यह नारा कोंग्रेसियों की जबान पर देश भर में ताण्डव करता रहा. भारत और इंदिरा एक दूसरे के पर्याय बना दिए गए या ‘एकमेव‘ हो गए. याद रखना चाहिए, विराट बहुलतामुखी जनसमूह, संस्कृति-सभ्यता-आकांक्षा- निश्चित भूभाग की चरम अभिव्यक्ति है देश व राष्ट्र. जबकि प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष का पद केवल संवैधानिक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का परिणाम होता है. इस पद पर व्यक्ति आते-जाते रहते हैं, लेकिन देश शेष रहता है. वह जनसमूह का स्थायी भाव है जिसकी क्रियात्मक अभिव्यक्ति है लोकतान्त्रिक राष्ट्र-राज्य. इसलिए भारत और इंदिरा एक दूसरे के पर्याय नहीं हो सकते. इसे याद रखना चाहिए आधुनिक चारणी पुत्र -पुत्रियों को.
यह विडंबनापूर्ण संयोग है कि देश की वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा अपनी पुश्तैनी विरोधी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष बरुआ से सौ कदम आगे बढ़ गए. कांग्रेस के पूर्व युवा अध्यक्ष राहुल गाँधी की भाषा से खिलवाड़ करते हुए उन्होंने घोषित कर दिया कि मोदी जी ‘सुरेंद्‘ हैं. हालाँकि राहुल का मंतव्य था ‘सरेंडर मोदी’ या दूसरे अर्थ में कह सकते हैं ‘समर्पण मोदी’.. राहुल गाँधी ने मज़ाकिया ढंग में ‘सरेंडर’ की स्पेलिंग ‘सुरेन्डर’ लिख दी। नड्डा भी इस मामले में पीछे नहीं रहने वाले थे। उन्होंने इस ‘सुरेंदर’ बना दिया. सुरेंद्र का दूसरा नाम ‘इंद्र’ या देवताओं के राजा. इंद्र शब्दों के साथ सुविधानुकूल आज़ादी दोनों ही नेताओं ने ले ली. पर आज़ादी की बात दूर तलक निकल गई।
यह मोदीजी के लिए प्रयुक्त संज्ञा नड्डा जी पर उलटी पड़ गयी. जिसका अपभ्रंश हो गया ‘भगवानों का ईश्वर‘ अर्थात मोदीजी इंसानों के ही नहीं, देवताओं या भगवानों के भी नेता हैं. भाषा का मनोविज्ञान है कि व्यक्ति की उपचेतना में चिंतन-संस्कार-क्रिया-प्रतिक्रिया के अभिव्यक्ति-लोक का निर्माण होता रहता है. शब्द या भाव ‘सुरेंद्र‘ शब्द अकस्मात अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि लम्बे समय से निर्मित हुई अभिव्यक्ति-लोक की क्रिया है. यही बात बरुआ जी पर लागू होती है. स्वामी भक्ति, चाटुकारिता, चारणवृति, पदलोलुपता, व्यक्ति-पूजा या पर्सनालिटी कल्ट, हीरो-वर्शिप जैसी प्रवृतियां व्यक्ति की विवेचनात्मक चेतना का अपहरण सबसे पहले करती हैं. उसे विश्लेषण व तर्क शून्य बना डालती हैं. इसके विपरीत समर्पण के भाव को बढाती व गाढ़ा करती रहती हैं. यदि सतर्क न रहें, तो फासीवाद-नाज़ीवाद-नस्लवाद-मोबलॉन्चिंग जैसी मानव-विरोधी घटनाओं में इनकी परिणीति होती रहती है. परिणामस्वरुप, त्रासदियां घटती रहती है.
इसका यह अर्थ नहीं है कि बरुआ या नड्डा इन त्रासदियों के समर्थक हैं. लेकिन, इतिहास में मानव विभीषिकाएँ इसलिए घटती रही हैं क्योंकि प्रवृतियों का सांस्थानीकरण हो जाता है और राज्य का वैसा ही चरित्र बन जाता है. शासक के रूप में व्यक्ति या नेता ऐसी प्रवृतियों को आत्मसमर्पित हो जाता है. वह अपने भ्रमों के माया-जाल में फंसता चला जाता है. इसके साथ ही जनता उससे दूर होती चली जाती है; 25 जून ‘75 से मार्च 1977 के दौर में यही हुआ. जनता बहुत दूर जा चुकी है और वह बरुआ के नारे की नागपाश की क़ैदी हो चुकी हैं- यह चेतना इंदिराजी में सूख चुकी थी. जनता उनपर हमेशा न्यौछावर रहेगी, इसी भ्रम में वे चुनाव हारने तक जीती रहीं. अन्तत: राजसत्ता उनके हाथ से पौने तीन साल के लिए फ़िसल गयी।
एक वक़्त था जब नेहरू-काल में समाज व राजनीतिक क्षेत्रों में यह सवाल समान था कि नेहरूजी के बाद कौन? उनका कोई विकल्प नहीं हैं। नेहरू के बाद भारत, भारत नहीं रहेगा। लेकिन 1964 में उनके निधन के पश्चात् भारत 21वीं सदी में भी ज़िंदा है। 1971 में पाकिस्तान की शिकस्त और बांग्लादेश के जन्म के बाद इंदिरा जी को “दुर्गा का अवतार” कहा गया था। मुझे यह भी याद है कि जनवरी 1980 में सत्ता में इंदिरा गाँधी की पुनर्वापसी के पश्चात कांग्रेस ने महाउत्सव जैसा वातावरण पैदा कर दिया था। संसद भवन के सेंट्रल हॉल में संसदीय दल के नेता के रूप में उनकी ताजपोशी की गई। इसके बाद महिमा मंडन-स्तुतिगान का सिलसिला शुरू हुआ। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने संजय गाँधी की तुलना ‘कृष्ण’ से की। उन्हें कांग्रेस का ‘कृष्ण सारथी’ घोषित किया गया। कितने ही अविश्वसनीय सम्बोधन हॉल में तालियों के बीच गूंजते रहे। इंदिरा जी और संजय गांधी, दोनों को महामानव के रूप में चित्रित किया गया। चापलूसों के घेरे में संजय गाँधी शाल ओढ़े शब्द तमगों का आनंद लूट रहे थे। उस समय यह लेखक रिपोर्टर की भूमिका में मौजूद था।
नड्डा जी मोदीजी के साथ कुछ नया किया है, ऐसा भी नहीं है। अनेक नेता प्रधानमंत्री मोदी को विगत में ‘अवतार‘ घोषित कर चुके हैं। इतना ही नहीं, कतिपय बुद्धिजीवी भी उन्हें अवतारी पुरुष कह चुके हैं। कांग्रेस से भाजपा में जानेवाले एक प्रख्यात भारतविद ने तो प्रवेश के साथ मोदी जी को ‘भगवान् का अवतार’ घोषित कर दिया था। कथित भारतविद के पिता प्रख्यात भाषाविद व पूर्व जनसंघ के वरिष्ठ नेता भी थे। बेशक़ मोदीजी बेजोड़ मंचीय वक्ता हैं।औसत व्यक्ति उनके भाषण की जादूगरी का शिकार हो जाता है और उनमें ‘देवत्व’ देखने लगता है। वह श्रद्धा भाव से ऐसा करता है, लेकिन सत्ता के लालची नेता मोदी जी में ‘ईश्वरत्व’ रोप देते हैं। उन्हें ‘डेमी गॉड’ बना देते हैं।
नेताओं पर ‘डेमी गॉड’ की सत्ता लाद देने का सिलसिला पुराना है। मुझे याद है, मंडल आंदोलन के दौरान नयी दिल्ली में अवतारी नेताओं को लेकर अजीबो गरीब पोस्टरों से दीवालों को पाट दिया गया था। सामाजिक न्याय- मंडल आंदोलन के दौरान लालू यादव -मुलायम सिंह यादव को ‘कृष्ण अवतार’ कहा गया था। दोनों की कृष्णरूपी तस्वीरें छापी गई थीं। सामान्य व्यक्ति श्रद्धाभाव से तस्वीरों को नमन किया करते थे। ‘लालू चालीसा’ भी लिखी गई थी। दक्षिण में अभिनेता से नेता बने सी.रामचंद्र, एन. टी. रामाराव जैसे लोगों को चुनाव के दौरान ‘डेमी गॉड’ के रूप में पेश किया जाता था। चुनाव कवरेज के दौरान मैंने देखा था कि किस प्रकार उन्हें भगवान् राम,कृष्ण, शिव के रूप में दिखाया जाता था क्योंकि राजनीति में आने से पहले वे फिल्मों में देवताओं की भूमिका निभा कर लोकप्रियता की पूँजी को बटोर चुके थे। चुनाव में इस पूँजी का नियोजन किया जाता रहा। डॉ. आंबेडकर जैसे प्रखर विद्वान को भी अब दलितों के देवता के रूप में निरूपित किया जा रहा है। जिस मुक्ति व समानता का मन्त्र उन्होंने फूंका था अब वह कर्मकांड बनता जा रहा है। ऐसे कृत्य को बाबा साहब के साथ ‘विश्वासघात’ ही कहा जायेगा।
वास्तव में पिछड़े समाजों व देशों में जनता नेताओं को काफी हद तक भूमि पर देवताओं के रोल मॉडल के रूप में देखती है। शातिर राजनीतिक दल मिथकीय मिसालों, प्रतीकों, बिम्बों, रूपकों, उपमाओं,कथाओं का खूब इस्तेमाल करते हैं। ऐसा करके वह मतदाताओं की भावनाओं को जाग्रत कर और फिर उसका दोहन करते हैं। मिथकों की बाढ़ में विवेक, तर्क, विश्लेषण, विवेचना बहते चले जाते हैं, शेष रह जाती है ‘भावना’ और भक्तगण इसका अकूत दोहन कर सत्ता पर काबिज़ हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में लोकतंत्र हाशिये पर खिसकता चला जाता है।
लोकतंत्र की रक्षा व मज़बूती के लिए ज़रूरी है कि राजनीतिक भक्तगण अपने नेता या नायकों को ज़मीन पर ही रहने दें, उसमें ‘अवतारत्व’ का रोपण न करें। यदि ऐसा करते हैं तो हम लोकतंत्र व संविधान के साथ विश्वासघात करते हैं। इतना ही नहीं, फासीवाद -नाज़ीवाद -नस्लवाद -जातिवाद को दावतनामा भेजते हैं। कभी सुना -देखा है कि अत्यंत विकसित समाजों-देशों के नेताओं को ईश्वर या क्राइस्ट के अवतार के रूप में चित्रित किया गया हो ? यहां तक की भारत में भी वामपंथी नेताओं ( नम्बूदरीपाद, ज्योति बसु, ए. के. गोपालन, डांगे, नृपेन चक्रवर्ती आदि ) को कभी ‘डेमी गॉड’ बनाया गया हो?
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि कार्यकर्ता से नेता और फिर राजनेता बने। इस दृष्टि से देश के दक्षिणपंथी राजनीतिक दल महात्मा गाँधी की बहुमुखी लोकयात्रा से काफी कुछ सीख सकते हैं। याद रखें, अवतारवाद-संस्कृति नवब्राह्मणवाद की पुनर्वापसी का मार्ग ही सुनिश्चित करती है !
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।