अखिलेंद्र प्रताप सिंह
7 जुलाई 2020 के हिंदुस्तान अखबार ने अपने संपादकीय में लिखा है कि भारत व चीन के तनाव में सुधार के संकेत हैं। लेकिन वह आगे लिखता है कि यदि चीन गलवान से पीछे हटा है तो भी हमें अपनी उदारता दिखाने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। भूटान की जमीन पर भी उसका दावा चर्चा में है। बहुत सारे रक्षा विशेषज्ञ भी इसी तरह की बात कर रहे हैं और कुछ एक उदारमना लोग तो यहां तक कहते हैं कि चीन पर कतई विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि चीन भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। उनके लिए चीन स्वभाव से ही विस्तारवादी है और उसका अपने सभी पड़ोसी देशों से सीमा विवाद है। लेकिन बहुत से ऐसे लोग हैं जिनका मानना है कि भारत व भूटान को छोड़ दिया जाए तो चीन ने अपने पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद हल कर लिया है। जहां तक दक्षिण चीन सागर, हांगकांग और ताइवान की बात है जिसमें चीन उलझा हुआ है उसकी कहानी ही अलग है, सामान्य सीमा विवाद की श्रेणी में यह मसला नहीं आता है।
खैर जो भी हो 15-16 जून की रात को बिहार रेजीमेंट के कमांडिंग ऑफिसर सहित 20 भारतीय सैनिकों को मार दिया जाना बेहद अफसोसजनक है और निंदनीय है। जबकि 6 जून 2020 को भारत और चीन के वरिष्ठ सैन्य कमांडरों की बैठक में यह तय हो गया था कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव घटाया जाए और स्थिरता, शांति व अमन-चैन कायम किया जाए। 3 हफ्ते से अधिक तनाव के बीच में दोनों देशों की सेनाओं के पीछे हटने के सवाल पर भले ही कुछ विशेषज्ञों और दलों का मत भिन्न हो लेकिन यह एक अच्छी बात है। 5 जुलाई को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी से वार्ता जरूरी थी। राजनीतिक स्तर पर इस तरह की उच्च स्तरीय वार्ता पहले ही होने की जरूरत थी। बहरहाल इसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। सीमा विवाद पर 1993, 1996, 2005, 2013, 2015 को भारत और चीन में जो सहमति बनी हुई थी, उसके सार को लेकर भारत और चीन के बीच वर्तमान और औपनिवेशिक काल से मिली समस्याओं पर वार्ता और समाधान की कोशिश करना चाहिए।
भारत संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। चाहे जिस रूप में हो संसदीय जनतंत्र यहां की राजनीतिक व्यवस्था है और उसी के तहत सभी दल आम तौर पर काम कर रहे हैं। आपातकाल जरूर एक अपवाद रहा है। लेकिन आज की परिस्थिति गुणात्मक तौर पर भिन्न होती जा रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा देश में फासीवादी राजनीतिक व्यवस्था और सभ्यता के लिए कटिबद्ध दिखते हैं। यहां सामाजिक शक्तियों के राजनीतिक संतुलन पर निर्भर करेगा संसदीय जनतंत्र का भविष्य और भारत की विदेश नीति की दिशा। विदेश नीति में चाहे जो भी कमजोरी रही हो, उसमें अन्य देशों के साथ बराबरी और महाशक्तियों के सापेक्ष संतुलन रहा है, उसकी निर्गुण मुद्रा रही है। यूपीए सरकार के समय से ही विदेश नीति का संतुलन कमजोर हुआ। मोदी सरकार ने अमेरिका की भारत प्रशांत सैन्य रणनीति के साथ बांधने के लिए तेजी से कदम उठाये हैं। भारत क्वाड का सदस्य बन गया है और अमेरिका, भारत, जापान तथा ऑस्ट्रेलिया से बने इस चतुर्भुज का स्तर भी बढ़ाया गया है और इसकी बैठकों में अब मंत्री स्तर के लोग शामिल होते हैं। इस तरह भारत अमेरिका द्वारा चीन की जा रही घेराबंदी में सहयोगी होता जा रहा है, यहां तक कि कोविड-19 जैसी महामारी के लिए अमेरिका के साथ खड़े होकर भारत ने भी चीन को जिम्मेदार ठहरा दिया। कहने का मतलब यह है कि भारत प्रशांत सैन्य रणनीति का हिस्सा बनकर अमेरिका और चीन के झगड़े में अनावश्यक रूप से अपने को उलझा लिया है जो कहीं से भी राष्ट्र हित में नहीं है।
अमेरिका चीन की घेराबंदी के लिए हमारे हिमालय क्षेत्र के देशों को भी भारत प्रशांत रणनीति का हिस्सा बनाने में लगा हुआ है। कुछ उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है। तिब्बत के बारे में अमेरिका के रूख में एक नया बदलाव दिख रहा है। तिब्बती नीति और समर्थन अधिनियम अमरीकी प्रतिनिधि सभा में सर्वोच्चता के साथ 2020 में पारित हुआ है। अन्य औपचारिकताओं के साथ तिब्बती संस्कृति और पहचान के लिए अमरीकी कानून यह बन जाएगा। यह बिल केंद्रीय तिब्बती प्रशासन को बल देते हुए तिब्बत की स्वायत्तता, मानवाधिकार, संस्कृति, पर्यावरण और पठारी क्षेत्र के संरक्षण पर जोर देता है। अमेरिका पर्यावरण हो, मानवाधिकार हो या दूसरे देशों की स्वतंत्रता हो उसका कितना आदर करता है यह सभी को मालूम है। दुनियाभर की तकनीक और पूंजी पर कब्ज़ा करके अमेरिकी शासक वित्तीय सम्राट बना हुआ है और दुनिया को एक धुव्रीय बनाएं रखना चाहता है. ताकि सभी देश उसके इर्दगिर्द ही धूमते रहे. उसका मकसद हिमालय क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाना है और यह भारत के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
नेपाल और भारत में काला पानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख का विवाद तो है लेकिन यहां भी अमेरिका नेपाल को भारत प्रशांत रणनीति का हिस्सा बनाने में लगा हुआ है। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थाई कमेटी में यह विवाद उभरा कि अमेरिका के मिलेनियम चैलेंज कारपोरेशन (एमसीसी) से नेपाल को पैसा नहीं लेना चाहिए। क्योंकि यह अमरीकी इंडो पैसिफिक रणनीति का हिस्सा है जिसमें सैन्य घटक हैं जो चीन को घेरने के लिए है। डोकलाम के बाद अभी जो चीन-भूटान विवाद सुनाई दे रहा है वह वन्य जीव अभ्यारण को अमेरिकी एजेंसी द्वारा दिए जा रहे फण्ड के संदर्भ में था। यह बता दें कि भूटान का यह जिला जिस पर चीन अपना दावा कर रहा है उसकी सीमाएं भूटान से नहीं मिलती है। भूटान का यह जिला और उसकी सीमाएं हमारे देश के अरुणाचल प्रदेश से मिलती हैं। चीन और भूटान में राजनयिक संबंध भी नहीं है और उसके लिए चीन भारत को ही दोष देता है। जो भी हो इस पूरे हिमालय क्षेत्र में अमेरिका बड़े पैमाने पर फंडिंग कर रहा है और जानकार तो यहां तक बताते हैं की नेपाल की सेना में भी अमेरिका का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। यह सब बातें भारत के लिए चिंता की होनी चाहिए और हिमालय क्षेत्र में अमेरिका की बढ़ रही घुसपैठ पर नजर रखनी चाहिए, महज चीन पर नजर रखने से काम नहीं चलेगा। हमें हिमालय क्षेत्र के देशों के साथ अच्छा संबंध विकसित करना चाहिए और हमारा रिश्ता उनके साथ बराबरी का हो न कि बड़े भाई जैसा होना चाहिए।
इस बार भारत-चीन के तनाव की व्याख्या अलग-अलग भले हो, लेकिन आम राय यही है कि दोनों देशों में युद्ध नहीं होना चाहिए और राजनयिक व राजनीतिक वार्ता से सीमा विवाद को हल किया जाना चाहिए। पड़ोसी मुल्कों से बेहतर संबंध बनाने की बात भी मजबूती से उठी है।
इस दिशा में बढ़ने के लिए हमें कश्मीर के मुद्दे पर भी गौर करना होगा। यह बताने की जरूरत नहीं है कि मोदी सरकार की कश्मीर नीति दमन की है और एक मायने में दुस्साहसिक भी है। अब नए सिरे से जम्मू कश्मीर समस्या पर विचार करना होगा और वहां के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर मोदी सरकार द्वारा हो रहे हमले के विरुद्ध देश में जनमत तैयार करने की कोशिश और तेज करनी होगी। यह मांग मजबूती से उठानी होगी कि मोदी सरकार वहां की जनता का विश्वास हासिल करने के लिए जम्मू-कश्मीर की अपनी नीति पर पुनर्विचार करे और कश्मीर की समस्या को लोकतांत्रिक ढंग से हल करे। गृह नीति और विदेश नीति का कोई यांत्रिक संबंध न होते हुए भी गृह नीति का प्रभाव तो विदेश नीति पर रहता ही है। जहां मोदी सरकार की गृह नीति दमन और उत्पीड़न की है वहीं चीन में भी सब कुछ अच्छा नहीं है। चीन की गृह नीति भी दमनात्मक होती जा रही है और चीनी विशेषता वाली उसकी बाजार अर्थव्यवस्था की नीति भी संकट में है। बेल्ट एण्ड रोड इनीशिएटिव (बी.आर.आई.) और अन्य माध्यमों से विश्व व्यापार बढ़ाकर चीन अपने आर्थिक संकट से कैसे निपटता है यह तो समय ही बतायेगा।
आज भारत चीन में युद्ध नहीं हो रहा है उसका एक प्रमुख कारण शक्ति संतुलन भी है। भविष्य में किसी टकराव से बचने के लिए हमें थोड़ा पीछे के इतिहास में भारत-चीन सीमा विवाद को समझना होगा। पंडित सुंदरलाल ने जो एक प्रसिद्ध गांधीवादी थे इस पर अच्छा लिखा है कि पंडित नेहरू चाहते हुए भी सीमा विवाद नहीं हल कर सके। दो महान देश और सभ्यताओं में जो टकराव हुआ उसने हमारे लोकतंत्र और विकास को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। भारत नई आर्थिक नीति के नाम पर देशी-विदेशी कारपोरेट वित्तीय पूंजी के चंगुल में आज फंस गया है और हमारे कृषि, रोजगार एवं छोटे-मझोले उद्योग चौपट हो रहे हैं। पंडित नेहरू चीन से वार्ता के पक्ष में तो थे, लेकिन सीमाओं का जो निर्धारण ब्रिटिश इंडिया में अंग्रेजों ने किया था, उससे एक इंच भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे। उनके ऊपर जन संघ और दक्षिणपंथियों का तो दबाव था ही, समाजवादी भी सीमा विवाद पर नेहरू के ऊपर आक्रामक थे।
चीन के विरुद्ध उनकी आक्रामकता इसलिए भी गौर करने लायक है क्योंकि जो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी सोवियत समर्थित कम्युनिस्ट पार्टी के इतर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद का नया प्रयोग कर रही थी जिनकी आधिकारिक विचारधारा मार्क्सवादी थी। इतिहास की विडम्बना देखिये उसके उत्तराधिकारी नहीं चाहते थे कि पंडित नेहरू सीमा विवाद पर कम्युनिस्ट चीन से वार्ता करें। जबकि सभी लोग यह जानते थे कि चीन और भारत में जो सीमांकन किया गया है वह ब्रिटिश इंडिया ने ताकत के बल पर किया था। डॉक्टर लोहिया भी मैकमोहन लाइन को साम्राज्यशाही की देन मानते थे और यह सभी लोग जानते थे कि मैकमोहन लाइन के समझौते में चीन का कोई प्रतिनिधि नहीं था। पश्चिम क्षेत्र में भी लद्दाख और लद्दाख स्थित अक्साई चीन के निर्धारण में चीन की कोई भूमिका नहीं थी। दरअसल ब्रिटिश इंडिया के शासक उस समय जार के रूस से उलझे हुए थे, क्योंकि रूस की नजर तिब्बत से लेकर सीक्यांग प्रांत तक थी। यह वही चीन का सिक्यांग प्रांत है जहां अभी उइगर की धार्मिक स्वतंत्रता की मांग उठाई जा रही है।
बहरहाल जो भी हो, भारत को अपनी विदेश नीति में बदलाव करना चाहिए और अमेरिका के भारत प्रशांत सैन्य रणनीति से अलग करना चाहिए। भारत राष्ट्र राज्य निर्माण के अभी भी प्रक्रिया में है। उसे लोकतंत्र को कुंजी मानते हुए नागरिकों में नागरिकता बोध पैदा करना चाहिए, सीमावर्ती क्षेत्रों में विकास करते हुए सीमा विवाद के मुकम्मल निस्तारण के लिए काम करना चाहिए चाहे वह चीन, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका या भूटान हो, लेकिन मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान का इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए जनमत बनाने के लिए साम्यवादियों, समाजवादियों, गांधीवादी और अंबेडकरपंथियों के साथ पर्यावरण आंदोलन और अन्य सामाजिक आंदोलन व राजनीतिक समूहों को एक राजनीतिक मंच पर आना चाहिए और देश में महामारी, आर्थिक संकट और सीमा विवाद हल के लिए सामूहिक प्रयास करना चाहिए एवं देश के अंदर हो रहे फासीवादी हमलों के खिलाफ लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक साथ आगे बढ़ना चाहिए।
अखिलेंद्र प्रताप सिंह, स्वराज अभियान के अध्यक्ष मंडल के सदस्य हैं।