बात किन्हीं एक या दो ‘तात्कालिक’, ‘संवेदनशील’ या ‘आग लगाऊ’ मुद्दों की ही नहीं है। अपने देश में हो या दुनिया में, गैरबराबरी व शोषण पर आधारित समाज व्यवस्थाओं में दलित-पीड़ित व वंचित तबकों और अल्पसंख्यकों के लिए इंसाफ की राह हमेशा कठिन रही है। कारण यह कि काजी तो दमनकारी राजाज्ञाओं का मुंह देखकर फैसले सुनाते ही रहे हैं, अदालतों को भी कानूनों की व्याख्या करने की ही इजाजत रही है, उनके पार जाने की नहीं। यह बात तो वैसे भी किसी से छिपी नहीं कि कानूनों की ‘उदारता’ का सारा लाभ उन्हीं वर्गों को मिलता है, जिनका उन्हें लागू कराने वाली एजेंसियों में दबदबा होता है। तिस पर अदालतें कभी उस चीनी संत की भूमिका में नहीं जातीं, जिन्हें जज बना दिया गया तो उन्होंने एक साहूकार के गोदाम में चोरी के मामले में जितनी सजा चोर को चोरी करने के लिए दी, उतनी ही साहूकार को जमाखोरी करने के लिए भी सुना दी। क्यांकि उन्हें लगा कि चोर की चोरी और साहूकार की जमाखोरी का एक दूजे से बहुत गहरा सम्बन्ध है।
शायद यही कारण है कि दुनिया भर की भाषाओं का साहित्य अदालती नाइंसाफी के मारे तबकों के कगले शिकवों से भरा पड़ा है। बटलासेई के चावल के तौर पर हिन्दी और उर्दू की ही बात करें तो कथासम्राट प्रेमचन्द की बहुचर्चित कहानी ‘नमक का दरोगा’ में धर्म और धन में युद्ध छिड़ा तो ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा के धनी दरोगा वंशीधर को भी इंसाफ नहीं ही मिला था। इसका कारण, प्रेमचन्द के ही अनुसार, यह था कि वंशीधर के पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से डांवाडोल और वकीलों की सेना उन्हें हर हाल में परास्त कर देने पर आमादा। अदालत न्याय का दरबार थी, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। जहां पक्षपात हो, वहां न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती, इसलिए मुक़दमा शीघ्र ही समाप्त हो गया और वंशीधर को उद्दंड, विचारहीन और विवेक व बुद्धि से भ्रष्ट करार देकर मुअत्तली का परवाना पकड़ा दिया गया। स्वाभाविक ही था कि इसके बाद वंशीधर को लगा कि न्याय और विद्वत्ता, लंबी-चौड़ी उपाधियां, बड़ी-बड़ी दाढ़ियां और ढीले चोंगों में एक भी सच्चे आदर का पात्र नहीं है।
उर्दू काव्यसंसार ने भी अदालतों की ऐसी कारस्तानियों को बहुत नजदीक से देखा है। मिसाल के लिए : वही कातिल, वही शाहिद, वही मुंसिफ ठहरा, अकरबा मेरे करें कत्ल का दावा किस पर?…उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ, हमें यकीं था, हमारा कुसूर निकलेगा।…पेश तो होगा अदालत में मुकदमा बेशक, जुर्म कातिल के ही सर हो ये जरूरी तो नहीं।….मैं अपनी वफा का हिसाब किससे मांगती, वो शहर भी तेरा था, अदालत भी तेरी थी। इसी तरह एक शायर देखता हैं कि ‘उन्हीं की अदालत, उन्हीं का मुद्दई और उन्हीं का मुंसिफ’, तो अपना यह यकीन मुकम्मल कर लेता है कि ‘वो बेकुसूर ही निकलेंगे।’ सुप्रसिद्ध शायर मलिकजादा मंजूर तो उससे भी आगे जाकर कह देते हैं- वही कातिल, वही मुंसिफ, अदालत उसकी, वो शाहिद, बहुत से फैसलों में अब तरफदारी भी होती है!
प्रसंगवश, मुगल बादशाहों में जहांगीर को सबसे ज्यादा इंसाफपरस्त बताया जाता है। उन्होंने अपने वक्त में कई न्यायिक सुधार तो किये ही, आगरा के किले में एक ‘घंटा’ भी लगवाया, जिसे बजाकर कोई भी पीड़ित कभी भी इंसाफ की मांग कर सकता था। जहांगीरी नाम के इस घंटे में, कहा जाता है कि, साठ घंटियां थीं और उसकी जंजीर 240 किलो सोने से निर्मित थी। उसे शाहबुर्ज से नीचे यमुना की ओर लटकाया गया था और कोई फरियादी उसे बजाता तो बादशाह खुद इंसाफ करने पहुंचते थे। यां, उन्होंने रियाया की शिकायतें सुनने के लिए मंगलवार का दिन तय कर रखा था।
लेकिन शिकार को निकली मलिका-ए-आलिया नूरजहां के तीर से आहत होकर एक धोबी की मौत हो गई और उसकी पत्नी ने उक्त घंटा बजाकर इंसाफ की गुहार लगाई तो जहांगीर का इंसाफ भी ‘खून के बदले खून’ के सिद्धांत पर आ टिका। कुछ और नहीं सूझा तो उन्होंने पीड़िता से कह दिया कि नूरजहां ने जिस तीर से तुम्हारे पति को मारा है, तुम उसी से उसके पति को यानी मुझे भी मार डालो! यकीनन, वे आश्वस्त रहे होंगे कि उनका यह फैसला अमल में ही नहीं आ सकता। लेकिन अमल में आता भी तो इंसाफ नहीं बदला ही सिद्ध होता। इसीलिए उनके बाद के कई विचारकों ने बेझिझक होकर कहा कि ‘खून के बदले खून’ का सिद्धांत दुनिया को मरघट में तो बदल सकता है, उसमें इंसाफ की प्रतिष्ठा नहीं सकता। वैसे ही, जैसे आंख के बदले आंख का सिद्धांत किसी को आंखं नहीं दे सकता।
इसीलिए राजशाही के बुरे दिन आये और समता व बन्धुत्व पर आधारित लोकतंत्र की बयार बही तो यह उम्मीद खूब परवान चढ़ी कि अब नये न्यायिक विवेक से काम लिया जायेगा, हालात पीड़ितों के पक्ष में बदलेंगे और वादी का हित सचमुच सर्वोच्च हो जायेगा। लेकिन क्या वाकई ऐसा हो पाया है? हाल में आये कई बड़े विवादों के बहुचर्चित अदालती फैसले, उनमें से एक दो का नाम लेना फिजूल है, जिस तरह पीड़ितों को इंसाफ देने के बजाय, इंसाफ से उनकी दूरी बढ़ाने वाले सिद्ध हुए हैं, उनकी रौशनी में कोई भी शख्स इसकी गवाही नहीं दे सकता। इससे भी बड़ी विडम्बना यह कि देशवासी जिन सत्ताधीशों को हालात बदलने के उनके वायदे पर यकीन करके सत्ता में लाये थे, वे और उनके समर्थक उन्हें बदलने में दिलचस्पी लेने के बजाय हरचन्द कोशिश करने लगे हैं कि जो भी हालात हैं, उन्हें इस बिना पर जस का तस स्वीकार किये रखा जाये कि वे पहले भी इतने ही बुरे थे।
पंजाब में सिख आतंकवाद के दिनों की मिसाल देते हुए वे कहते हैं कि उसे काबू करने में लगे सुपरकाप केपीएस गिल को भी अदालतों से कुछ कम शिकायतें नहीं थीं। वे कहते थे कि पुलिस बड़े-बड़े खतरे उठाकर जिन दुर्दान्त आतंकवादियों को गिरफ्तार करती थी, उनके खौफ से आशंकित अदालतें उन्हें दो मिनट में ही जमानत पर छोड़ देती थीं। इसी तरह अयोध्या विवाद में फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज कृष्णमोहन पांडे ने 1986 में एक फरवरी को एक वकील की अर्जी पर दूसरे पक्ष को सुने बिना विवादित बाबरी मस्जिद में बंद ताले खोल देने के आदेश दे दिये, तो आलोचनाओं का जवाब देते हुए कहा था कि उन्होंने उक्त फैसला अपनी अंतरात्मा की आवाज पर दिया। तब यह सवाल खूब पूछा गया था कि जजों को नियम-कानूनों के मुताबिक फैसले करने चाहिए या अंतरात्मा की तथाकथित आवाज पर?
ये दलीलें अपनी जगह सही हो सकती हैं, लेकिन इनकी बिना पर सत्ताधीशों कों हालात को बदलने का वादा न निभाने की छूट नहीं दी जा सकती। खासकर जब कई मायनों में साफ दिखने लगा है कि अदालतें कानून-कायदों की व्याख्या में और जो कुछ भी सुन रही हों, उन्हें बनाने वालों की अंतरात्मा की आवाज कतई नहीं सुन रहीं और उनके परिसरों में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जो पहले कभी नहीं हुआ। याद कीजिए, पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित बाहुबली विकास दुबे के मामले में सर्वोच्च न्यायालय को खुद पूछना पड़ा था कि उसके खिलाफ इतने आपराधिक मामले थे तो वह जमानत पर कैसे था? उसने इसे व्यवस्था की विफलता करार दिया तो फिलहाल ऐसी विफलता की दूसरी नजीर ढूंढ़ना मुश्किल हो गया। इस सवाल का जवाब भी अभी तक नदारत ही है कि न्यायमूर्ति रंजन गोगोई से पहले किस चीफ जस्टिस ने खुद पर यौन शोषण के आरोप की खुद सुनवाई की थी?
गौर कीजिए, आजकल अभियुक्तों को बरी करती हुई अदालतें टिप्पणी करती हैं कि जांच एजेंसी असंदिग्ध सबूत नहीं जुटा सकी तो इस सवाल का जवाब भी नहीं मिलता ये सबूत आमतौर पर तभी असंदिग्ध क्यों नहीं पाये जाते, जब उनकी बिना पर किन्हीं सत्तासेवियों को गुनहगार करार दिया जाना हो? क्या अर्थ है इसका? यही न कि हम ऐसे वक्त में खड़े हुए हैं, जिसमें लोकप्रिय राहत इंदौरी का यह सवाल और बड़ा हो गया है : ‘इंसाफ जालिमों की हिमायत में जायेगा !…ये हाल है तो कौन अदालत में जायेगा?”
कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।