दो दिन पहले जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया, तो सोशल मीडिया में इसको लेकर हंगामा मच गया. इतना ही नहीं, जस्टिस गगोई के सुप्रीम कोर्ट में सहयोगी रहे जस्टिस मदन लोकुर का कहना था, ‘मैं जस्टिस गोगोई को कुछ सम्मानजनक पद मिलने की उम्मीद तो कर रहे थे लेकिन आश्चर्य है कि यह इतनी जल्दी मिल गया.’ जस्टिस लोकुर ने आगे कहा, ‘राज्यसभा के लिए गोगोई का मनोनीत करना न्यायपालिका की आजादी, निष्पक्षता और विश्वसनीयता को नए सिरे से परिभाषित करेगा.’
जब जस्टिस लोकुर कह रहे हैं कि ‘नए सिरे से परिभाषित करेगा’, तो इसका मतलब स्पष्ट है कि यह नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा.
रंजन गोगोई ने अपने 13 महीने के कार्यकाल में कई वैसे फैसले दिए जो न सिर्फ सरकार के लिए मददगार रहे बल्कि सरकार को पूरी तरह राहत पहुंचाने वाले साबित हुए. जस्टिस गोगोई ने रिटायर होने से कुछ दिन पहले ही अयोध्या मामले में फैसला सुनाया था. अयोध्या मामले के अलावा गोगोई राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी), रफ़ाल विमान सौदा, सीबीआइ के निदेशक आलोक वर्मा को हटाए जाने, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश जैसे कई महत्वपूर्ण मामलों में फैसला सुना चुके हैं. वह बाबरी मस्जिद से जुड़ी उस उस बेंच की भी अध्यक्षता कर रहे थे जिसने बाबरी मस्जिद को तोड़कर खाली हुई जमीन हिन्दुओं को दिए जाने और वहां राम मंदिर बनाने का फ़ैसला सुनाया था. वैसे इस फैसले के बारे में खुद बेंच का कहना था कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस गैर-कानूनी था. बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि का मामला लगभग 70 साल पुराना था जिसे बीजेपी के कल्याण सिंह के शासनकाल में बीजेपी ने 6 दिसंबर, 1992 को तोड़ दिया था. इसी तरह रफ़ाल सौदे का भी एक मामला था जिसमें कोर्ट ने ज़्यादा कीमत पर रफ़ाल सौदे के आरोप की जांच को ज़रूरी नहीं बताया था.
प्रधान न्यायाधीश बनने के तत्काल बाद जस्टिस रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न के आरोप भी लग चुके हैं. उस आरोप के पहले दौर में गोगोई ने खुद को अपराधमुक्त कर लिया था. बाद में अपने उत्तराधिकारी जस्टिस बोबडे और संजीव खन्ना को जज नियुक्त कराने में रंजन गोगोई खुद शामिल रहे. (इस मसले पर कारवां मैगजीन ने विस्तार से लिखा है).
रंजन गोगोई को राज्यसभा में नियुक्त किए जाने को कई दक्षिणपंथी टिप्पणीकार सही ठहराते हैं और अपने तर्क में कहते हैं कि आखिर जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को भी तो कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में भेजा था? 1984 के सिखों के खिलाफ हुए नरसंहार की जांच के लिए जस्टिस रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में कांग्रेस पार्टी ने एक आयोग गठित किया था. उस रिपोर्ट में रंगनाथ मिश्रा ने कांग्रेस पार्टी को लगभग क्लीन चीट दे दी थी. फिर भी जब उन्हें राज्यसभा भेजा गया उस वक्त वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और रंगनाथ मिश्रा को सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए सात साल हो गए थे, लेकिन उन्हें मनोनीत नहीं किया गया था.
न्यायपालिका की कलंक-कथा का विस्तार है जस्टिस गोगोई का मनोनयन
वे कांग्रेस के टिकट पर 1998 में राज्यसभा गए थे. फिर भी इसे एक विवादित फ़ैसला ही माना गया क्योंकि इसे राजनीतिक फ़ायदा उठाने के तौर पर देखा गया. अगर उनके उस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए कि चूंकि रंगनाथ मिश्रा ने सिखों के नरसंहार में कांग्रेस पार्टी के क्लीन चिट दी थी इसलिए उन्हें राज्यसभा भेजा गया, तो क्या उनसे यही सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर किस-किस मामले में मोदी सरकार को ‘अभयदान’ दिए जाने के बदले उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया गया है?
जितने भी विवादास्पद मामलों में मोदी सरकार को रंजन गोगोई ने ‘अभयदान’ दिया है, उससे तो यह प्रमाणित होता है कि उन्हें उसके बदले उपकृत किया गया है, लेकिन रंजन गोगोई न सिर्फ खुद उपकृत हुए हैं बल्कि उन्होंने अपने परिवार को भी उपकृत करवाया है. इसका सबसे बढ़िया उदाहरण उनके बड़े भाई रिटायर्ड एयर मार्शल अंजन गोगोई है, जिन्हें नार्थ इस्टर्न काउंसिल (एनईसी) में पूर्णकालिक सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया है. अंजन गोगोई 28 फरवरी 2013 को एयर फोर्स से रिटायर हुए जबकि उन्हें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जनवरी 2020 में एनईसी के सदस्य के रूप में मनोनीत किया जिसके अध्यक्ष अमित शाह हैं और जिन्हें राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त है. अगर सचमुच अंजन गोगोई इतने ही प्रतिभाशाली हैं या थे तो उनकी सेवा मोदी के 2014 में सत्ता में आते ही लेनी चाहिए थी लेकिन उनको मनोनीत होने में कम से कम सात साल का इंतजार करना पड़ा. हकीकत यह भी है कि अंजन गोगोई ने अपने प्रोफेशनल जीवन का सबसे कम वक्त उस क्षेत्र में बिताया है जिसके विकास की जिम्मेदारी उनके कंधे पर डाल दी गयी है!
इसी तरह अगस्त 2014 में पी. सदाशिवम के प्रधान न्यायाधीश के पद से रिटायर होने के बाद मोदी सरकार ने उन्हें केरल का राज्यपाल नियुक्त किया था. इससे तीन महीने पहले ही मोदी की सरकार बनी थी, उस समय सरकार के उस फैसले की यह कहकर आलोचना हुई थी कि अमित शाह को तुलसीराम प्रजापति के फर्जी मुठभेड़ के मामले में बरी करने का ईनाम दिया गया है. वह मामला गुजरात से जुड़ा था और जब अमित शाह गुजरात के गृह राज्यमंत्री थे, उस समय सोहराबुद्दीन शेख़ के साथ तुलसीराम प्रजापति को भी फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया था जिसमें सोहराबुद्दीन की बीवी कौसर बी भी मारी गयी थी. इस मामले में जस्टिस सदाशिवम ने अमित शाह को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया था.
इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक गलती को दूसरी गलती करके आप कैसे छुपा सकते हैं?
आज के इंडियन एक्सप्रेस में अधिवक्ता अभिनव चंद्रचूड़ ने ‘हिदायतुल्ला इक्जाम्पल’ नाम से लिखे लेख में कहा है कि प्रिवी पर्स का मामला सुप्रीम कोर्ट में था जिसे इंदिरा गांधी की सरकार ने खत्म कर दिया था. वह मामला मो. हिदायतुल्लाह का प्रधान न्यायाधीश के रूप में अंतिम मुकदमा था. राजे-रजवाड़े ने सरकार के उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी थी. उसी बीच एक चर्चा उठी कि मो. हिदायतुल्ला को विश्व न्यायालय में या लोकपाल नियुक्त किया जा सकता है! यह जानकर हिदायतुल्ला को कुछ वकीलों के साथ-साथ न्यायाधीशों ने भी सलाह दी कि आप इस फैसले से अपने को अलग कर लें क्योंकि सरकार उन्हें रिटायरमेंट के बाद भी किसी पद पर बैठाना चाहती है.
मो. हिदायतुल्ला ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अगर उन्हें रिटायरमेंट के बाद किसी पद का ऑफर दिया भी जाता है तो वह उसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे. वह नहीं माने और प्रिवी पर्स के मामले में उन्होंने सरकार के पक्ष में फैसला दिया. वर्षों बाद मोहम्मद हिदायतुल्ला को जनता पार्टी की सरकार ने उपराष्ट्रपति के पद पर बैठाया. वैसे यहां मामला सही गलत का नहीं है. इंदिरा गांधी सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया गया और सात साल के बाद उसकी विरोधी सरकार ने उन्हें उपराष्ट्रपति मनोनीत किया.
ऐसा नहीं है कि हमारे संविधान निर्माताओं को इस बात की भनक नहीं थी. इसलिए उन्होंने तय किया था कि सुप्रीम कोर्ट से रिटायर जज किसी भी अदालत में वकालत नहीं करेंगे, लेकिन उन्हें यह कतई अहसास नहीं था कि मामला इतना संगीन भी हो जा सकता है. इसी बात पर संविधान सभा में केटी शाह, जो वकील के साथ-साथ अर्थशास्त्री भी थे, ने सलाह दी थी कि हाइ कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज को सरकारी पदों को स्वीकार नहीं करना चाहिए. उनकी सलाह को डॉक्टर आंबेडकर ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि न्यायपालिका का काम उस मामले में दखल देने का है जिसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होती है या होती भी है तो बहुत ही मामूली सी होती है. आंबेडकर की नज़र में उस समय न्यायपालिका का काम निजी झगड़ों को निपटाना होता था. उस समय नागरिक और सरकार के बीच मामले आने शुरू नहीं हुए थे. डॉक्टर आंबेडकर का इसलिए कहना था कि ऐसी परिस्थिति में इसका बहुत कम चांस है कि सरकार न्यायपालिका के फैसले को प्रभावित करे.
जिस बात को रंजन गोगोई और उनके समर्थक भूल जा रहे हैं, वो यह कि राज्यसभा में जस्टिस गोगोई को जब सांसद गोगोई बनाया जाएगा तब वह अपना बचाव कैसे करेंगे? क्या रंजन गोगोई को इस बात का अहसास है कि उनके पूर्ववर्ती दीपक मिश्रा के खिलाफ कांग्रेस पार्टी महाभियोग लाने की तैयारी कर रही थी, जिसे अंतिम पल में वापस ले लिया गया? कांग्रेसी सांसद उस वक्त की संवैधानिक मर्यादा का ख़याल रखकर भी बात कर रहे थे क्योंकि यह न्यायाधीश से जुड़ा मसला था. अब राज्यसभा में संवैधानिक मर्यादा नहीं होगी बल्कि किस बात पर न्यायमूर्ति गोगोई की पोल ‘सांसद’ गोगोई के रूप में खोली जाने लगेगी- इससे वह अपने को कैसे बचा पाएंगे? हो सकता है कि संसद में अभिषेक मनु सिंघवी चिमन सेठ की भूमिका में हों, लेकिन कपिल सिब्बल को वह कैसे रोक पाएंगे? पी. चिदंबरम अगर ‘अपने पर’ उतर आए तो ‘न्यायमूर्ति’ गोगोई के काम को ‘सांसद’ गोगोई कैसे डिफेंड कर पाएंगे!
यह भी उतना ही सही है कि वेंकैया नायडू के सभापति बनने के बाद परिस्थितियां काफी बदल गयी हैं, जहां मोदी के खिलाफ एक शब्द बोलना बंद करा दिया गया है लेकिन हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि संसद वह जगह है जहां कही गयी बातों का निपटारा संसद में ही होता है न कि दुनिया की किसी अदालत में- अर्थात वहां कहे गए के लिए आप किसी को कोर्ट नहीं ले जा सकते! और वहां सांसद गोगोई, न्यायमूर्ति गोगोई के किए काम और आचरण पर परदा नहीं डाल पाएंगे!
इसीलिए रंजन गोगोई के बारे में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने जो अपने फेसबुक पर लिखा है, वह काफी मौजूं है. इसे पढ़िएः
“मैंने बीस वर्षों तक वकालत की है और इतने ही वर्षों तक जज भी रहा हूं. इस दौरान मैंने बहुत ही अच्छे जजों को भी देखा है और उतने ही बुरे जजों को भी देखा है. लेकिन भारतीय न्याय व्यवस्था में रंजन गोगोई जैसा घटिया, कमीना और यौन विकृत इंसान नहीं देखा. दुनिया का हर दुर्गुण इस इंसान में मौजूद है. और अब यह बदमाश और कपटी इंसान भारतीय संसद की शोभा बढ़ाने जा रहा है!”
वरिष्ठ पत्रकार जितेन्द्र कुमार के साप्ताहिक स्तंभ “यहां से देखाे” के पिछले अंक यहां पढ़ें