कम्युनिस्टों के राज में ख़ुद को कितना बदल पाएगा चीन?

चंद्रभूषण चंद्रभूषण
ओप-एड Published On :


चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का बीसवां अधिवेशन इसी रविवार से शुरू हो रहा है। अपने गठन की एक सदी और चीन की सत्ता संभालने के सत्तर साल पूरे कर लेने के बाद उसके इस नीति निर्धारक आयोजन पर पूरी दुनिया की नजर है।

कम्युनिस्ट पार्टियों में ज्यादातर बड़े फैसले पार्टी कांग्रेस के पहले ही लिए जा चुके होते हैं और इसमें शामिल होने वाले प्रतिनिधि भी ठोक-बजाकर चुने जाते हैं। ऐसे में पेइचिंग के इस जमावड़े में कुछ बिल्कुल नया घटित हो जाने की उम्मीद किसी को नहीं है। लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के इस अधिवेशन में 40-45 वर्षों से चली आ रही कुछ रवायतें बदल रही हैं और आगे के लिए कुछ बड़े बदलावों का जिक्र भी कई सालों से हो रहा है, लिहाजा इस कायाकल्प के मायने समझने के लिए छोटे-छोटे ब्यौरों का इंतजार है।

चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के अगुआ माओ त्सेतुंग जबतक जिंदा रहे, बाहरी दुनिया को यही लगता रहा कि इस देश में रोज ही कोई न कोई क्रांति होती रहती है। लेकिन 1976 में उनकी मृत्यु के बाद ऊपर से नीचे तक कुछ ऐसी उथल-पुथल वहां देखी गई कि सामान्य स्थिति बहाल होने में भी काफी वक्त लग गया। लड़ाइयां ठंडी पड़ीं तो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का सत्ताशीर्ष संभालने वाले तंग श्याओ फिंग ने पार्टी और सरकार में बदलाव के कुछ बहुत पक्के नियम निर्धारित किए। इसके मुताबिक-

* जो व्यक्ति चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व करेगा, वही राष्ट्रीय सरकार और सेना का शीर्ष पद भी संभालेगा। ये दोनों बदलाव हर दस साल बाद दो-तीन महीनों के अंतर पर घटित होंगे।

*इन पदों पर नया व्यक्ति कौन आने वाला है, इसमें भी कोई दुविधा नहीं रहेगी। इसके स्पष्ट संकेत पांच साल पहले ही दे दिए जाएंगे। कुछ-कुछ उसी तरह, जैसे राजशाही में हर समय एक युवराज भी मौजूद होता है।

मौजूदा चीनी राष्ट्रपति और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव शी चिनफिंग की पहल पर यह व्यवस्था 2017 में हुए पिछले पार्टी अधिवेशन में ही समाप्त कर दी गई। शी का कहना था कि इससे यथास्थितिवाद को बढ़ावा मिल रहा है और भ्रष्टाचार के संस्थाबद्ध होने में यह बहुत बड़ी भूमिका निभा रही है। सत्ता के दलाल हर पार्टी कांग्रेस के बाद अगले सत्ताधारी से रिश्ते निकालने में जुट जाते हैं। यह दुष्चक्र तोड़ने के लिए पहला काम यह किया गया कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव का दस साल का निर्धारित कार्यकाल समाप्त कर दिया गया।

पार्टी का अधिवेशन चाहे तो किसी को दस साल से ज्यादा महासचिव बनाए रखे, न चाहे तो पांच साल पूरा करते ही हटा दे। इस फैसले की व्याख्या इस रूप में की गई कि इसके जरिये शी चिनफिंग ने खुद को जिंदगी भर सत्ताशीर्ष पर बनाए रखने का इंतजाम कर लिया है।

अभी शी चिनफिंग को दस साल पूरे हो चुके हैं और उनका तीसरी बार भी पार्टी और देश की सत्ता संभालना तय माना जा रहा है। इस अधिवेशन में सबसे ज्यादा गौर इस बात पर किया जाएगा कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व, पॉलित ब्यूरो स्टैंडिंग कमिटी में 55 से 60 साल के बीच की उम्र का कोई व्यक्ति शामिल होता है या नहीं, जिससे आगे चलकर शी चिनफिंग की जगह लेने की उम्मीद की जा सके। ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही लिया जाएगा कि यह नेता पूरी जिंदगी चीन की राजगद्दी संभालने का मन बना चुका है।

अगला मामला चीन में विकास की दिशा का है। 2012 में हुई 18वीं पार्टी कांग्रेस में दो लक्ष्य तय किए गए थे।

* एक, पार्टी के सौ साल पूरे होने तक, यानी 2021 में पूरे चीन में एक भी व्यक्ति को भुखमरी की स्थिति में नहीं रहने देना और इसे सामान्य स्तर का समृद्ध (मॉडरेटली प्रॉस्परस) देश बना देना। समृद्धि के इस स्तर की परिभाषा प्रति व्यक्ति दस हजार डॉलर के जीडीपी के रूप में की जाती है। चीन का प्रति व्यक्ति जीडीपी 2020 में ही 10,500 डॉलर दर्ज किया जा चुका था और उसका दावा है कि कोरोना के बावजूद पिछले साल भुखमरी को वह अपने यहां जड़ से मिटा चुका है।

* दूसरा लक्ष्य था चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित होने के सौ साल बाद, यानी सन 2049 में चीन को एक आधुनिक समाजवादी देश में बदल देना। 2017 की पार्टी कांग्रेस में इस समय को पीछे करके 2021 और 2049 के बीचोबीच सन 2035 पर ला दिया गया और इसके लिए 2025 तक चीन को सभी क्षेत्रों में बुनियादी तौर पर आत्मनिर्भर बनाने की बात कही गई। ट्रंपकाल से लेकर अभी तक अमेरिका से चीन के ट्रेड वॉर की जड़ यही है।

ऐसे कई क्षेत्र, जिनमें अमेरिका और यूरोप से चीन में अरबों डॉलर का आयात किया जाता था, उनमें अभी या तो नहीं के बराबर आयात हो रहा है, या धारा को पलटकर चीन से पश्चिम की तरफ सस्ते और बेहतर सामानों का निर्यात शुरू हो गया है। श्याओमी और ह्वावे का नोकिया और मोटरोला जैसे मोबाइल फोन ब्रैंड्स की जगह ले लेने का यही मतलब है। इसका नवीनतम चरण यात्री विमानों के क्षेत्र में चीन की आत्मनिर्भरता है, जिससे अमेरिकी बोइंग और यूरोपीय एयरबस की डुओपोली (दो कंपनियों का पूरी दुनिया पर कब्जा) टूट सकती है।

विकसित देशों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि चीन की आत्मनिर्भरता का मतलब किसी और देश की आत्मनिर्भरता जैसा नहीं है। उसके सामान पहले अपने सस्तेपन के बल पर दुनिया में छाए हुए थे, जिसके लिए अमेरिका और यूरोप में इनका उसी तरह मजाक उड़ाया जाता था, जैसे एक समय यहां जापानी सामानों को घटिया बताया जाता था। शी चिनफिंग के जमाने में क्वॉलिटी पर जोर दिया गया तो सुरक्षा के नाम पर इन्हें रोका जाने लगा।

पश्चिम के लिए एशिया-अफ्रीका के किसी भी देश की आत्मनिर्भरता खुद में एक धर्मविरोधी कृत्य है। ऐसे में अगले कुछ साल चीन की तकनीकी और औद्योगिक घेरेबंदी के हो सकते हैं। लेकिन इसका एक और पहलू भी है, जिसपर संसार के लोकतांत्रिक जनमत को इस अधिवेशन की राय का इंतजार है। चीनी नेतृत्व आत्मनिर्भरता वाली मुहिम को अपनी जनता की चट्टानी एकता से जोड़कर आगे बढ़ाने में जुटा है। इससे तमाम छोटी, गैर-हान धार्मिक और क्षेत्रीय पहचानों में विलोप का भय मजबूत हो रहा है।

तिब्बत, चिंघाई, शिनच्यांग और इनर मंगोलिया में बौद्ध, मुस्लिम, तुर्क और मंगोल संस्कृतियों की स्वायत्तता दिनोंदिन कम से कम होती जा रही है। हान संस्कृति और चीनी भाषा से मैत्रीपूर्ण जुड़ाव की पुरानी लाइन के बजाय इन्हें ‘पांच हजार साल पुरानी चीनी संस्कृति’ में समेट लेने की हरकतें तेज हो गई हैं। ताइवान जैसे ठेठ चीनी सभ्यता वाले मुल्क और भारत, भूटान जैसे पड़ोसी देशों से अकारण टकराव भी इस ऐतिहासिक हड़बड़ी का ही नतीजा है।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का बीसवां अधिवेशन अगर इसपर लगाम लगाने के कुछ उपाय सुझा सका तो उसकी खुशी में शायद कुछ और लोग भी शरीक हों।


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।