तो अपने अपमान से आहत राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह उर्फ हरिवंश 23 सितंबर को उपवास करेंगे। उन्होंने इस संबंध में राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति वेंकैया नाडयू को जो पत्र लिखा है उसमें 20 सितंबर को राज्यसभा में कृषि बिल को लेकर हुए हंगामे को लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। अपनी सामान्य पृष्ठभूमि और गाँधी, लोहिया और जयप्रकाश का स्वंय पर पड़े प्रभाव का उल्लेख किया है। गाँधी के ‘साध्य और साधन’ की पवित्रता का सिद्धांत दोहराया है, लेकिन वह बात सिरे से ग़ायब कर दी जो पूरे विवाद के मूल में है। इस बात का कहीं ज़िक्र नहीं किया कि उन्होंने विपक्षी सांसदों की माँग के बावजूद क्यों कृषि बिल पर मत विभाजन की माँग पर ध्यान नहीं दिया। यही वह बिंदु है, जिससे हरिवंश का उपवास पश्चाताप नहीं, एक सियासी नाटक में बदल जाता है।
यह हरिवंश की नीयत पर संदेह का ही परिणाम है कि संसद परिसर में रात भर धरना देने वाले निलंबित सांसदों ने सुबह उनकी लायी चाय पीने से इंकार कर दिया। वह हरिवंश की चाय पर चर्चा करके देश के करोड़ों किसानों के साथ हुए संसदीय छल को बल नहीं देना चाहते थे। वे यह भी देख रहे थे कि मीडिया के कैमरों के साथ चाय पिलाने पहुँचे हैं उपसभापति हरिवंश! इसके बाद प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर हरिवंश की इस अदा को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले बिहार के गौरव से जोड़कर साफ़ कर दिया कि निशाना कहाँ है।
(वैसे हरिवंश बलिया, उत्तर प्रदेश के मूल निवासी हैं, लेकिन बिहार में चुनाव को देखते हुए उन्हें बिहारी प्रतिष्ठा का प्रतिनिधि बनाने की होड़ है। मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने भी उनके पक्ष में ट्वीट किया और जेडीयू के कई नेताओं ने सदन में हुए हंगामे को बिहार के गौरव ‘ठाकुर हरिवंश नरायाण सिंह’ का अपमान बताते हुए चुनावी प्रचार शुरू कर दिया है।)
आगे बढ़ने से पहले इस पत्र को पढ़ लीजिए जो हरिवंश ने अपने आहत मन की गवाही में लिखा है-
Rajya Sabha Deputy Chairman Harivansh to observe one-day fast against the unruly behaviour with him in the House by Opposition MPs during the passing of agriculture Bills on 20th September pic.twitter.com/cphCDVHrqM
— ANI (@ANI) September 22, 2020
इस पत्र में तमाम समाजवादी विभूतियों का ज़िक्र है और हरिवंश खुद को उन्हीं की परंपरा का ध्वाजावाहक बताना चाहते हैं। उन्हें शायद यह बात समझ आ गयी है कि लोगों को उनकी प्रतिबद्धता पर शक़ हो गया है। अगर ऐसा है तो ज़िम्मेदार कोई और नहीं, वे ख़ुद हैं। ज़रा आचार्य नरेंद्र देव की याद कीजिए जो भारत में समाजवादी आंदोलन के पितामह कहे जाते हैं। आज़ादी के बाद जब कांग्रेस समाजवादी दल ने कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी बनाने का फ़ैसला किया तो आचार्य नरेंद्र देव ने भी पार्टी छोड़ दी। साथ ही, आदर्श का एक मानक स्थापित करते हुए उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफ़ा दे दिया। 1948 में उपचुनाव हुआ और कांग्रेस के दक्षिणपंथी खेमे ने उन्हें ‘नास्तिक’ प्रचारित करके ‘राम की नगरी’ यानी अयोध्या विधानसभा क्षेत्र में पराजित करने में क़ामयाबी पायी। यह ‘वामपंथी’ नेहरू के ख़िलाफ़ इस खेमे का शक्तिप्रदर्शन भी था जो आचार्य नरेंद्र देव के ख़िलाफ़ प्रत्याशी न उतारने के हिमायती थे।
लेकिन ज़रा हरिवंश के राजनीतिक सफ़र को याद कीजिए। वे उन नीतीश कुमार के साथ भी थे जो ‘संघ-मुक्त भारत’ की हुंकार भर रहे थे और उन नीतीश के साथ भी जो मोदी के शरणागत होकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जा बैठे थे। यह विचारक हरिवंश के सत्ता के तोता में बदलने की एक मुनादी थी। यह संयोग नहीं कि आचार्य नरेंद्र देव जैसी विभूतियों को समाजवादी धारा के लोग तो याद नहीं ही करते, हरिवंश जैसे विचारक पत्रकार भी उन्हें बिसूर चुके हैं।
निकट से जानने वाले बहुत लोग हरिवंश के इस रूपांतरण से सदमे में हैं लेकिन उनके इतिहास में ऐसा बहुत कुछ है जिसे जानने पर शायद यह स्वाभाविक लगे।
भारतीय इतिहास ऐसे पत्रकारों से भरा पड़ा है जिन्होंने जमकर राजनीति की लेकिन उनकी राजनीति के निशाने पर हमेशा सत्ता रही। वे विपक्ष की आवाज़ रहे। हिंदी पत्रकारिता के सिरमौर कहे जाने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी 1930 के नमक आंदोलन के समय यूपी कांग्रेस के डिक्टेटर थे। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ खुलकर राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल न जाने कितने पत्रकार जेल गये। आज़ादी के बाद भी पत्रकारिता के आदर्श में सत्ता से एक निश्चित दूरी हमेशा एक ‘मूल्य’ बनी रही।
लेकिन हरिवंश जी ने इस सिद्धांत को पलीता लगा दिया। जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो वे सीधे संपादक की कुर्सी से उठकर प्रधानमंत्री कार्यालय में अतिरिक्त सूचना सलाहकार हो गये और जब चंद्रशेखर की सरकार गयी तो वापस प्रभात ख़बर के संपादक पद पर आसीन हो गये। इस अख़बार को उठाने में उनकी बड़ी भूमिका रही, लेकिन यह भी सच है कि ‘अख़बार नहीं आंदोलन’ का नारा देने वाला यह अख़बार जब झारखंड से बिहार आया तो आंदोलन की धार को जानबूझकर कुंठित कर दिया गया। नीतीश कुमार की ‘सुशासन बाबू’ की छवि गढ़ने में हरिवंश जी ने पूरा ज़ोर लगा दिया। नीतीश कुमार की तुलना चंद्रगुप्त मौर्य से उन्होंने ही की थी।
यही नहीं, नीतीश राज में तमाम पत्रकारों और अख़बारों को ख़बर लिखने के लिए प्रताड़ित करने की तमाम घटनाओं को उन्होंने कोई तवज्जो न दी।
याद कीजिए,जब सुप्रीम कोर्ट से ताज़ा-ताज़ा रिटायर हुए जस्टिस मार्कण्डेय काटजू को प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष बनाया गया था और वे काफी तेजी से मीडिया के कामकाज पर सवाल उठा रहे थे। बिहार को लेक तमाम शिकायतें मिल रही थीं जिसके आधार पर प्रेस काउंसिल ने एक समिति बनायी। समिति ने बिहार के हालात का जमीनी आकलन करके अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में मीडिया को मनमाने ढंग से नाथने पर नीतीश सरकार पर सवाल उठाये गये थे, लेकिन सरकार से पहले इस रिपोर्ट के ख़िलाफ़ प्रभात ख़बर के संपादक हरिवंश मैदान में आ गये। उनके अख़बार, यानी प्रभात ख़बर में बड़ा-बड़ा छपा कि ‘प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट एकतरफ़ा और झूठी है!’ अपनी ही बिरादरी के ख़िलाफ़ खड़े होकर सरकार की वक़ालत करने की ऐसी बेशर्मी बिरला ही दिखा सकता था। ख़ैर यह अकेली घटना नहीं थी। हरिवंश उन चुनिंदा पत्रकारों में भी हैं जिन्होंने नोटबंदी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लेख लिखे थे जो आज भारत की आर्थिक बर्बादी का एक सिद्ध कारण माना जा रहा है।
दरअसल, हरिवंश को तो वाया नीतीश मोदी दरबार की चोबदारी हासिल करनी थी। नतीजा- राज्यसभा की सीट। ध्यान रहे पत्रकारिता में योगदान के लिए वे राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में मनोनीत नहीं किये गये, उन्हें नीतीश कुमार की छवि गढ़ने के प्रोजेक्ट की कामयाबी के प्रसाद के रूप में उच्च सदन में प्रवेश का कार्ड मिला। उसके बाद गाँधी के हत्यारे का खुलेआम महिमामंडन करने वाले दल के सहयोग से ‘गाँधीवादी हरिवंश’ दो बार वे राज्यसभा के उपसभापति चुने गये। गाँधी, लोहिया, जयप्रकाश का नाम संपुट की तरह दोहराने वाले हरिवंश को इसमें कुछ भी ग़लत नहीं लगा।
हरिवंश ने अपने पत्र में लिखा है कि वे अपमान से आहत होकर रात भर सो नहीं पाये। अब वे उपवास करेंगे, लेकिन शायद भूल गये हैं कि गाँधी जी का उपवास आत्मशुद्धि के लिए होता था न कि दूसरों को अनैतिक साबित करने के लिए। उन्हें उपवास ज़रूर करना चाहिए, लेकिन अपनी वैचारिकता में आयी गिरावट के पश्चातााप में। झारखंड में कोयला खदानों के निजीकरण के लिए उन्होंने जिस तरह लेख लिखे थे, वह कितने लोगों को सदमा दे गया था, उसकी बानगी उनके सहयोगी पत्रकार वीरेंद्र सेंगर की यह टिप्पणी है। वीरेंद्र सेंगर के मुताबिक-
“पिछले दिनों इन्हीं महाशय ने कोयला खानों के निजीकरण के पक्ष में बड़ी बेशर्मी के कुतर्क भरे कई लेख मीडिया में लिखे थे। क्योंकि केंद्र इसकी तैयारी में है। ये श्रीमान झारखंड में ही दशकों रहे हैं। जानते हैं कि कोयला खदानों में काम करने लाखों मजदूरों के हालात कितने नारकीय थे? इंदिरा गांधी ने क्रांतिकारी कदम उठाकर राष्ट्रीयकरण किया था। सभी जानते हैं, काला सोना उगलने वाली खानों को फिर से चहेते पूंजीपतियों को सौंपने की तैयारी है।इसमें स्वनामधन्य आपके और हमारे मित्र भी बड़े मोहरे हैं। ये ज्ञानी हैं। सब जानते हैं । लेकिन सियासत की सत्ता कुर्सी ,किसी भले,ज्ञानी व लोकतंत्र के चौकीदार को कैसे कठपुतली बना देती है ? इसका बेहतर उदाहरण हरिवंश जी ही हो सकते हैं ।”
ज़ाहिर है, हरिवंश ने वर्षों से जो छवि गढ़ी थी, वह तार-तार हुई। निश्चित ही, राज्यसभा में हुआ हंगामा अशोभनीय था, लेकिन यह प्रतिक्रिया हरिवंश जी की अनैतिक क्रिया का ही परिणाम थी। अपने पत्र में हरिवंश ने गाँधी जी के ‘साध्य और साधन की बात की है तो उन्हें बताना चाहिए कि कृषि बिल जैसे साध्य को प्राप्त करने के लिए जिस “अनैतिक’ साधन का इस्तेमाल किया गया, उसके ‘माध्यम’ वह कैसे बने? क्या यह सच नहीं कि शिरोमणि अकाली दल के खुले विरोध के बाद बीजू जनता दल ने भी विरोध का झंडा बुलंद कर दिया था, जिसके बाद बिल के राज्यसभा में पारित होने पर संदेह पैदा हो गया था। क्या किसी साध्य को इस तरह प्राप्त करना साधन की पवित्रता की श्रेणी में आता है?
निश्चित ही हरिवंश जी को उपवास करना चाहिए, लेकिन उत्पाती सांसदों के व्यवहार से आहत होकर नहीं, उन लोगों को लगे सदमे के प्रयाश्चित मे जो आज भी सत्ता के गलियारे में किसी ‘सिद्धांतवादी हरिवंश’ की तलाश में घूम रहे हैं।
हरविंश का किसी स्टैट्समैन का नहीं, बिहार चुनाव की तैयारी को लेकर लिखा गया पर्चा लगता है। अंत में उन्होंने दिनकर की वैशाली पर केंद्रित कविता का उल्लेख किया है (गोकि कोई संदर्भ बनता नहीं है!) तो उन्हें श्रीकांत वर्मा की कोशल पर लिखी यह कविता भी याद करनी चाहिए–
महाराज बधाई हो; महाराज की जय हो !
युद्ध नहीं हुआ –
लौट गये शत्रु ।
वैसे हमारी तैयारी पूरी थी !
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएं
दस सहस्र अश्व
लगभग इतने ही हाथी ।
कोई कसर न थी ।
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता ।
न उनके पास अस्त्र थे
न अश्व
न हाथी
युद्ध हो भी कैसे सकता था !
निहत्थे थे वे ।
उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है !
जो भी हो
जय यह आपकी है ।
बधाई हो !
राजसूय पूरा हुआ
आप चक्रवर्ती हुए –
वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं
जैसे कि यह –
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है ।
डॉ.पंकज श्रीवास्तव मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।