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इस आधी–अधूरी ख़बर के साथ इतनी जल्दबाज़ी क्यों?
हिन्दुस्तान टाइम्स में आज पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम की एक छोटी सी खबर है, “राजीव गांधी फाउंडेशन का एफसीआरए (विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम) लाइसेंस रद्द“। इस खबर का विस्तार अंदर के पन्ने पर होने की सूचना है लेकिन पहले पन्ने पर जितनी खबर है वह नीरज चौहान की बाईलाइन से है। इससे लगता है कि एक्सक्लूसिव खबर है और इसे जांचने के लिए मैंने अंग्रेजी का ही शीर्षक गूगल किया। इससे लगता है कि खबर हिन्दुस्तान टाइम्स की एक्सक्लूसिव है और बेशक इतनी सूचना भी खबर तो है ही और पहले पन्ने की ही है। लेकिन बेशक किसी ने दी है और ऐसी खबरें देना–लेना बाकी चाहे जो हो सरकारी कार्रवाई का प्रचार तो है ही। दूसरी ओर, राजीव गांधी फाउंडेशन की बदनामी भी है – कि कुछ गलत किया होगा इसलिए लाइसेंस रद्द हो गया। पर खबर में यह सब कुछ नहीं है। आज कह दिया कि लाइसेंस रद्द, कारण बताया नहीं और बाद में इससे भी छोटी खबर अंदर या पहले पन्ने पर छापकर बताया जा सकता है कि पुरानी खबर अपुष्ट थी या उसकी पुष्टि नहीं हुई या गलत थी। सही हो तो उसकी भी पुष्टि की जा सकती है और कारण भी बताया जा सकता है।
मेरा मुद्दा यह है कि अभी जब खबर का पूरा विवरण नहीं है तो इसे क्यों छापना और पूरे विवरण का इंतजार क्यों नहीं करना। लाइसेंस रद्द हो गया – यह सरकारी सक्रियता या राजीव गांधी फाउंडेशन को बदनाम करने का ही तो काम करेगा। सरकारी सक्रियता को आप सकारात्मक और नकारात्मक – दोनों तरीके से ले सकते हैं पर यह दोनों ही स्थितियों में प्रचार है पर वह अलग मुद्दा है। जहां तक राहुल गांधी फाउंडेशन को बदनाम करने की बात है तो उसकी भी क्या जल्दी? वैसे भी, लाइसेंस रद्द किए जाने की कार्रवाई बिना कारण नहीं की गई होगी (अगर की गई है तो खबर वह है) और कारण होगा तो नोटिस दिया गया होगा और उसका जवाब आया होगा या नहीं आया होगा – दोनों ही सूचना नहीं है। मेरा मानना है कि अगर कोई गड़बड़ हुई है तो उसके लिए फाउंडेशन के साथ सरकारी अधिकारी/ कर्मचारी भी दोषी हो सकते हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई हुई या नहीं या दोषी कौन है उसके बिना भी खबर अधूरी है। ऐसी खबर देकर किस तरह की पत्रकारिता की जा रही है और किसलिए की जा रही है।
खासकर इसलिए कि इसी खबर में लिखा है कार्रवाई जुलाई 2020 में बनी अंतर मंत्रालयी समिति की जांच के आधार पर की गई है। दो साल से ज्यादा हो गए अब उसकी जांच के आधार पर कार्रवाई हो रही है तो जल्दी क्या है – जांच में क्या हुआ यह भी तो बताते। रिपोर्टर को ऐसी खबरें देने और श्रेय लेने या सबसे पहले ब्रेक करने की जल्दी होती है पर डेस्क वाले यानी संपादक के प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं? उनका क्या काम है?। यह सवाल इसलिए भी है कि मीडिया ने इतनी जल्दी नोटबंदी से संबंधित खबरों में दिखाई होती तो सुप्रीम कोर्ट को उसपर अब सुनवाई नहीं करनी पड़ती और सरकार की तरफ से यह नहीं कहा जाता कि अब यह मामला अकादमिक ही रह गया है पर वह अभी मुद्दा नहीं है। नेट पर उपलब्ध इसी खबर के विस्तार में कहा गया है इस संबंध में एक सूचना आरजीएफ के पदाधिकारियों को भेज दी गई है पर आरजीएफ ने इसपर कोई टिप्पणी नहीं की है। यह खबर नेट पर आज सुबह 06:16 बजे पोस्ट की गई है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह खबर देर शाम मिली होगी और आरजीएफ का पक्ष लेने की तो छोड़िये खबर का आवश्यक विस्तार भी नहीं लिया गया है। टेलीविजन में यह जल्दबाजी तो समझ में आती है लेकिन अखबार में? आज इतवार है और कल दीवाली। मंगलवार को अखबार आएगा नहीं। इसलिए विस्तार या स्पष्टीकरण (अगर कोई हो) जल्दी से जल्दी बुधवार को छपेगा। यह वैसे ही है जैसे किसी को शुक्रवार को बंद कर दो जमानत तो सोमवार को ही होगी।
खबर में यह भी बताया गया है कि आरजीएफ का गठन 1991 में हुआ था, सोनिया गांधी फाउंडेशन की चेयरपर्सन हैं जबकि मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी इसके ट्रस्टी हैं। अखबार ने बताया है कि 1991 से 2009 तक आरजीएफ ने स्वास्थ्य, विज्ञान और टेक्नालॉजी, महिलाएं और बच्चे, विकलांगता समर्थन आदि जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में काम किया है। यहां मैं बता दूं कि विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम 2010 का है। अखबार ने लिखा है, फाउंडेशन के वेबसाइट के अनुसार 2010 में तय हुआ कि वह आगे चलकर शिक्षा पर फोकस करेगा। मुझे लगता है कि जनहित में ऐसे काम करने वालों को विदेशी चंदा लेने से रोकना अनुचित है और अगर विदेशी चंदा लेने की छूट से कुछ गड़बड़ हो सकती है तो 2010 में बना यह कानून है जो कांग्रेस ने स्वयं ही बनाया होगा। और भाजपा का दबाव तो निश्चित ही नहीं रहा होगा।
खबर में कहा गया है, फाउंडेशन जुलाई 2020 में जांच के दायरे में आई, जब गृहमंत्रालय ने गांधी परिवार के तीन फाउंडेशन – राजीव गांधी फाउंडेशन (आरजीएफ), राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट (आरजीसीटी) और इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट – की जांच के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के एक अधिकारी की अध्यक्षता में मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट, इनकम टैक्स एक्ट और एफसीआरए के संभावित उल्लंघन की जांच के लिए एक अंतर–मंत्रालयी समिति का गठन किया। खबर में नहीं बताया गया है कि यह वह समय था जब प्रधानमंत्री ने प्रधानमंत्री राहत कोष के रहते हुए पीएम केयर्स (नाम से एक ट्रस्ट) का गठन (27 मार्च 2020 को) किया था और इससे पहले कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने पूछा था, “चीन के साथ दुश्मनी के बावजूद, पीएम–केयर्स फंड में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चीनी पैसा क्यों मिला है? क्या प्रधानमंत्री को विवादास्पद कंपनी हुवावे से सात करोड़ रुपये मिले हैं? क्या हुवावे का चीन के पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) से सीधा संबंध है? क्या चीन की कंपनी टिकटॉक ने पीएम केयर्स फंड में 30 करोड़ रुपये का दान किया है?” कांग्रेस ने यह भी पूछा था कि क्या पेटीएम जिसके पास 38 प्रतिशत चीनी स्वामित्व है ने 100 करोड़ रुपये और ओपो ने इस फंड में एक करोड़ रुपए दिए हैं। नोटबंदी की खबर वाले दिन पेटीएम का विज्ञापन और प्रधानमंत्री को फोटो तो आपको याद ही होगी।
इस तरह साफ है कि कांग्रेस ने पीएम केयर्स पर सवाल उठाए तो कांग्रेस के प्रमुख नेताओं से संबंधित फाउंडेशन की जांच शुरू हो गई। पीएम केयर्स से संबंधित आरोपों के जवाब नहीं है, कार्रवाई की खबर नहीं है पर राजीव गांधी फाउंडेशन का लाइसेंस रद्द हो गया – यह खबर छपवाने या छापने की जल्दबाजी आप देख रहे हैं। यहां यह भी याद दिला दूं कि उन्हीं दिनों चीनी सेनाओं ने हमारे क्षेत्र में घुसपैठ की थी और प्रधानमंत्री पर चीनी कंपनियों से पीएम केयर्स में पैसा लेने का आरोप लगा था। चीनी घुसपैठ पर प्रधानमंत्री का मशहूर बयान, न कोई हमारी सीमा में घुसा, न ही पोस्ट किसी के कब्जे में है आपको याद ही होगा और उसके बाद आपने पढ़ा ही होगा कि चीनी सेना (कई बार) पीछे हटी और वापस गई। इन सब तथ्यों से बेपरवाह खबर आगे कहती है, सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली आरजीसीटी भी एफसीआरए के तहत पंजीकृत है लेकिन यह पता नहीं चला है कि इसके खिलाफ कोई उल्लंघन पाया गया है या नहीं। एमएचए ने शनिवार को एचटी द्वारा भेजे गए एक प्रश्न पर कोई टिप्पणी नहीं की। जब एमएचए ने टिप्पणी नहीं की तो लीक पर खबर करने की जल्दी रिपोर्टर की बाइलाइन लेने की कोशिश भर है या भाजपाई कार्यशैली का हिस्सा?
इसमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रमुख जेपी नड्डा का जून 2020 का यह आरोप भी याद किया जाना चाहिए (हिन्दुस्तान टाइम्स ने याद दिलाया है) जो उन्होंने लद्दाख में भारत और चीनी सैनिकों के बीच टकराव के बीच लगाया था। उन्होंने तब कहा था कि कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने 2005 और 2009 के बीच आरजीएफ को ऐसे अध्ययन के लिए धन दिया जो राष्ट्रीय हित में नहीं थे। अध्ययन का राष्ट्रीय हित से क्या संबंध? अगर उस समय वह भारत के राष्ट्रीय हित में नहीं भी हो तो बाद में उसका फायदा होगा। यह आरोप वैसे ही है कि पढ़ाई करके भी नौकरी तो मिलती नहीं है इसलिए पढ़ो ही मत। मैं पत्रकारिता से संबंधित कई मुद्दों पर अध्ययन चाहता हूं तो उससे पत्रकारिता की पोल ही खुलेगी। और वह इसके खिलाफ ही कहा जाएगा पर पत्रकारिता का (और देश समाज को भी) यह फायदा होगा कि पत्रकारिता में सुधार के उपाय किए जा सकेंगे। अध्ययन देश हित में हो या अहित करे अध्ययन तो होना ही चाहिए। देश के ज्यादातर नेता चोर हैं यह किसी अध्ययन से पुष्ट हो जाए तो यह देश हित में है कि देश के खिलाफ – यह कौन तय करेगा। मुझे तो लगता है कि सबको पता होना चाहिए कि फलाना नेता निजी स्वार्थ या पार्टी के लिए चंदा या धन या हिन्दुत्व के लिए कुछ भी कर सकता है। इसे छिपाने के लिए अध्ययन रोकने का क्या मतलब है। वह भी तब जब विदेशी चंदे से – कम से कम अध्ययन करने वाले को तो काम मिलेगा। आप उसकी रिपोर्ट हमेशा गोपनीय रख सकते हैं।
हिन्दुस्तान टाइम्स की इस खबर में एक तरफ तो कांग्रेस के आरोपों और उन तथ्यों का जिक्र नहीं है जो भाजपा के खिलाफ है दूसरी ओर भाजपा के उस समय के और अब फिर अध्यक्ष चुन लिए गए जेपी नड्डा के आरोप दोहराए गए हैं कि प्रधानमंत्री राहत कोष (के धन) को गांधी परिवार के ट्रस्ट को डायवर्ट किया गया और आरजीएफ को भगोड़े व्यवसायी मेहुल चोकसी से भी धन प्राप्त हुआ। कहने की जरूरत नहीं है कि चीनी कंपनी से चीन के भारतीय सीमा में घुसपैठ (या आरोप) के बाद पीएम केयर्स नाम के ट्रस्ट में चंदा लेना प्रधानमंत्री राहत कोष का धन दूसरे ट्रस्ट में डायवर्ट करना बराबर की गलती नहीं है और गलती है भी कि नहीं – यह तय नहीं है। अगर गलती है तो दो साल कार्रवाई क्यों नहीं हुई और हुई तो खबर में उल्लेख क्यों नहीं है और कार्रवाई हुई ही नहीं तो दो साल पुराने आरोप को दोहराने का क्या मतलब?
वैसे खबर में बताया गया है वेबसाइट पर उपलब्ध आरजीएफ की 2005-06 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के दूतावास को “साझेदार संगठनों और दाताओं” में दाताओं में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह तथ्य नड्डा के आरोप की पुष्टि के लिए बताया गया है पर जो तथ्य फाउंडेशन ने खुद अपने वेबसाइट पर सार्वजनिक कर रखा है वह उसके खिलाफ कैसे होगा और है भी तो उसके खिलाफ दो साल में कार्रवाई क्यों नहीं की गई। दूसरी ओर आरोपों को दोहराना वह भी मेहुल चोकसी के धन (या दान या चंदा) देने जैसे आरोप। यहां यह उल्लेखनीय है कि 2014 से पहले अगर किसी उद्यमी ने कर्ज लिया था किस्तें चुका रहा था और 2014 या नोटबंदी के बाद उसकी हालत खराब हो गई और कोई किस्तें नहीं चुका पाया तो दोषी सरकार या नोटबंदी है। कोई नहीं जानता था कि 2016 में नोटबंदी हो जाएगी और हालात पूरी तरह बदल जाएंगे। इसलिए लोगों ने कर्ज लिए थे और कारोबार कर रहे थे। मोदी सरकार ने सारी स्थितियां बदल दीं तो हालात बदलने ही थे पर उसके लिए मेहुल चोकसी और दूसरे भगोड़े से ज्यादा सरकार जिम्मेदार है और तथ्य यह है कि सरकार के समर्थक या प्रचारक या प्रधानसेवक के मेहुल भाई भी नोटबंदी के शिकार हैं। पर प्रचारकों से अलग तथ्य कैसे बताए जा सकते हैं। वह तब जब मीडिया गोद में बैठ गया हो।
खबर के अंत में बताया गया है आरजीएफ के एक करीबी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि फाउंडेशन का एफसीआरए लाइसेंस 2020 से तीन से छह महीने की छोटी अवधि के लिए नवीनीकृत किया गया था। गांधी परिवार के ट्रस्ट को निशाना बनाने का पूरा काम टैक्स नोटिस के साथ शुरू हुआ। धीरे–धीरे, सरकार ने सुनिश्चित किया है कि आरजीएफ को कोई विदेशी फंडिंग न हो। इसने दानदाताओं पर इसे फंड न करने का दबाव डाला और अब ट्रस्ट का फंडिंग लाइसेंस रद्द कर दिया गया है।” कहने की जरूरत नहीं है कि इस मामले में पीड़ित कांग्रेस या गांधी परिवार या ये ट्रस्ट हैं और खबर तब विश्वसनीय लगती जब शिकायत इनमें से किसी ने सरकार के खिलाफ की होती। अभी तो खबर एक अपुष्ट सरकारी कार्रवाई का प्रचार भर है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं..