हमारे युवा को रोज़गार के सवाल से ज़्यादा टीवी डिबेट और टिकटॉक में दिलचस्पी- रवीश कुमार

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महामारी एक है। जर्मनी और अमरीका एक नहीं हैं। रोज़गार और बेरोज़गारी को लेकर दोनों की नीति अलग है। जर्मनी ने सारे नियोक्ताओं यानि कंपनियों दफ्तरों और दुकानों के मालिकों से कहा कि उनके पे-रोल में जितने भी लोग हैं, उनसे सिर्फ एक फार्म भरवा लें। कोई प्रमाण पत्र नहीं। कोई लंबी-चौड़ी प्रक्रिया नहीं। सभी को जो वेतन मिल रहा था, उसका 60 से 87 प्रतिशत तक उनके खाते में जाने लगा। बेशक वेतन 100 फीसदी नहीं मिला लेकिन नौकरी जाने से तो अच्छा था कि 60 से 87 फीसदी पैसा मिले। ऐसा कर जर्मनी की सरकार ने लोगों को बेरोज़गार होने से बचा लिया। छंटनी ही नहीं हुई। जर्मनी में 1 करोड़ लोगों को इस स्कीम का लाभ मिला है।

इसलिए महामारी के महीनों में यानि मार्च और अप्रैल में जर्मनी में बेरोज़गारी की दर सिर्फ 5 प्रतिशत से बढ़कर 5.8 प्रतिशत हुई। अमरीका में बेरोज़गारी की दर 4.4 प्रतिशत से बढ़कर 14.7 प्रतिशत हो गई। जर्मनी ने इंतज़ार नहीं किया कि पहले लोगों को निकाला जाए फिर हम बेरोज़गारी भत्ता देंगे। जर्मनी की नीति थी कि किसी की नौकरी ही न जाए। एक बार कंपनी निकाल देती है तो वापस रखने में दिक्कत करती है। जर्मनी ने ऐसा कर कामगारों की मोलभाव शक्ति को भी बचा लिया। जब अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटेगी तो उनकी सैलरी वापस मिलने लगेगी। नौकरी से निकाल दिए जाते तो कंपनी दोबारा रखती नहीं या फिर वेतन बहुत घटा देती।

जर्मनी में कैसे लोगों को बचाया गया, बेरोज़गारी से

अमरीका ने तय किया जो बेरोज़गार हुए हैं उन्हें भत्ता मिलेगा। अमरीका में 4 करोड़ लोगों ने इस भत्ते के लिए आवेदन किया है। मिल भी रहा है। अमरीका में भी जर्मनी की नीति है लेकिन आधे मन से लागू है। अमरीका में बेरोज़गार होने पर आवेदन करना होता है। तब वहां केंद्र की तरफ से महामारी बेरोज़गारी भत्ता दिया जाता है। 600 डॉलर का। प्रो-पब्लिका ने एक महिला कामगार का उदाहरण देकर लिखा है कि जब उसने आवेदन किया तो उसका फार्म रिजेक्ट हो गया। बताया गया कि उसने लंबे समय तक काम नहीं किया है इसलिए योग्य नहीं है। बाद में उसे मिला लेकिन जो मिला वो आधे से कम था। अमरीका ने भत्ता तो दिया लेकिन सैलरी से कम दिया। जर्मनी ने पूरी सैलरी नहीं दी लेकिन 60 से 87 प्रतिशत का भुगतान करा दिया। जर्मनी और अमरीका की तुलना का यह लेख मैंने प्रो-पब्लिका में पढ़ा जिसे एलेक मैक्गिल्स ने लिखा है।

भारत अकेला देश है जहां 10 करोड़ लोग बेरोज़गार हो गए। इनमें से करीब 2 करोड़ नियमित सैलरी वाले थे। एक आदमी के पीछे अगर आप 4 आदमी भी जोड़ लें तो इस हिसाब से 50 करोड़ की आबादी के पास आय नहीं है। फिर भी भारत में बेरोज़गारी की चर्चा नहीं है। मीडिया नहीं कर रहा है। मान सकता हूं। क्या लोग कर रहे हैं? इसलिए भारत में राजनीति करना सबसे आसान है। क्योंकि यही एक देश है जहां रोज़गार एक राजनीतिक मुद्दा नहीं है। लोग बात नहीं कर रहे हैं। भारत का युवा सिर्फ अपनी भर्ती परीक्षा की बात करता है। बेरोज़गारी और उससे संबंधित सबके लाभ की नीति पर बात नहीं करता है।

दो साल तक रोज़गार से संबंधित मसले में गहराई से डूबे रहने के बाद यह ज्ञान प्राप्त हुआ है। रोज़गार के प्रश्न को भारत के बेरोज़गार युवाओं ने ही ख़त्म कर दिया। इसलिए रोज़गार राजनीतिक मुद्दा बन ही नहीं सकता है। बनेगा भी तो बहुत आसानी से आरक्षण और आबादी का हवाला देकर इन्हें आपस में बांट दिया जाएगा। एक ज़िद की तरह वह आबादी और आरक्षण को दुश्मन मान बैठा है। वह अपने भीतर इन्हीं भ्रामक बातों लेकर अपना पोज़िशन तय करता रहता है और रोज़गार की राजनीति और नीति निर्माण की संभावनाओं को अपने ही पांव से रौंद डालता है।

आप इस युवा-समाज का कुछ नहीं कर सकते हैं। उसे जर्मनी और अमरीका का लाख उदाहरण दे दीजिए वह लौट कर इसी कुएं में तैरने लगेगा। युवा स्वीकार नहीं करेगा लेकिन उसकी सोच की बुनियाद में सीमेंट कम, रेत ज्यादा है। यह रेत भ्रामक बातों की है। नेता रेत भर देता है। युवा व्यवस्था और नीति को बेरोज़गारी का कारण नहीं मानता है। बाकी सबको मानता है। इसलिए बेरोज़गार युवा सिर्फ बेरोज़गार युवा नहीं हैं। उनके भीतर जाति और धर्म की राजनीति को लेकर एक गहरी फॉल्ट लाइन बनी हुई है। इसके कारण आप इस युवा से किसी नए की उम्मीद ही नहीं कर सकते। हर बहस आपको उसी फाल्ट लाइन में ले जाएगी। उसी फाल्ट लाइन पर दम तोड़ देगी।

बेरोज़गारी को लेकर हमारा युवा इतना गंभीर है कि वह इस मसले पर छपे लेखों को भी गंभीरता से नहीं पढ़ता है। उसे सिर्फ अपनी कहने की जल्दी होती है। मेरा हो जाए। मैं समझता हूं। लेकिन उससे भी तो हल नहीं निकल रहा है। युवा किसी से उम्मीद पाल लेगा लेकिन रोज़गार को लेकर राजनीतिक समझ के विस्तार और निर्माण की जटिल प्रक्रियाओं से नहीं गुज़रेगा। व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी और गोदी मीडिया का ग्राहक हो चुका है। उसे खाद-पानी के नाम पर टीवी की डिबेट और टिक-टाक का भौंडापन भा रहा है।

उसे यह याद रखना होगा कि उसकी समस्या सिर्फ उसकी भर्ती परीक्षा का परिणाम आने से खत्म नहीं हो जाता है। उसे रोज़गार को राजनीति के केंद्र में लाने के लिए खुद को बदलना होगा। अपने लिए ही नहीं, सबके लिए। नीतियों को लेकर पढ़ना होगा। उनके बारे में समझ विकसित करनी होगी। उनके बारे में बहस करनी होगी। तब जाकर एक राजनीतिक मुद्दा बनेगा। एक दम से आग-बबूला होकर सड़क पर आने से भी कुछ नहीं होता है। हिंसा और आक्रोश समाधान नहीं है। समाधान है विचार। प्रश्न। बहस। भागीदारी। जय हिन्द।


रवीश कुमार जाने-माने टीवी पत्रकार हैं। संप्रति एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।

 

 

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