राघवेंद्र दुबे
‘मैं प्रशांत भूषण के साथ हूं’ , यह साहस भी भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में झांक कर, सत्य के लिये बापू के आग्रह के बारे में जानकर , मानवीयता, मनुष्यता और समाजवादी लोकतंत्र के लिये पं नेहरू की प्रतिबद्धता पढ़कर, जगता है। जिसमें आंच आ जाती है अगर मौका या दिन जश्न -ए- आजादी का हो।
साउथ अफ्रीका में तब वकील गांधी, इसलिये भी बहुत मशहूर हुए कि उन्होंने तमाम बड़े ऐतिहासिक विवाद ब्रिटिश अदालत की चौखट जाने ही नहीं दिए, सभी विवाद दोनों पक्ष की आपसी सहमति और वार्तालाप से सुलझवा दिये। एक साल में 11 बड़े मसले उन्होंने अदालत से वापस करा, नैतिकता की कसौटी पर जनता के बीच आपसी बातचीत से सुलझवा दिये।
इस पर ब्रटिश सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने बापू से पूछा था– आप अपने घर में बैठकर फैसले ले रहे हैं, करा रहे हैं, ऐसा क्यों ?
बापू ने कहा — इसलिए कि मेरा मानना है कि ब्रिटिश अदालतों में उसे ही न्याय मिल सकता है जिसके पास खूब पैसा है।
जज ने कहा – आप ठीक कहते हैं ब्रिटिश कानून में खामियां हैं लेकिन आप भी अपने फैसलों में ब्रिटिश कानून का ही तो आधार लेते हैं ?
बापू ने कहा — नहीं मैं बुद्ध और कन्फ्यूशियस के बीच के मार्ग का अनुसरण करता हूं ।
पूज्य बापू का यह जवाब ब्रिटिश अदालत को भी अदालत की तौहीन नहीं लगी। जबकि प्रख्यात वकील प्रशांत भूषण द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश की 50 लाख की मोटरसाइकिल के लिये ‘ टिपिकल ‘ मध्यवर्गीय लालसा और किशोर वय तड़प दिखाती तस्वीर ट्वीट करना अदालत की तौहीन हो जाती है ।
ऐसे जज की हमने कभी कल्पना नहीं की थी। हम सब के जमाने तक जज सार्वजनिक जुटान की जगह, पार्टी, क्लब या बाजार जाना बचाते थे । वह लोगों से मिलते-जुलते भी नहीं थे।
अब तो लगता है वे अमिताभ बच्चन की तरह नवरत्न तेल से बुलन्द सीमेंट तक का विज्ञापन भी करने लग जाएंगे। वह भी दिन आ जायेगा। कहीं ऐसा न हो कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में कारपोरेट प्रतिनिधि के तौर पर सीईओ की नियुक्ति होने लगे। कुछ भी हो सकता है अब अपने देश में। वैसे भी अदालतें अब कहीं और से हांकी जा रही हैं। यह संवैधानिक संस्थाओं को विघटित किये जाने का दौर है।
क्या गलत कहा प्रशांत भूषण ने- जब भावी इतिहासकार देखेंगे कि कैसे पिछले छह साल में बिना किसी औपचारितT के इमरजेंसी के भारत में लोकतंत्र को खत्म किया जा चुका है, वो इस विनाश में विशेष तौर पर सुप्रीम कोर्ट की भागीदारी पर सवाल उठाएंगे और मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को लेकर पूछेंगे।
यह कहना या ट्वीट करना अदालत की तौहीन कैसे है? अगर बापू का यह कहना– ‘ मेरा मानना है कि ब्रिटिश अदालतों में उसे ही न्याय मिल सकता है जिसके पास खूब पैसा है’-अदालत की तौहीन नही है ।
दरअसल अदालतों का यह रवैया किसी में गांधी की थोड़ी बहुत संभावन को भी मार देना है । और हम रोज – रोज गांधी की हत्या अब नहीं बर्दाश्त करेंगे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।