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जो लोग देश में लोकतंत्र बचाना चाहते हैं, वे तमाम असहमतियों के बावजूद कांग्रेस की सेहत को लेकर दुबले हो रहे हैं। इनमें एक समूह उनका है, जिन्हें राहुल गांधी में सेकुलरवाद और कांग्रेस के मूल्यों का एक योद्धा दिख रहा है। यह समूह मानता है कि राहुल कांग्रेस में पिछले कई सालों से गायब रही विचारधारा की वापसी की कोशिश कर रहे हैं और सत्ता के खेल में माहिर नेता इस वजह से उनसे दूर छिटक रहे हैं। इस विश्लेषण में राहुल को जनहित में कॉर्पोरेट का विरोध करने वाला भी माना जाता है।
ऐसे लोग इस वैचारिक लड़ाई में ईमानदार, निस्वार्थ और धुन के पक्के राहुल का हाथ मजबूत करना चाहते हैं। यह समूह राहुल पर लगने वाले सियासी दांव-पेंचों में परिपक्वता की कमी के आरोप को उलटा कर अपनी ढाल बना लेता हैं कि हाँ भई, वह कूटनीतिज्ञ नहीं है, मगर इसी कारण उससे उम्मीद है।
वहीं एक दूसरा समूह मानता है कि ‘राजकुमार’ राहुल अगर कांग्रेस के खेवनहार रहे, तो नाव को डूबने से कोई नहीं बचा सकता। ऐसे लोग मानते हैं कि राहुल, प्रियंका व सोनिया जितना जल्दी कांग्रेस के सिरमौर बने रहने से तौबा कर लें, उतना जल्दी कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र की प्राणवायु प्रवाहित होगी और यह ऐतिहासिक पार्टी फिर खड़ी हो जाएगी। इस विश्लेषण में कांग्रेस के कमजोर होने को देश के राजनीतिक इतिहास की गुत्थियों से काटकर गांधी परिवार की नाकामी का मसला भर बना दिया जाता है। इस पाठ के समर्थक हालांकि तब थोड़ी अड़चन में पड़ते हैं, जब वे देखते हैं कि मौजूदा सरकार के प्रति नरम रवैया रखने वाले भी उनसे जल्द ही सहमत हो जाते हैं।
एक-दूसरे के विरूद्ध खड़े दोनों पाठ अपने अंतर्निहित सरलीकरण के चलते ही लोकप्रिय हैं। जबकि राजनीति संभावना की कला मानी जाती है, जिसमें निर्णय बदलने भी पड़ते हैं। एक कदम आगे जाने के लिए दो कदम पीछे होना पड़ता है। दोनों तरह के पाठों की अपनी खूबियाँ हो सकती है। मगर यहां इरादा तुलनात्मक अध्ययन का नहीं, बल्कि यह दिखाना है कि दोनों ही पाठों में ऐसे तत्व छिपे हुए हैं, जो कांग्रेस को पेरेस्त्रोइका की तरफ धकेल सकते हैं।
सोवियत संघ के ढहने का एक सबक यह है कि जो कोई ढर्रे के रूप में चल रही किसी प्रणाली में बदलाव लाना चाहता है, उसे पेरेस्त्रोइका या पुनर्गठन को इस तरह से लागू नहीं करना चाहिए कि जिसकी पुनर्संरचना करना चाहते थे, वहीं गायब हो जाए। बशर्ते इच्छा गायब करने की ही न हो। इसी को नहाने के टब से गंदे पानी के साथ शिशु का फेंक दिया जाना भी कहते हैं।
वैसे तो सोवियत सबक यह भी है कि पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त एक साथ लागू नहीं करना चाहिए। यहां महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि गोर्बाच्योव ने जो किया वह सही था या गलत, बल्कि यह है कि वे स्वयं, उनका नजरिया, उनकी पार्टी और उनकी व्यवस्था— सब कुछ बहुत जल्द अप्रासंगिक हो गया था। इसलिए यहाँ गोर्बाच्योव की पेरेस्त्रोइका को रूपक की तरह लिया जा रहा है। कांग्रेस की सोवियत संघ से सीमित तुलना सिर्फ इसलिए कि राजनीतिक दल भी विशिष्ट किस्म की प्रणालियां होते हैं, जिनमें निरंतरता व परिवर्तन का अपना गतिशास्त्र होता है। कांग्रेस एक ऐसी अनोखी पार्टी रही है, जो किसी सिस्टम या व्यवस्था की तरह काम करती थी। कांग्रेस को विचारधाराओं का एक गठबंधन माना जाता था।
यह लचीलापन एक वक्त तक कांग्रेस की ताकत माना जाता था। कई फैक्शन या गुट होते थे, जिनकी आपसी टक्करों, मेलमिलाप व समझौतों से पार्टी समावेशी बनी रहती थी। यह ही कांग्रेस को एक अलग किस्म का आंतरिक लोकतंत्र मुहैया कराता था। एक स्तर पर कांग्रेस की विचारधारा भारतीय राजसत्ता की विचारधारा थी, और दूसरे स्तर पर विचारधाराओं, प्रवृत्तियों व व्यक्तित्वों के बीच मेलमिलाप व सौदेबाजी का मंच। यह प्रवृत्ति कांग्रेस के 69 व 78 के विभाजनों के बाद कमजोर तो हुई, मगर बनी रही। वहीं आरएसएस के रिमोट के बावजूद 2014 तक भाजपा ने इसी मॉडल की सीमित नकल कर राजनीति में अपनी स्वीकृति बनाने की कोशिश की थी। इसलिए कांग्रेस में एक सीमा तक ग्लासनोस्त पहले से है। यह उसकी बड़ी चुनौती नहीं है।
उसे खतरा पेरेस्त्रोइका की दो तरह की तजवीज़ों से है, जो दरअसल उपरोक्त दो तरह के सरल पाठों की तार्किक निष्पत्ति हैं। यह तय है कि कांग्रेस को अपना घर दुरुस्त करना है। इस के लिए कई परिपाटियों, अनुष्ठानों, मान्यताओं और तैयारियों को बदलना पड़ेगा। मगर यह इतना मूलगामी न हो कि संगठन ही बिखरने लगे। इसलिए एक तो राहुल बनाम मक्कार नेताओं के सरलीकरण से बाहर निकलना चाहिए। यह स्वीकारना होगा कि मूल्यों व विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता की तमाम बातों के बावजूद कांग्रेस को किसी वामपंथी दल की तरह नहीं चलाया जा सकता। वाम दलों की मजबूती और मजबूरी, दोनों ही का गतिशास्त्र बिलकुल अलग किस्म का है। मूल्य व बौद्धिक दोनों ही आज कांग्रेस की बड़ी जरूरत हैं, मगर एक स्तर पर कांग्रेस भोले की बारात भी रहेगी ही।
कांग्रेस की ताकत आज भी खांटी किस्म के उसके ऐसे जमीनी नेता हैं, जो अतिदक्षिणपंथी विचारधारा और कर्कश लफ्फाजी की आत्ममुग्ध राजनीति का मुकाबला जम कर नहीं कर पा रहे हैं। हाँ, राज्यों के कुछ नेताओं को छोड़कर, जो नया विमर्श भी गढ़ने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस को संगठन में कसावट लाने के लिए अपनी प्रकृति के अनुकूल तरीके ही ढूंढ़ने होंगे और इसी बीच आलाकमान को खांटी नेताओं से संवाद के तरह-तरह के चैनल खुले रखने पड़ेंगे।
दूसरे छोर पर यह देखना होगा कि कांग्रेस अध्यक्ष पद से गांधी परिवार को हटाने की मांग से ज्यादा कांग्रेस विरोधी बात इस वक्त कोई और नहीं हो सकती। इसे तनिक विस्तार से समझा जाना चाहिए। कांग्रेस जब नेहरू, शास्त्री जैसे सर्वमान्य केंद्रीय चेहरे के साथ विचारधाराओं के मध्यमार्गी गठबंधन की तरह काम करती थी, तब उसके सामने दक्षिणपंथ या वामपंथ की तरफ से कड़ी चुनौती नहीं थी और वह भारतीय राजसत्ता की निरंतरता की पार्टी थी। 77 और 89 के बाद भी यह चुनौती बड़ी नहीं हुई थी, मगर 92 के बाद बड़ी होती गई। और अटल के नेतृत्व वाली पहली पाँच साला गैर-कांग्रेसी सरकार के रूप में यह चुनौती भारतीय राजनीति में संस्थाबद्ध हो गई।
90 के दशक के बाद से कांग्रेस बिना किसी सुस्पष्ट विचारधारा के महज विचारधाराओं के मध्यमार्गी गठबंधन के रूप में देर तक सफल नहीं हो सकती थी, जबकि उसका प्रमुख मुकाबला एक अति दक्षिणपंथी दल से हो। न कांग्रेसियों को आपस में बांधने वाली सुस्पष्ट विचारधारा थी और न इसके प्रति समर्पित काडर तंत्र। यह विडंबना थी कि विचारधारा-केंद्रित संगठन की कमी के एवज में गांधी परिवार कांग्रेस के लिए एक ऐसे समय में एकता के रहस्यात्मक और प्रतीकात्मक केंद्र के रूप में उभरा था, जब गांधी परिवार में इंदिरा जैसे राजनीति के खुर्राट लोग बचे ही नहीं थे। जरा याद कीजिए शुरू की अनिच्छुक सोनिया और अनिच्छुक राहुल को। मगर सयाने कांग्रेसी वक्त की पुकार को समझ चुके थे और सीताराम केसरी, नरसिम्हा राव को छोड़ सोनिया के गिर्द लामबंद होने लगे थे। जो क्षत्रप बाहर गए, उनमें से बाद में अधिकतर लौट आए। कुछ ने क्षेत्रीय स्तर वाली ‘कांग्रेस’ कहलाना पसंद किया।
याद रखा जाना चाहिए कि कांग्रेस जब तक अपनी विचारधारात्मक स्पष्टता व तदनुसार संगठन हासिल नहीं कर लेती है, गांधी परिवार उसकी एकता और विचारधारा दोनों का प्रतीक और ऐतिहासिक निरंतरता का वाहक है। कांग्रेस रातोंरात न तो आरएसएस जैसा कोई संगठन पैदा कर सकती और न आज के दौर के माफिक कोई विचारधारा। कोई भी उदार, मुलायम, बहुलतावादी विचारधारा आज के शिकायती, मरखने और भावुक राजनीतिक मानस के दौर में एक सीमा के बाद स्वीकार्य नहीं हो पा रही है। ऐसे में कांग्रेस को गांधी परिवार को केंद्र से हटाए बगैर ही यानी अस्थिरता का जोखिम मोल लिए बगैर ही धीरे-धीरे विचारधारात्मक और संगठनात्मक सिद्धि की तरफ बढ़ना होगा।
कांग्रेस को दो अतियों से शुरू होने वाली पेरेस्त्रोइका से बचना है तो किसी भी सरल हसीन सपने को खारिज कर बीच-बचाव का रास्ता बनाना पड़ेगा। अध्यक्ष पद के साथ कार्यकारी अध्यक्ष व दृश्यमान उपाध्यक्षों जैसे कई उपाय सोचने होंगे। जाहिर है कांग्रेस के आगे विचारधारा, संगठन, दृश्यमान चेहरों, संसाधन के पुनर्निमाण का कठिन रास्ता है। कांग्रेस के मिज़ाज, विशिष्टता का ख्याल ही इस प्रक्रिया में उसे गोर्बाच्योवी पेरेस्त्रोइका से बचा सकता है।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।