(वर्तमान का दौर अतार्किक बातों का ऐसा दौर है जिसे राजनैतिक वैधता प्राप्त है। मूर्खता पर अभिमान करने का इससे बेहतर वक्त शायद ही मिले। यह दौर स्वयं के नागरिक होने के अधिकार पर कुठाराघात करती प्रत्यक्ष हो रही है। इस हमले की स्थिति ने यथार्थ को एक कल्पना के माध्यम से रखने की ओर प्रेरित किया है।)
(इस काल्पनिक अवस्था में जनार्दन और नागरिक दो व्यक्ति हैं। इस काल्पनिक कथानक में जनार्दन वो पात्र है जो राजनीति के धुरंधरों के द्वारा खुद के लिए जनार्दन बुलाए जाने से आह्लादित और प्रफुल्लित है जबकि नागरिक वह व्यक्ति है जो तार्किक और अपने संवैधानिक अधिकार को लेकर अत्यंत जागरूक है।)
जनार्दन : ए नागरिक! सुनत हो! हिंया आओ हियां…
नागरिक : क्या बात है चचा? आज तो बहुत उत्साह में लग रहे हो?
जनार्दन : हम कहित रहीं कि हम गरीबन के दिन फिरन वाले हैं, सुने हो कि न सबसे बड़ा नेता ने हमका सब को जनार्दन बुलाया है, तू त खाली उल्टा-पुल्टा पट्टी पढायत रहे उ दीना हम सबका, अब का भ गइल? अब कछु न बोल रहे हो?
नागरिक : चचा, हद है! आप फिर नहीं समझे, आप फिर से खुश हो गए, तनिक भी नहीं सोचा? अच्छा! जरा बताओ कि जनार्दन का क्या अर्थ होता है?
जनार्दन : ऐं (अपना सिर खुजाते हुए) अब ई सब का मतलब तो हम इतने ही जानत रहीं कि कोई भगवान और पूजा-पाठ से होई।
नागरिक : हाथ में लिए अपने किताब को मोड़ते हुए कहता है कि बस आप लोग को यही चाहिए कि आपको भगवान और धर्म से संबंधित चीजों से जोड़ दिया जाए, और सारी समस्या खत्म।
जनार्दन : अपनी बातों को लेकर कुछ ज्यादा ही रक्षात्मक होते हुए कहता है कि “हमरा पहले से ही शक था कि तू महा-अधर्मी व्यक्ति हो, दीन-धर्म से दूर-दूर तक कोई नाता ही नहीं है तोरा, इहे चलते तू इ गांवन में बुड़बक जैसन, ई एगो दाढ़ी वाले बाबा, आ कौन जाने इ कौनो तांत्रिक हो का फोटो वाला किताबन (दरअसल यह नागरिक कार्ल मार्क्स द्वारा रचित पुस्तक कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो को हमेशा अपने साथ लेकर चलता है) के लेके घूमत चलत हो।
वो बड़बड़ाते हुए कहता है कि
काम का न काज का
दुश्मन अनाज का
जनार्दन आगे भुनभुनाते हुए कहता है कि और समूचन गांवन के लोगन के इ जे तू अधर्मन के पट्टी पढ़ावत रहे हो, ऊपर जाके भगवान के का मुंह दिखैबन?
नागरिक : चचा, एक बात बताओ, तुम तो ठहरे किसान, अब ये बताओ कि कृषि के उपज के लिए बढ़िया दाम तो चाहते हो न?
जनार्दन : हा एकदम चाहते हैं (पूरे अकड़ के साथ जोर देते हुए बोला)
नागरिक : तो ये बताओ कि सरकार ने साल 2016 E-Nam की व्यवस्था की बात की थी, याद है?
जनार्दन : सिर खुजाते हुए, विस्मयकारी भाव-भंगिमा देते हुए कहता है कि हां हां जरी याद तो आवत है कि मोबाइल फ़ोन से ही अपने उपज को कौनो राज्य के मंडी में बेच सकत हैं, उहे के बारे में बोल रहे हो न? देखो सब याद रखन है।
नागरिक : अरे हाँ हाँ चचा वही, जिसमें अनाज बिक्री की खातिर मंडी को ऑनलाइन से जोड़ना था।
नागरिक : तो चचा ई बताओ कि बेच लिए अपन उपज? अभी-अभी आए अध्यादेश में तो e-Nam का ज़िक्र भी नहीं है।
जनार्दन : कईसे बेच सकत हैं, हमरा पास तो ई छोटका मोबाइल है जेकरा में सिर्फ बात होई, बात करे-ला भी छत प जाए के होखे, बात करन के वास्ते इ बटन दवाबे के खातिर अपन बिटुआ के बुलाये के जरूरत होखे, आउ ई तो बात समझ न आवत है कि मोबाइलन से कैसे बिक्री होए।
नागरिक : चचा एक बात बताओ-
- तुम्हारे पास सही मोबाइल की उपलब्धता है नहीं
- तुम्हारे मोबाइल में टावर आवत नहीं
- और पास के गाँव में तो टावर भी नहीं है
- कृषि के कमाई से तोर बचत 4000 से 5000 है
तो हमका बताओ कि तुम जनार्दन कैसे हो गए?
जनार्दन : तोर बतिया समझन में न आवत है।
नागरिक : जनार्दन का मतलब होता है सभ्य पुरुष, विष्णु भगवान को भी जनार्दन कहा जाता है। तुम सब जनार्दन हो तो बदहाल क्यों हो और अगर बदहाल हो तो जनार्दन कैसे हो गए?
जरा सोचो!
भगवान विष्णु तीनों लोकों के स्वामी हैं, तीनो लोकों के पालनहार हैं, उनका निवास क्षीर सागर में है, कमल उनकी शय्या है, नागराज उनके पहरेदार हैं और सबसे बढ़कर धन की देवी माँ लक्ष्मी उनकी अर्धांगनी है और जो सर्वदा उनके पैरों में होती हैं।
तुम सब अपना पेट पाल नहीं सकते और कहने को जनार्दन हो। जरा दिमाग पर जोर डालो कि ये सत्ता के ठेकेदार तुम्हें जनार्दन क्यों बुलाते हैं? इसलिए कि तुम्हारे वोट से ये ये धनपति कुबेर बनते हैं और तुम्हें उपहार स्वरूप घनघोर दरिद्रता देते हैं और ऊपर से जनार्दन की उपाधि देते हैं। जिस नाम को सुनकर तुम इतरा रहे हो वो तुम्हारे खिलाफ एक षड्यंत्र है।
जनार्दन : ये सुनकर थोड़ा सोच में पड़ गया और बोला कि इहाँ तक तो सोचे ही न और हाँथ जोड़ कर बोला कि भैया ई सबका का उपाय है?
नागरिक : जनार्दन को हाथ जोड़ते देख आक्रोशित होते हुए बोला कि सबसे पहले तो ये हाँथ जोड़ना बंद करो।
सत्ता से आंख से आंख मिलाकार अपनी रीढ़ को सीधी करते हुए हुंकार करो कि हम जनार्दन नहीं नागरिक हैं, ये जनार्दन बुलाना हमारे संवैधानिक अस्तित्व पर निर्मम आक्रमण है,हम इसका विरोध करते हैं।
जनार्दन : पुनः विस्मित भाव से नागरिक को देखते हुए लेकिन भैया इस से का होगा?
नागरिक : इस प्रश्न के साथ ही नागरिक की संवेदनशीलता ठिठक जाती है और इतिहास के फ्लैशबैक में खो जाती है। जहां उसे संविधान सभा में अपना विश्व प्रसिद्ध भाषण नियति से साक्षात्कार (ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी) का वाचन करते हुए नेहरू की वो पंक्तियां गूंज पड़ती है जिसमें वो कह रहे होते हैं-
(पृष्ठभूमि में नेहरू की आवाज गूंजती है)
(Freedom and power bring responsibility. That responsibility rests upon this Assembly, a sovereign body representing the sovereign people of India)
नागरिक का दिल और दिमाग तेज़ी से दौड़ते हुए बात करने लगता है कि 14 अगस्त की अर्धरात्रि में संविधान सभा के कक्ष में नए स्वतंत्र हुए देश का राजनैतिक प्रमुख भारत की जनता को नागरिक बनाने का सबसे बड़ा संवैधानिक घोषणा कर रहा था। घोषणा करते हुए कह रहा था कि..
स्वतंत्रता और सत्ता ज़िम्मेदारी लाती है और इस जिम्मेदारी का भार इस संवैधानिक सभा पर है, वो संवैधानिक सभा जो अपने आप में संप्रभु है जो कि भारत के संप्रभु लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।
इतना बड़ा कदम इस जनार्दन को नागरिक बनाने के लिए ही हुआ था लेकिन बिडम्बना और लाचारी देखिए कि ये जनार्दन और दिव्यांग बनकर खुश हैं। ये लोग क्यों नहीं समझते हैं कि पहले दिव्यांग को फिजिकली चैलेंज्ड कहा जाता था, अब जो नागरिक अपने किसी भी अंग के कारण शारीरिक चुनौती का सामना कर रहा है उसके उस अंग को दिव्य अंग कहना कहाँ तक उचित और तर्कपूर्ण है? ये तो कुछ वही मिसाल हो गई कि हम मंदिर में जाकर अपने इष्ट देव के समक्ष भारत के संविधान का वाचन प्रारम्भ कर दे। इन्हें कौन समझाए कि जनार्दन बनकर ये केवल एक कर्मकांडी वोटर बनकर रह जाएंगे जिससे केवल सत्ता का हित सधता है। लेकिन नागरिक बनकर अपना अधिकार पाने का संवैधानिक हक खो देंगे। क्या इसी दिन और जनार्दन के इसी सवाल के लिए संविधान निर्मित हुआ था?
तभी पृष्ठ भूमि से अकस्मात ही भारतीय संविधान के पिता अम्बेडकर की आवाज आती है जिसमे वे कह रहे होते हैं कि..
(Indians today are governed by two different ideologies. Their political ideal set in the preamble of the Constitution affirms a life of liberty, equality and fraternity. Their social ideal embodied in their religion denies them.” -B R Ambedkar)
अर्थात
भारतीय आज दो अलग-अलग विचारधाराओं द्वारा शासित हैं। एक तरफ जहां संविधान की प्रस्तावना उनके राजनीतिक आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के जीवन की पुष्टि/गारंटी करता है, वहीं दूसरी तरफ उनके धर्म में सन्निहित उनके सामाजिक आदर्श प्रस्तावना के इसी राजनैतिक आदर्श को नकारते हैं।
मार्क्स को पढ़ने वाले नागरिक की हताशा बढ़ने लगती है जो उसे UNHCR के लक्ष्य को याद दिलाता है। वो सोचता है कि संयुक्त राष्ट्र का एक अंग स्टेटलेस लोगों को उनकी राष्ट्रीयता दिलाने की दिशा में लगा है। UNHCR की वेबसाइट पर लिखी वो बाते याद आने लगती हैं कि आज लाखों लोगों के पास कोई राष्ट्रीयता नहीं है। इसका परिणाम यह है कि ये अपने किसी भी अधिकार का उपयोग नहीं कर सकते हैं, ना ये और इनके बच्चे स्कूल जा सकते हैं, न डॉक्टर की सुविधा ले सकते हैं, न नौकरी का दावा कर सकते हैं, न बैंक में अपना एक खाता खुलवा सकते हैं, न घर ले सकते हैं और यहाँ तक कि विवाह भी नहीं कर सकते हैं। इस स्थिति को देखते हुए UNHCR ने 2024 तक स्टेटेलेसनेस को खत्म करने का लक्ष्य रखा है, लेकिन हमारे यहां क्या हालत है कि संविधान की प्रस्तावना जहां स्पष्ट रूप से उद्घोषित कर रही है…
हम भारत के लोग, भारत को एक
सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और
उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर
की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब
में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की और एकता अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प हो कर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई० “मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं.”
क्यों समझ में नहीं आता इन्हें कि अगर संविधान का वाकई कोई मालिक है तो केवल नागरिक हैं, हम भारत के लोग है। संविधान का आगाज़ भी नागिरक से और अंजाम भी नागरिक तक। क्यों इन्हें याद नहीं रहता कि ये हम भारत के लोग हैं जो, भारत को एक…. बनाने के लिए अपनी संविधान सभा में आज तारीख…. को इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। इतनी बड़ी शक्ति जिसके लिए दुनिया के लाखों लोग मारे-मारे फिर रहे हैं और हम उसको दरकिनार कर जनार्दन, दिव्यांग और दरिद्रनारायण बनकर खुश हो रहे हैं।
उसके अचानक से सोच में पड़ जाने से जनार्दन को लगा कि इ लाल किताब वाले दढियल तांत्रिक का असर है, इसको कोई भूत धर लिया है, अब ये कुछ नहीं बोलेगा इसलिए यहाँ से निकल चलो।
उधर वो नागरिक जो पहले से ही गहन सोच और उधेड़बुन में उलझा हुआ था कि अचानक से फ़ोन की घंटी बजने से उसकी तंद्रा टूटती है और खबर मिली की हाथरस की एक कन्या अपराधियों के हैवानियत का शिकार हो ज़िन्दगी की जंग हार चुकी है। उस घृणित हिंसा के दौरान उसकी ज़ुबान को काट दिया गया, उसकी रीढ़ की हड्डी को तोड़ दिया गया और आगे जो कुछ भी भयावह हुआ उसको लिखने के लिए उंगलियों को भी हिम्मत चाहिए।
इधर सब जनार्दन बनकर खुश है और उधर पीठ में छुरा मारने का सिलसिला जारी है।
शौक से जनार्दन बनिये और उधर बेटियों की लाशों को उठते देखिए, यह कहकर तसल्ली कीजिए कि होनी को कौन टाल सकता है।
व्यथित, क्रोधित, उद्वेलित और कुछ हद तक अवसादग्रस्त यह नागरिक जो सत्य को देख पाने की सजा भुगत रहा था, क्रोध वश कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की लाल किताब को पहले उसने जोर लगाकर मरोड़ डाला तत्पश्चात उस किताब पर उसके हाथ ढीले पड़ने ही वाले थे कि अचानक से उसे पृष्ठभूमि में भगत सिंह की आवाज सुनाई देती है जिसमें वे कह रहे थे कि-
“जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में ले लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरूरत होती है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इंसान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है।
इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताज़ा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में एक हरकत पैदा हो।”
इसके साथ ही वह कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो किताब को संभालता है और दृढ़ कदमों के साथ पुनः चल पड़ता है जनार्दन को नागरिक बनाने। स्वयं से कहता है कि इंकलाबी फितरत संघर्ष मांगता है और यही संघर्ष जीवित रहने की निशानी है, और मैं ज़िंदा हूँ।
संध्या फिलहाल स्वतंत्र रूप से लेखन करती हैं। पहले अरविंदो सोसायटी समेत कई संस्थाओं से बतौर कंटेंट राइटर जुड़ी रही हैं। vatsasandhya@gmail.com