जब से प्रिंटिंग, तब से फ़ेक न्यूज़
माना जाता है कि फ़ेक न्यूज़ का इतिहास, कम से कम प्रिंटिंग प्रेस के इतिहास जितना पुराना तो है ही। जब साल 1439 में, गूटेन्बर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार किया था तभी से फ़ेक न्यूज़ का प्रचार और प्रसार शुरू हो गया था। 16वीं और 17वीं सदी के दौरान प्रकाशक ऐसे पैम्फ़्लेट्स और ख़बरों के पर्चे छापा करते थे जिनमें विशालकाय दैत्यों और अप्रत्याशित घटनाओं का विस्तार से उल्लेख हुआ करता था। कैटेलोनिया(स्पेन का एक हिस्सा) में 1654 में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसके अनुसार एक ऐसा राक्षस मिला है जिसके बकरी जैसे पैर हैं, इंसान जैसा शरीर है, सात हाथ हैं और साथ सिर है।
ये बातें झूठ थी, लेकिन जब प्रकाशकों से इसके बारें में पूछा गया तो उन्होंने ये कह कर इस मसले से अपने हाथ धो लिए कि उनका काम केवल एक ऐसा मंच देने का था जिससे सूचना के प्रचार और प्रसार में सुविधा हो। सूचनाओं की वैधता या वास्तविकता के पैमानों को तय करना उनका काम नहीं था।
प्रिटिंग प्रेस के आने से पहले आई फ़ेक न्यूज़
हालाँकि प्रेस के आगमन से पहले भी इतिहास और हमारी कहानियों में फ़ेक न्यूज़ के कई क़िस्से दर्ज हैं। शायद फ़र्क़ सिर्फ़ ये है कि तब उन्हें फ़ेक न्यूज़ नहीं कहते थे। इसापूर्व पहली सदी के दौरान, रोमन सेना के लीडर अगस्तस ने अपने प्रतिद्वंदी मार्क ऐंटॉनी के ख़िलाफ़ अफ़वाहों और दुष्प्रचार का एक अभियान चलाया था। इस अभियान के चलते, मार्क ऐंटॉनी पर तरह तरह के इल्ज़ाम लगाए गए थे। उन्हें शराबी, व्याभिचारी और रानी क्लीओपेट्रा के हाथों की कठपुतली भी कहा गया। भारतीय पुराणों में भी अफ़वाहों का ज़िक्र होता है। महाभारत के युद्ध के समय कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर, कृष्ण ने गुरु द्रोण को परास्त करने के लिए पांडवों को सुझाव दिया कि हमें द्रोणाचार्य और कौरवों के खेमे का मनोबल तोड़ना होगा। तब कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहलवाया, “अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो” अर्थात पता नहीं कि अश्वत्थामा नामक हाथी या मनुष्य कौन मारा गया है। गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र का नाम ‘अश्वत्थामा‘ था। इस संदेश के फैलते ही गुरु द्रोणाचार्य का मनोबल टूट गया और वह युद्ध भूमि में कमज़ोर पड़ गए। अन्यथा महाभारत के युद्ध में गुरु द्रोण की मृत्यु लगभग असम्भव थी। उनकी मृत्यु को आसान बनाने के लिए कृष्ण ने यह छल किया था।शायद आज के संदर्भ में कोई फ़ैक्ट चेकिंग संस्थान, इस बात को फ़ेक न्यूज़ भी कह सकती है।
साल 1475 में, इटली के ट्रेंट शहर में, सिमोनियो नाम का एक ढाई साल का बच्चा लापता हो जाता है। एक फ़्रांसीसी उपदेशक, बर्नार्डिनो दावा करते हैं की यहूदी समुदाय ने बच्चे की हत्या कर, उसका ख़ून निचोड़ कर और अपने पासओवर (Passover)पर्व के दौरान उस ख़ून को पी लिया था। इसके बाद उन्होंने इस बात का भी प्रचार किया कि बच्चे की लाश, एक यहूदी के घर के तहख़ाने में मिली थी। इन अफ़वाहों का नतीजा यह हुआ कि, आदेश जारी हुए की पूरे यहूदी समुदाय को बंदी बनाकर कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए। अंत में 15 यहूदियों को जला दिया जाता है।
आज भी सिमोन को ईसाई धर्म की कई मान्यताओं और कहानियों में सिमोन ऑफ ट्रेंट के तौर पर जाना जाता है, उसकी मूर्तियां बनती हैं और इसको लेकर यहूदियों को निशाना बनाया जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि नाज़ी जर्मनी में जो यहूदियों के ख़िलाफ़ जो माहौल था, उसकी जड़ें इन कहानियों में छुपी हुई हैं। यहां तक कि इस कहानी को नाज़ियों ने भी अपने दुष्प्रचार में इस्तेमाल किया। मतलब फ़ेक न्यूज़ को फैलाने वाले और इसके पीड़ितों की मृत्यु के सदियों बाद भी फ़ेक न्यूज़ का जीवन काल व्याप्त रह सकता है।
लेकिन अब तो पूरा फ़ेक न्यूज़ युग है..
वर्तमान की फ़ेक न्यूज़ और अफ़वाहों ने एक अलग आयाम और रूप ले लिया है। ये अपने आप में एक इतनी बड़ी समस्या बन गयी है कि साल 2016 में ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी ने “Post-Truth” को अपने शब्दकोश में शामिल किया था। ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के मुताबिक़ पोस्ट ट्रुथ (Post-Truth) का अर्थ था एक ऐसा वक़्त या युग, “जिसका सम्बन्ध ऐसी परिस्थितियों से हो जहाँ लोक-मत या जनता की राय बनाने में तथ्यों और वास्तविकता का बहुत कम योगदान और प्रभाव रहता है।” लोगों की भावनाएँ और निजी विचार, जनता की सम्मति को प्रेरित करते हैं।“Post-Truth” का तात्पर्य ये नहीं है कि अब सच के कोई मायने नहीं हैं या कोई सच मानता नहीं है या कोई सच मानना नहीं चाहता या सच का कोई अस्तित्व नहीं है।ना तो हमें यह मानना चाहिए कि ये दौर सच के परे है और ना ही यह कि ये सच के बाद का दौर है। बल्कि, ये एक ऐसा दौर है जहाँ सच मुश्किल में है, जहाँ सच को ना देख पाने या सच के ना सामने आने की सम्भावना बहुत ज़्यादा है। मुमकिन है कि, यह एक ऐसा वक़्त हैं जहाँ वास्तविकता, बहुसांख्यिक सत्ता पक्ष और भावनात्मक विचारों के अधीन है। आख़िर क्यों है सच जोखिम में? क्या होती है फ़ेक न्यूज़ और क्यों ये फैल पाती है? क्यों हम लोग कुछ बातों को बिना सबूत के सच मान लेते हैं?क्यों हम हमेशा एक ही तरह की ख़बरें या एक ही प्रकार के प्रसंगों को सच मान लेते हैं?
झूठ, आधा-सच या तथ्यों का विकल्प
ठीक साल 1600 ईसवीं में रोम के एक भीड़ भरे बाज़ार में, एक शख़्स को उल्टा लटका कर – उसको गालियां दी जा रही थी। भीड़ खड़े होकर इस विधर्मी के अंत का तमाशा देखने को उत्सुक थी। उसकी ज़ुबान, कैथोलिक चर्च, ईसा और महान वेटिकन के ख़िलाफ़ बोलने के आरोप में सिल दी गई थी। कुछ ही देर में उसके शरीर को आग लगा दी गई। आग की लपटों में गिरे, जलते और अपने निर्मम अंत की ओर जाते – ब्रूनो – गिआर्डिनो ब्रूनो का कुसूर ये था कि उसके दावा किया था कि धरती, सूरज के चारों ओर परिक्रमा करती है – जबकि कैथोलिक चर्च का मानना इसके ठीक उलट था।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलीलियो ने जब यही दावा किया कि, पृथ्वी सूरज के चक्कर काटती है, और पृथ्वी नहीं सूरज हमारे सौर मंडल का केंद्र है, तब उन पर भी यही इल्ज़ाम लगाया गया था। उनकी बातों को विधर्म , झूठ और पाखंड कहा गया था। फ़र्क बस ये था कि उनको ज़िंदा छोड़ दिया गया और ता-उम्र घर में क़ैद कर दिया गया। उनके द्वारा लिखी गयी चीज़ों के प्रकाशन पर रोक लगा दी गयी थी। उनकी बातें अंततः सच साबित हुई पर क्योंकि उनकी बातों ने समाज की प्रबल आवाज़ यानी कि चर्च को चुनौती दी थी – उनकी बातों को झूठ क़रार दे दिया गया। लेकिन एक और बात हुई, गैलीलियो की घटना के बाद ,तथ्यों और उनके सूत्रों पर एक बड़े स्तर पर विचार विमर्श होने लगा। तो क्या धर्म या प्रबल या प्रबुद्ध विचारों के ख़िलाफ़ बोलना, झूठ होता है? आख़िर सच, झूठ, आधा सच, पूरा झूठ होते क्या हैं? आख़िर सूत्रों, तथ्यों को कैसे समझा जाए?इन सवालों पर आने से पहले, वर्तमान समय की थोड़ी बात कर लेते हैं।
साल 2015 में तथ्यों की जाँच पड़ताल के लिए एक अंतराष्ट्रीय संगठन की स्थापना हुई। इस संगठन को IFCN (International Fact Checking Network) भी कहते हैं। यह संगठन fact checking संस्थानों को मान्यता देता है और उनके लिए नियम, क़ानून या मापदंड तय करता है। इस दौर में फ़ेक न्यूज़ या अफ़वाहों की जाँच करने वाले कई संस्थानो का गठन हुआ है। भारत में भी लगभग 14 ऐसी कम्पनियाँ हैं जो फ़ेक न्यूज़ से लड़ने का काम कर रही हैं। ऑल्ट न्यूज़, बूम, विश्वास न्यूज़ उनमें से प्रमुख संस्थाएँ हैं। इन सबके बावजूद आज फ़ेक न्यूज़ एक बहुत बड़ी समस्या है। क्यों झूठ पकड़े जाने की सम्भावना के बावजूद नेता, देशों के प्रमुख लगातार झूठ या तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश करते रहते हैं? उदाहरण के तौर पर जब राष्ट्रपति ट्रम्प का चुनाव हुआ था तो उन्होंने कहा कि, राष्ट्रपति रीगन के बाद ये सबसे बड़ी चुनावी जीत थी। जबकि ऐसा नहीं था। उन्होंने कहा कि, उनके अभिषेक के उत्सव में इतिहास की सबसे बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई थी। जबकि तस्वीरों में ऐसा कुछ नज़र नहीं आता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी चुनाव रेलियों में दावा किया की DBT (Direct Benefit Transfer) की योजना उनकी सरकार ने शुरू करी थी किंतु इस योजना की शुरुआत तो साल 2013 में ही हो गयी थी। इन सबको हम झूठ की कैटेगरी में डाल सकते हैं। पर आधे सच तो और भी दिलचस्प होते हैं जैसे कि ट्रम्प ने कहा कि उनके CIA के भाषण के दौरान, सब लोगों ने खड़े होकर उनको तालियाँ और सराहना दी, किंतु सच तो ये था की उस मीटिंग के दौरान ट्रम्प ने CIA के स्टाफ़ को बैठने की अनुमति ही नहीं दी थी। पर फिर क्यों ये नेता इतने मशहूर हैं – ट्रम्प के समर्थकों को जब ट्रम्प के झूठ बताए जाते हैं तो वो ये कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं की ट्रम्प की बातों को गम्भीरता से लेना चाहिए ना की वस्तुतः तौर से।मतलब उनके हर शब्द पर नहीं बल्कि उनकी समस्त बात पर ध्यान देना चाहिए।
(अ)विश्वास से (अंध)विश्वास तक
आख़िर सबूतों, तथ्यों, Fact Check के बावजूद झूठ या आधे पौने सचों पर क्यों भरोसा किया जाता है? शोधकर्ताओं के अनुसार इसके मुख्यतौर पर चार कारण होते हैं – उत्तेजित या प्रेरित तर्कशक्ति (Motivated Reasoning), पुष्टीकरण का पूर्वाग्रह (Confirmation Bias),आसानी से मिलने वाली बातें और अनुमान (Available Heuristics) और मुख्यधारा की बातें (Salience)।
उत्तेजित या प्रेरित तर्कशक्ति की वजह से जब हमें हमारी धाराणाओं के विपरीत या उनसे अलग कोई तर्क या डेटा दिया जाता है तो हमको मानसिक असहजता का अनुभव होता है। उस नए डेटा को मानने से ज़्यादा हमें उसको ख़ारिज करने में आसानी होती है। जैसे कि मान लीजिए हमको बार बार कहा जाता है कि हिन्दू बहुत लिबरल और सहनशील है क्योंकि हमारे देश की मजॉरिटी ने मुस्लिम राष्ट्रपति, मुस्लिम अभिनेताओं, मुस्लिम लोगों को अपनाया है। चलिए मान लेते हैं ये सच है, तो फिर तो जब मुग़ल शासकों ने राजपूत महिलाओं से शादी करी या आमेर के कच्छवाहा राजपूतों को अपनी सेना में सबसे बड़े पद दिए – इस हिसाब से तो वो भी बहुत सहनशील हुए? दूसरा हमें लगातार बताया जाता है की मुग़लों ने भारत को लूटा-पर 1600 और 1700 सदी में जब भारत में मुग़लों का शासन था तब तो भारत की GDP , विश्व में क्रमानुसार पहले और दूसरे पायदान पर थी। तो फिर लूट कर उन्होंने शायद निवेश वापिस भारत में ही कर दिया होगा?इस डेटा के बावजूद हम अपने विचार नहीं बदल पाते क्योंकि उस प्रक्रिया में हमें अपने पुराने विचारों और भावनाओं से दूर होना होगा, जो की बहुत कष्टदायी अनुभव होता है और जिसमें बहुत मेहनत लगती है।
पुष्टीकरण का पूर्वाग्रह की वजह से हम वो ही किताबें, ख़बरें, कहानियाँ ढूँढते हैं जो हमारी वर्तमान धाराणाओं से सहमति रखते हों।ना सिर्फ़ सूचना खोजने में हम अपने पूर्वाग्रहों पर निर्भर होते हैं, पर जो सूचना हमारे सामने आती है उसको हम अपने हिसाब से समझ भी लेते हैं। जैसे कि नाज़ी जर्मनी में यहूदियों के ख़िलाफ़ रेडियो पर लगातार दुष्प्रचार किया जाता था, पर उसका दुष्प्रभाव सिर्फ़ उन इलाक़ों में देखने को मिला जो पहले से ही यहूदियों के ख़िलाफ़ थे।
मुख्यधारा की बातें(salience) – वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे पास सीमित मानसिक क्षमताएँ और यादाश्त होती है। तो हमारे सामने अगर दस तरह की बातें हैं, हम सिर्फ़ कुछ बातों पर ध्यान देते हैं। इसलिए नेता कभी कभार उन्ही मुद्दों के बारें में बात करते हैं जिनसे लोग उत्तेजित हो जाएँ। फिर फ़र्क़ नहीं पड़ता की उन मुद्दों पर किसी नेता ने सच कहा की झूठ। क्योंकि मुद्दा ज़रूरी हो जाता है, मुद्दे पर क्या कहा और किया गया वो नहीं। जैसे नोटबंदी के दौरान काला धन का मुद्दा महत्वपूर्ण हो गया, पर काला धन आया की नहीं उस पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया। साल 2019 में जब 4 मुख्याधाराओं के टीवी चैनलों की 202 डिबेट्स का एक विश्लेषण किया गया तब पता चला की 79 डिबेट्स पाकिस्तान के ऊपर थी, 66 विपक्ष पर प्रहार करते हुए थी, 14 डिबेट्स राम मंदिर के मुद्दे पर थी और 36 डिबेट्स RSS/मोदी जी की प्रशंसा करते हुए थी। मतलब इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता की ये मुद्दे ज़रूरी हैं की नहीं, लेकिन क्योंकि सिर्फ़ इनही मुद्दों पर बात हो रही है तो ये मुद्दे अपने आप ज़रूरी लगने लग जाते हैं।
आसानी से मिलने वाली बातें और अनुमान (available heuristics) – सोशल मीडिया के अलगोरीथमस हमें लगातार उसी तरह की बातें दिखाते हैं जिनसे हम सहमत हो। तो हमें अपनी बातों को सही सिद्ध करने के लिए आसानी से वही तर्क मिल जाते हैं जिनसे हम पहले से ही सहमत हो।
फ़ेक न्यूज़ का दोषी कौन?
तो ना केवल फ़ेक न्यूज़ फैलाने वाले लोग इस झूठ के कारोबार के ज़िम्मेदार हैं, लेकिन जिस तरह हम चीज़ें ढूँढते हैं, याद करते हैं, भूल जाते हैं, पढ़ते हैं, सुनते हैं – हम फ़ेक न्यूज़ से सिर्फ़ पीड़ित ही नहीं उसके दोषी भी है। बचपन में एक खेल खेलते थे चायनीज़ विस्पर जिसमें एक आदमी दूसरे के कान में कुछ फुसफुसा देता था, ऐसे करते करते जब वो बात फिर से पहले आदमी तक आती थी, तो वो कुछ और ही स्वरूप ले लेती थी।हो सकता है आपने ग़लत सुना हो, हो सकता है आपने ग़लत समझा हो, हो सकता है आपने आधा सुना हो, हो सकता है आप सुनकर भूल गए हो-फ़ेक न्यूज़ भी कुछ इसी तरह फैलती है।दूसरे के ग़लत होने के साथ साथ आपके ग़लत होने की भी पूरी सम्भावना है।
मिसाल के तौर पर राहुल गांधी को ही ले लीजिए..
इसको एक कहानी की तरह समझते हैं – राहुल गांधी को लगातार पिछले कई सालों तक एक सुनिर्देशित अभियान के तहत पप्पू कहा गया है। आपने हमने लगातार उनके ऊपर जोक्स बनाएँ हैं, मीम्स शेयर किए हैं, हँसी ठिठोली करी है।पहला, क्योंकि हमारे आस पास के लोग मानते हैं वो पप्पू हैं तो हमें कुछ अलग सोचने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। इसलिए हम उनके बहुत सारे भाषणों को नज़रंदाज़ कर देते हैं , क्योंकि एक पप्पू की बातें सुनकर क्यों समय बर्बाद करें। फलस्वरूप हमारे पास उनके बारें में कोई नया डेटा नहीं आ पाता, इसलिए उनको लेकर हमारा दृष्टिकोण नहीं बदल पाता और हम उन्हें लगातार पप्पू मानते रहते हैं। दूसरा, किसी और की अगर ज़ुबान लड़खड़ाती है तो हम उसे माफ़ कर देते हैं पर हम वो ही छूट या आज़ादी राहुल को नहीं देते क्योंकि हमने मान लिया है की उनकी भूल एक अपवाद नहीं बल्कि मानक है। तीसरी बात, हम हर बात की कल्पना नितांत में ही कर पाते हैं – जैसे अगर हमको ये मानना पड़े कि राहुल गांधी पप्पू नहीं है तो हम सोचते हैं हमें यह मानना पड़ेगा वो अपूर्व बुद्धि के धनी हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, ज़रूरी नहीं है कि जो पप्पू नहीं है वो जीनियस हो। इस सबके चलते राहुल की छवि को तो राजनैतिक नुक़सान हुआ होगा, पर हमारा तो सामाजिक नुक़सान हुआ है। उन्होंने तो चुनाव हारे या हमारे ताने सुने, हमने तो अपने सच देखने की क़ाबिलियत खो दी है। अंत में ये सब पढ़कर आप लोगों को लगेगा कि मैं एक कांग्रेसी हूँ या गांधी परिवार की चमची हूँ – तो सवाल ये है की क्या यह आपके कन्फर्मेशन बायस (सुनिश्चित पूर्वाग्रह) या मोटिवेटेड रीज़निंग(प्रेरित तर्क) की वजह से हो रहा है या फिर मेरे द्वारा दिए गए राहुल गांधी के उदाहरण की वजह से? इसके लिए शायद लेख फिर से पढ़ना पड़ेगा। ये आपका निर्णय है की आप सच ढूँढने का प्रयास करेंगे या फिर इस उदाहरण के कारण इस पूरे लेख को खारिज कर देंगे?
सौम्या गुप्ता, डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी उच्च शिक्षा हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर काम कर रही हैं।
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