फ़िरोज़ गाँधी से शादी पर नेहरू का जवाब- “इंदिरा ने जिस किसी से भी प्रेम किया होता, मैं कबूल कर लेता!”

पीयूष बबेले पीयूष बबेले
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मार्च 1942 में इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी की शादी से पहले जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के पास इसे रोकने के लिए खूब चिट्ठियां आ रही थीं। ये चिट्ठी वो लिख रहे थे, जिन्हें एक हिंदी और गैर-हिंदू के बीच शादी मंजूर नहीं थी।

बात मार्च 1942 की है, भारत छोड़ो आंदोलन से पहले की। इंदिरा और फिरोज गांधी की शादी होनी थी। इस शादी के कार्यक्रम को लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू तो सोच में थे ही, महात्मा गांधी और पूरा देश भी सोच रहा था। गांधीजी और पंडित नेहरू के पास इस शादी को रोकने के लिए बड़ी संख्या में चिट्ठियां आ रही थीं, क्योंकि शादी एक हिंदू और एक गैर-हिंदू के बीच होनी थी।

नेहरू जी का स्पष्ट मत था कि विवाह भले ही अंतर-धार्मिक हो, लेकिन इसके बाद वर और वधु में से किसी का धर्म परिवर्तन ना हो। इंदिरा और फिरोज भी यही चाहते थे। नेहरू जी ने 26 फरवरी 1942 को प्रेस के लिए एक वक्तव्य जारी किया, जो 28 फरवरी 1942 के मुंबई क्रॉनिकल में प्रकाशित हुआ।

इसमें लिखा था, ‘अखबारों में मेरी बेटी इंदिरा की फिरोज गांधी के साथ सगाई के बारे में खबर प्रकाशित हुई है। लोग मुझसे भी इस बारे में पूछ रहे हैं। इसलिए मैं इस खबर की पुष्टि करता हूं… मेरी लंबे समय से यही मान्यता है कि शादी के मामलों में माता-पिता को लड़के-लड़की को सलाह देनी चाहिए, लेकिन अंतिम फैसला लड़का और लड़की को ही करना है…जब मुझे इस बात की तसल्ली हो गई कि इंदिरा और फिरोज एक दूसरे से शादी करना चाहते हैं तो मैंने खुशी से उनके फैसले को स्वीकार कर लिया और उन्हें अपना आशीर्वाद दिया… महात्मा गांधी ने भी इस प्रस्ताव को शुभकामनाएं दी हैं…फिरोज नौजवान पारसी हैं। वह कई वर्षों से हमारे परिवार के मित्र और साथी रहे हैं, बल्कि मैं तो उन्हें देश के काम और आजादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भागीदार के तौर पर देखता हूं। अगर मेरी बेटी ने जिस किसी से भी प्रेम किया होता तो मैं उसकी पसंद को कबूल कर लेता। अगर मैं ऐसा नहीं करता तो मैं उन सिद्धांतों से नीचे गिर जाता, जिन्हें मैंने हमेशा मान्यता दी है।’

मुंबई क्रॉनिकल में लिखा था, ‘महात्मा गांधी चाहते हैं, यह शादी सेवाग्राम में हो। इससे उनके लिए शादी समारोह में शामिल होना आसान होगा। मैं उनके सुझाव की प्रशंसा करता हूं और उसके लिए आभारी हूं, लेकिन मेरे परिवार के सदस्य चाहते हैं कि यह समारोह घर पर हो। इसलिए विवाह एक महीने के भीतर इलाहाबाद में होगा।’

नेहरू ने तो यहां तक कहा कि इंदिरा की शादी सिर्फ उनकी बेटी की शादी नहीं है। यह शादी अलग तरीके से होगी, जिसमें दूल्हे और दुल्हन का धर्म परिवर्तन नहीं होगा। यह अंतर-धार्मिक विवाहों के लिए नजीर होगी। और भारत की संसद ने जब विशेष विवाह अधिनियम बनाया तो यह बात वाकई सच साबित हुई। महात्मा गांधी ने खुद अपने हाथ से विवाह के लिए ऐसी पोथी तैयार की जिसमें हिंदू धर्म के और पारसी धर्म के धार्मिक मंत्रों को समाहित किया गया, लेकिन संयोग से पोथी काफी बड़ी बन गई।

16 मार्च 1942 को पंडित नेहरू ने वर्धा से लक्ष्मीधर शास्त्री को पत्र लिखा। इसमें उन्होंने इस बात का जिक्र किया की शादी की विधि ऐसी ना हो जाए कि लोगों को बहुत अजीब लगे। उन्होंने महात्मा गांधी की बनाई विवाह विधि भी लक्ष्मीधर शास्त्री को भेजी और उसमें लिखा कि इसके कुछ हिस्से हटा दिए जाने चाहिए। लेकिन पूरे पत्र में वह शास्त्री जी को समझाते रहे कि महात्मा गांधी की बातों पर पूरी गंभीरता से विचार किया जाए और उनका पालन किया जाए।
पत्र के अंत में नेहरू ने लिखा, ‘यह शादी एक हिंदू और एक गैर-हिंदू के बीच हो रही है। जरथुस्त्र धर्म की बहुत सारी बातें वैदिक कर्मकांड से मिलती-जुलती है, क्योंकि दोनों धर्म का उद्गम एक ही जगह से है। इसके बावजूद यह तथ्य अपनी जगह बना रहता है कि शादी एक हिंदू और एक गैर-हिंदू के बीच हो रही है। जहां तक धर्म का सवाल है तो दोनों को विवाह के बाद भी अपने मूल धर्म में बने रहना है। इसके कानूनी पक्ष क्या होंगे, उसके बारे में मैं अभी बहुत विस्तार से बात नहीं करूंगा। लेकिन विवाह समारोह इस तरह का होना चाहिए कि यह हिंदू और गैर-हिंदू दोनों को शोभा दे। इस विवाह का विधान इस तरह की नजीर पेश करेगा, जो आगे चलकर सुधार और यहां तक की कानूनों के लिए भी आधार भूमि बनेगा।’

नेहरू जी को पता था कि आने वाले समय में भारत में भी धर्म और जाति की जगह कम होती जाएगी। शादी और विवाह के मामले सिर्फ माता-पिता और परिवार के अख्तियार में नहीं रहेंगे। जब समाज खुलेगा तो लड़के-लड़कियां आपस में उसी तरह एक दूसरे के संपर्क में आएंगे जैसे कि वे पश्चिमी देशों में आते हैं। उनके विवाह भी होंगे और बहुत संभव है, उस समय समाज उनका विरोध भी करेगा। इसलिए उन्होंने धर्मों के टकराव के बजाय धर्मों को हमकदम बनाकर शादी के एक नई पद्धति भारत में विकसित की। लव जिहाद जैसे मानसिक विकारों से निपटने के लिए बहुत ही लोकतांत्रिक तरीका नेहरू जी ने निकाला था।

नेहरू और इंदिरा ने सर्वधर्म समभाव को सिर्फ विवाह तक ही सीमित नहीं रखा। आगे चलकर जब इंदिरा की पहली संतान हुई तो नेहरू ने उस तरह के नामों पर विचार किया, जो हिंदू और पारसी दोनों धर्मों में समान रूप से स्वीकार हो। इसीलिए उन्होंने इंदिरा के चुने नाम राहुल को उस समय पसंद नहीं किया और उनके पहले बेटे का नाम राजीव रखा। हालांकि, इंदिरा ने आगे चलकर राजीव के बेटे का नाम राहुल रखा।

इंदिरा आने वाले समय में भी धर्म नहीं अपने कर्म के लिए याद की जाएंगी। याद किया जाएगा कि उन्होंने किस तरह सिक्किम का भारत में विलय कराया। कैसे तिब्बत पर चीन के कब्जे का संतुलन बनाया। उन्हें 1967 के भारत-चीन युद्ध के लिए याद किया जाएगा। इसमें भारतीय सेना ने चीन के 450 सैनिकों को मार गिराया था, जबकि भारत के 88 सैनिक शहीद हुए थे। भारतीय सेना ने नाथू ला और चो ला इलाके से चीन के ठिकाने उखाड़ फेंके थे और वह जमीन आजाद करा ली थी। भारत-चीन के इस दूसरे युद्ध का ही परिणाम था कि अगले 40 साल तक चीन ने भारत पर इस तरह का आक्रमण करने की हिम्मत नहीं की। वह तो 2020 में जाकर चीन ने भारत पर हमला करने की जुर्रत दिखाई और हमारे बीस सैनिक शहीद कर दिए।

इंदिरा राजाओं का प्रीविपर्स खत्म करने के लिए याद की जाएंगी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के रूप में पाकिस्तान के दो टुकड़े करने के लिए भी याद की जाएंगी। वह भारत की एकता, अखंडता और खासकर धर्मनिरपेक्षता के लिए जान कुर्बान करने वाली नेता के तौर पर याद की जाएंगी।

ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद सुरक्षा एजेंसियों ने उनसे बार-बार कहा कि वह सिख बॉडीगार्ड्स ना रखें, लेकिन देश के संविधान और भारत की आत्मा में यकीन करने वाली इंदिरा ने धर्मनिरपेक्षता की खातिर सिख बॉडीगार्ड्स को हटाने से इंकार कर दिया। वैसे, सुरक्षा एजेंसियों का अंदेशा सही साबित हुआ। इंदिरा को उनके सुरक्षा गार्डों ने ही गोलियों से छलनी कर शहीद कर दिया। महात्मा गांधी की हत्या से पहले भी उन्हें भी हमले को लेकर आगाह किया गया था। तब महात्मा यही कहते रहे, ‘मैं किसी तरह की सुरक्षा स्वीकार नहीं कर सकता, अगर कोई मेरी हत्या करना चाहता है तो कर दे।’ आखिरकार एक आतंकवादी ने 79 वर्ष के महात्मा की गोली मारकर हत्या कर दी।

इस तरह की हत्या से लोग मरते नहीं है, अमर हो जाते हैं। महात्मा ने कहा था कि ना तो मृत्यु महत्वपूर्ण है और ना जीवन। अगर कोई बात महत्वपूर्ण है तो वह है सत्य पर टिके रहना। फिर गांधी जी सत्य को भी परिभाषित करते हैं। वह कहते हैं कि सत्य का मतलब सिर्फ सच बोलना नहीं है। राजा हरिश्चंद्र की तरह सत्य के लिए हर मुसीबत को झेलना और सत्य पर अटल रहना ही सत्य का पालन है। अपनी मृत्यु में इंदिरा गांधी को वह महान सद्गति मिली। आज जो लोग इंदिरा गांधी के कर्म की जगह उनके धर्म के बारे में सवाल उठाते हैं, ईश्वर उन्हें भी सद्गति दे।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। फ़ेसबुक से साभार।