जब चला महात्मा गांधी पर राजद्रोह का मुक़दमा!


“मुझे पता था कि, मैं आग से खेल रहा हूं। मैंने जोखिम उठाया है और अगर मुझे आज़ाद कर दिया गया, तो भी मैं वही करूँगा, जो पहले कर चुका हूं। मैं हिंसा से बचना चाहता था। अहिंसा मेरी आस्था का पहला पाठ है और मेरे विश्वास का अंतिम लेख भी है। लेकिन मुझे अपना दृष्टिकोण तय करना था। मुझे या तो ऐसी व्यवस्था के सामने झुकना पड़ता, जिसके बारे में मुझे लगता था कि इसने मेरे देश की एक अपूरणीय क्षति की है, या मेरे अपने लोगों के गुस्से के फूटने का जोखिम उठाना पड़ता। मुझे पता है कि मेरे लोग कभी-कभी पागल हो जाते हैं। मुझे इसके लिए गहरा खेद है और इसलिए, मैं यहां एक हल्के दंड के लिए नहीं बल्कि अधिकतम दंड के लिये खुद को प्रस्तुत करने हेतु कठघरे में खड़ा हूँ। मिस्टर जज, आपके लिए अब, बस एक ही रास्ता बचा है, जैसा कि मैं अब अपने बयान में कहने जा रहा हूं, या तो अपने पद से इस्तीफा दे दें या मुझे धारा 124A आईपीसी के अपराध के लिये सबसे गंभीर दंड दें।”


विजय शंकर सिंह विजय शंकर सिंह
दस्तावेज़ Published On :


हर कानून का दुरुपयोग न केवल बुरा है, बल्कि यह खुद भी कानून का उल्लंघन है, पर यह बात भी काफी हद तक सही है कि हर कानून का कुछ हद तक दुरुपयोग होता आया है और अब भी हो रहा है। आज सेडिशन यानी राजद्रोह की धारा 124A के कतिपय दुरुपयोग, पर सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है तो इसी धारा के अंतर्गत महात्मा गांधी पर 1922 में एक मुकदमा भी चल चुका है। यह मुकदमा उनके द्वारा लिखे गए दो लेखों के आधार पर चलाया गया था, जिसके बारे में ब्रिटिश हुक़ूमत का कहना था कि वे लेख राजद्रोह के अपराध धारा 124A के अंतर्गत आते है। गांधी जी पर चले इस मुकदमे का देश के कानूनी इतिहास में एक अहम स्थान है।

मार्च 1922 में, गांधी जी पर अहमदाबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश श्री ब्रूमफील्ड, आई.सी.एस. के समक्ष, गांधी जी द्वारा लिखे गए दो लेखों के संबंध में राजद्रोह का एक मुकदमा चलाया गया था। यह दोनो लेख उनके द्वारा निकाले गए अखबार यंग इंडिया में छपे थे। 1922 के पहले ही देश का वातावरण अशांत और ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी हो चुका था। 1919 का जलियांवाला बाग त्रासदी और 1921 के असहयोग आंदोलन ने देश को आंदोलित कर रखा था। मुख्य रूप से गांधी के सिद्धांतों पर आधारित असहयोग और सविनय अवज्ञा के उनके अभियान के कारण, लोगों के मन मे, ब्रिटिश सरकार के प्रति क्षोभ, अशांति और शत्रुता की भावनाएं पनपने लगी थीं। इसके परिणामस्वरूप हिंसा और रक्तपात की कुछ घटनाएं भी हुयी, जैसे गोरखपुर के पास चौरीचौरा की घटना। हाल ही में 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा के अवसर पर बम्बई में एक क्रोधित भीड़ द्वारा हमले और संपत्ति को नष्ट करने वाली एक घटना भी घटी थी। हालांकि गांधी जी ने हिंसा के इन कृत्यों की निंदा भी की थी और वे सदैव ऐसे हिंसक आंदोलनों के विरुद्ध थे, पर अहिंसक से अहिंसक आन्दोलनों में भी हिंसा की कुछ न कुछ घटनाएं घट ही जाती है। चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद, गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया और वे आत्मावलोकन के लिये कुछ दिनों के उपवास पर चले गए।

1919 में प्रथम विश्वयुद्ध खत्म हो चुका था। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद मित्र राष्ट्रों द्वारा तुर्की के साथ किए गए व्यवहार पर भी मुसलमानों में व्यापक असंतोष था। तुर्की की खिलाफत खत्म हो गयी थी। मुसलमान तुर्की के खलीफा को अपने धर्म प्रमुख के रूप में देखते थे और इंग्लैंड सहित यूरोपीय शक्तियों द्वारा खलीफा के किसी भी अपमान का वे प्रबल विरोध करते रहते थे। देश में अली बंधुओं के नेतृत्व में खिलाफत आंदोलन शुरू हो चुका था। गांधी जी ने भारत में ब्रिटिश शासन के विरोध में खड़े अली बंधुओं के साथ हाथ मिला लिया और वे खिलाफत आंदोलन के साथ जुड़ गए। इस पर टिप्पणी करते हुए, स्ट्रैंगमैन ने कहा है कि, “अली ब्रदर्स केवल मुस्लिम खलीफा के हटाये जाने के काऱण गांधी के साथ थे और वे इसीलिए ब्रिटिश शासन का खात्मा चाहते थे।”

धर्म के आधार पर बनी हुयी यह हिंदू – मुस्लिम एकता कुछ हद तक कृत्रिम और अल्पकालिक भी थी। तुर्की के अपमान पर भड़की मुस्लिम भावनाओं से सामान्य हिंदुओं का कोई विशेष लेना देना भी नहीं था। पर ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध ज़रूर एक साझा  बिंदु था। इसीलिए, जैसे ही तुर्की के खलीफा का मामला अप्रासंगिक हुआ, यह मामला खत्म हो गया। पर ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध एक साझा विंदु ज़रूर बना रहा। हालांकि, बाद में तो जब ‘धर्म ही राष्ट्र है’ का घातक द्विराष्ट्रवाद सामने आया, तब तो देश के विभाजन की भूमिका ही बनने लगी। न तो हिंदू और न ही मुसलमान, अपने पिछले साम्प्रदायिक वैमनस्य के इतिहास को भूल सके और न ही दोनो ही धर्मो के कट्टरपंथी तत्वो ने उन्हें भूलने ही दिया।

अपनी किताब, इंडियन कोर्ट्स एंड कैरेक्टर्स में स्ट्रैंगमैन ने लिखा है, ” तुर्की संधि का प्रकरण, अली बंधुओ का एक मुख्य मुद्दा था, लेकिन यह एक ऐसा मामला था, जिसमें हिंदू कम ही रुचि रखते थे। स्वाभाविक रूप से एक समय के बाद साम्राज्य के विरोध के तरीकों के बारे में विचारों का विचलन साफ तौर पर दिखने लगा था। अहिंसक और गांधीवादी असहयोग के सिद्धांतों को अपनाने के लिए स्वभावतः उग्र मुसलमानो को राजी करना, शेर को मेमने की चंचल चाल सिखाने के समान था। अली बंधुओ ने हिंसा के लिए उकसाने और भड़काने वाले बयान दिए, जिसके लिए, गांधी के कहने पर, उन्होंने बाद में एक माफी भी प्रकाशित की। इसके कारण, सरकार ने उन पर मुकदमा चलाने से परहेज किया; लेकिन यह केवल थोड़े समय के लिए ही था। अली ब्रदर्स पर बाद में मुकदमा चलाया गया और उन्हें दोषी ठहराया गया था।”

यह आकलन है सर थॉमस जोसेफ स्ट्रैंगमैन का जो एक ब्रिटिश बैरिस्टर और बॉम्बे प्रॉविंस के एडवोकेट जनरल थे और उन्होंने इस मुकदमे सहित अन्य महत्वपूर्ण मुकदमो पर एक किताब, इंडियन कोर्ट्स एंड कैरेक्टर्स, भी लिखी है जो देश के कानूनी इतिहास में एक महत्वपूर्ण संदर्भ पुस्तक के रूप में जानी जाती है। सर स्ट्रैंगमैन के इस आकलन से आधुनिक काल के कुछ इतिहासकार सहमत नहीं हैं। उनका कहना है सर स्ट्रैंगमैन ने खिलाफत आंदोलन में मुसलमानों के गुस्से और क्षोभ को तो रेखांकित किया है, पर उन्होंने, रौलेट एक्ट के विरोध, जलियांवाला बाग नरसंहार और चौरीचौरा हिंसा के पीछे भारतीय असंतोष को या तो देखा नहीं या देखना नही चाहा।

अब आते हैं महात्मा गांधी के उस लेख पर जिसके काऱण उन पर ब्रिटिश हुक़ूमत ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया था। अपने अखबार, यंग इंडिया में, 29 सितंबर 1922 को गांधी जी ने अपने ही नाम से एक लेख लिखा। इस लेख में अली बंधुओं द्वारा सैनिकों को भड़काने की बात का तर्कपूर्ण जिक्र था। गांधी जी ने अपने लेख में लिखा था कि, “वह बॉम्बे के गवर्नर की इस निराशाजनक अज्ञानता को समझ नहीं पा रहे हैं। इससे यह स्पष्ट है कि वे (गवर्नर, बॉम्बे ) पिछले बारह महीनों के दौरान भारतीय इतिहास के कतिपय घटनाक्रमों से परिचित नहीं हो पाए है। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पिछले साल सितंबर में ही, सिपाहियों की वफादारी के सवाल पर अपनी बात कहनी शुरू कर दी थी, न कि केंद्रीय खिलाफत समिति ने इसे पहले शुरू किया था। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि, इस सरकार की सेवा करना, चाहे वह सैनिक हो या नागरिक, किसी के लिए भी पाप है, जो भारत के हिंदुओ और मुसलमानों, दोनों के लिए समान रूप से विश्वासघाती साबित हुई है, और जो पंजाब की अमानवीयता ( जलियांवाला बाग नरसंहार ) का दोषी है। यह बात मैंने खुद, सिपाहियों की मौजूदगी में, कई मंचों से कही है। मैं गोली मारने के आदेश को मानने के बजाय, भारतीय सिपाही को व्यक्तिगत रूप से ब्रिटिश राज की सेवा छोड़ने और बुनकर बनने के लिए कहने में संकोच नहीं करूंगा। भारत को सिपाहियों के बल पर अधीन करने और बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं है। क्या जलियांवाला बाग में, उनसे निर्दोष लोगों की हत्या नहीं कराई गयी है ? क्या उनके द्वारा, चांदपुर की उस भयानक रात में निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को बल पूर्वक भागने को मजबूर नहीं किया गया है ? क्या उनका उपयोग मेसोपोटामिया के अभिमानी अरब को वश में करने के लिए नहीं किया गया था ? क्या उनका उपयोग मिस्र को कुचलने के लिए नहीं किया गया है? कोई भी भारतीय, जिसमें मानवता की चिंगारी है, और कोई भी मुसलमान, जिसे अपने धर्म पर गर्व है, अली बंधुओं की सोच से अलग कैसे महसूस कर सकता है? ब्रिटिश राज में, सिपाहियों का इस्तेमाल भाड़े के हत्यारे के रूप में, अनेक बार किया गया है, न कि कमजोर और असहायों की स्वतंत्रता या सम्मान की रक्षा करने वाले सैनिक के रूप में।”

गांधी जी मेसोपोटामिया और मिश्र का उल्लेख प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय सैनिकों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य के पक्ष में युद्ध करने के संदर्भ में कर रहे थे। यंग इंडिया में ही गांधी जी ने एक और लेख लिखा, जिसमें उन्होंने लॉर्ड रीडिंग को जवाब दिया था। लॉर्ड रीडिंग, वायसराय थे और उन्होंने एक सार्वजनिक भाषण में कहा था कि, ” वह भारतीय समुदाय के एक वर्ग की गतिविधियों से हैरान और अचंभित महसूस करते हैं। मैं खुद से पूछता हूं कि सरकार को चुनौती देने और गिरफ्तारी करने के लिए मजबूर करने के उद्देश्य से कानून का उल्लंघन कर, आप किस उद्देश्य को पा जाते हैं ?”

गांधी का जवाब था, “हम गिरफ्तारी चाहते हैं क्योंकि तथाकथित स्वतंत्रता गुलामी है। हम इस सरकार की ताकत को चुनौती दे रहे हैं क्योंकि हम इसकी गतिविधि को पूरी तरह से बुरा मानते हैं। हम सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। हम इसे लोगों की इच्छा के अधीन करने के लिए मजबूर कर देना चाहते हैं। हम यह दिखाना चाहते हैं कि सरकार लोगों की सेवा करने के लिए है, न कि लोगों को आधीन बनाने के लिए।”

एक तीसरे लेख में, गांधी लिखते है, ” सत्ता की लाल शराब और लूट के नशे में धुत कोई भी साम्राज्य अभी तक इस दुनिया में लंबे समय तक नहीं रह पाया है और यह ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ जो उपनिवेशों के संगठित शोषण पर आधारित है, वह भी नही रहेगा। इस पाशविक और बर्बर शक्ति के निरंतर प्रदर्शन पर, यदि ब्रह्मांड पर शासन करने वाला एक न्यायपूर्ण ईश्वर है, तो यह साम्राज्य जीवित नहीं रह सकता है।”

गांधी ने जिस स्पष्टता के साथ अपनी बात ऊपर दिये गए लेखों में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ कही थी, वह एक तरह से अभूतपूर्व था। अंग्रेजों को इतने साफ और निर्भीक शब्दो मे उत्तर किसी ने नहीं दिया था। यहां तक कि लोकमान्य तिलक के केसरी में लिखे लेख में भी इतनी साफगोई से ब्रिटिश राज के अन्याय और बर्बरता को उजागर नहीं किया गया था। फिर भी तिलक को 1909 में राजद्रोह का मुकदमा झेलना पड़ा था और वे दोषी पाये गये थे। उन्हें छह साल के कारावास की सज़ा मिली और उन्हें ब्रिटिश राज ने बर्मा की मांडले जेल में कारावास का दंड भुगतने के लिये भेज दिया था। गांधी जी के यह लेख, सरकार के लिए एक खुली और स्पष्ट चुनौती थे और सरकार ने इसे, सिपाहियों सहित भारतीय जनता को भड़काने, उनकी राजनिष्ठा को तोड़ने और सरकार को नष्ट करने के सीधे प्रयास के रूप में लिया। किसी भी औपनिवेशिक सरकार के लिए इस तरह के राजद्रोह को नजरअंदाज करना असंभव था। औपनिवेशिक गुलामी बनाये रखने का मूल आधार ही भय होता है। गांधी के इस रूप से ब्रिटिश अनजान नहीं थे। वे दक्षिण अफ्रीका में गांधी की दृढ़ता, निर्भीकता और न झुकने वाला आत्मबल देख चुके थे। पर वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि कैसे इस व्यक्ति ने भारत की जनता के दिल और दिमाग पर कब्जा कर लिया है। गांधी का यह जादू ही उनके लिये सबसे बड़ी चुनौती थी।

गांधी पर राजद्रोह का मुकदमा, धारा 124A आईपीसी के अंतर्गत चलाया गया और अहमदाबाद के सत्र न्यायाधीश के समक्ष परीक्षण के लिए मुकदमा लिस्ट हुआ क्योंकि यंग इंडिया अहमदाबाद से ही प्रकाशित होता था। अतः घटनास्थल वहीं था। बॉम्बे राज्य के एडवोकेट जनरल के रूप में स्ट्रैंगमैन, सरकार की तरफ से पैरवी करने के लिए अहमदाबाद गए। गांधी ने कोई वकील नहीं रखा। उन्होंने अपना बचाव खुद किया। आखिर वे खुद भी तो बैरिस्टर थे। जाहिर है उन्होंने कोई बचाव ही नहीं किया। सब कुछ स्वीकार कर लिया। बैरिस्टर स्ट्रैंगमैन और सेशन कोर्ट के लिए कुछ काम ही नहीं बचा, क्योंकि, गांधी ने सभी आरोपों और तथ्यों को स्वीकार कर लिया था। अदालत ने गांधी जी और उनके सहअभियुक्त, शंकरलाल बैंकर, जो “यंग इंडिया” के मुद्रक थे, दोनों को दोषी ठहराया। एडवोकेट जनरल बैरिस्टर स्ट्रैंगमैन ने सुझाव दिया कि,
” आरोपों की गंभीरता और उनकी पूरी जांच की वांछनीयता को देखते हुए, अदालत को चाहिए कि वह मुकदमे को आगे बढ़ाए।”

हालांकि, अदालत स्ट्रैंगमैन के इस सुझाव से सहमत नहीं हुई औऱ सत्र न्यायाधीश ने, दोषी की दलील को स्वीकार कर लेने का फैसला किया। अदालत ने कहा कि, ” वह सेडिशन के सवाल पर सरकारी वकील को सुनेंगे।”

स्ट्रैंगमैन ने इस तथ्य पर जोर दिया कि “लेख अलग-अलग उदाहरण नहीं थे, लेकिन सरकार को असभ्य बताने और इसे उखाड़ फेंकने के लिए, खुले तौर पर और व्यवस्थित रूप से जानबूझकर असंतोष फैलाने के लिए, अभियुक्त गांधी, एक नियमित अभियान का हिस्सा बने। इसके अलावा इन लेखों का लेखक एक उच्च बौद्धिक प्रतिभा का व्यक्ति और एक मान्यता प्राप्त नेता है, साथ ही, “यंग इंडिया” एक व्यापक प्रसार संख्या वाला समाचार पत्र भी है। अंत में, यदि इस प्रकार के उखाड़ फेंकू अभियान को, अनियंत्रित रहने दिया गया, तो यह अनिवार्य रूप से ऐसी घटनाओं की ओर ले जाएगा, जैसी कि, बॉम्बे और चौरीचौरा में दंगे, हत्या और संपत्ति के विनाश के रूप मे घट चुकी हैं। जिसमें कई लोग दुर्भाग्य से शामिल थे। यह लेख क्या कहता है? किन मूल्यों की बात करता है? इस पर मुलजिम से पूछा जाना चाहिए।”

उन्होंने अभियुक्त गांधी को इंगित करते हुए, अदालत से अनुरोध किया, “अहिंसा पर आप जोर देते हैं। पर दूसरी तरफ आपने सरकार को पापी और विश्वासघाती के रूप में अपने लेख में दिखाया है और खुले तौर पर, जानबूझकर सरकार को उखाड़ फेंकने की मांग की औऱ उखाड़ फेंकने के लिए लोगो को उकसाया। क्या यह राजद्रोह नहीं है?”

अपने जवाब में गांधी ने एक लंबा लिखित बयान तैयार किया था; लेकिन इसे पढ़ने से पहले, जब उन्होंने स्ट्रैंगमैन की दलीलें सुनीं तो मौखिक रूप से सरकारी एडवोकेट जनरल से जो कहा, उसे पढिये। गांधी ने कहा-

“मैं यह कहना चाहूंगा कि, मैं पूरी विनम्रता से विद्वान महाधिवक्ता की टिप्पणियों का समर्थन करता हूं। मुझे लगता है कि उन्होंने मेरे द्वारा दिए गए सभी बयानों को पूरी तरह से पढा होगा। यह बात बिल्कुल सच है कि, मौजूदा सरकार की व्यवस्था के प्रति असंतोष का प्रचार करना मेरे लिए लगभग एक जुनून है। एडवोकेट जनरल भी पूरी तरह से सही हैं जब उन्होंने कहा कि इस असंतोष का मेरा उपदेश “यंग इंडिया” के साथ मेरे संबंध से नहीं बल्कि इसके पहले से शुरू हो चुका है। यह महाधिवक्ता द्वारा बताई गई अवधि से बहुत पहले से ही, शुरू हो चुका है। मैं उन सभी घटी घटनाओं की जिम्मेदारी लेता हूं जिनको महाधिवक्ता ने बॉम्बे की घटनाओं, मद्रास की घटनाओं और चौरी चौरा की घटनाओं के संबंध में मेरे कंधों पर डाल दिया है। इन बातों पर गहराई से विचार करते हुए, मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि चौरी चौरा के शैतानी अपराधों या बंबई के उन्मादी आक्रोश से खुद को अलग कर लेना मेरे लिए असंभव है। एडवोकेट जनरल बिल्कुल सही कहते हैं, जब वे कहते हैं कि एक जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में, इस व्यक्ति को इस दुनिया की शिक्षा और अनुभव का उचित भाग प्राप्त हुआ है। मुझे अपने कृत्यों के परिणामों के बारे में, जानना चाहिए। मैं उन परिणामों से अनभिज्ञ नहीं हूं। मुझे पता था कि, मैं आग से खेल रहा हूं। मैंने जोखिम उठाया है और अगर मुझे आज़ाद कर दिया गया, तो भी मैं वही करूँगा, जो पहले कर चुका हूं। मैं हिंसा से बचना चाहता था। अहिंसा मेरी आस्था का पहला पाठ है और मेरे विश्वास का अंतिम लेख भी है। लेकिन मुझे अपना दृष्टिकोण तय करना था। मुझे या तो ऐसी व्यवस्था के सामने झुकना पड़ता, जिसके बारे में मुझे लगता था कि इसने मेरे देश की एक अपूरणीय क्षति की है, या मेरे अपने लोगों के गुस्से के फूटने का जोखिम उठाना पड़ता। मुझे पता है कि मेरे लोग कभी-कभी पागल हो जाते हैं। मुझे इसके लिए गहरा खेद है और इसलिए, मैं यहां एक हल्के दंड के लिए नहीं बल्कि अधिकतम दंड के लिये खुद को प्रस्तुत करने हेतु कठघरे में खड़ा हूँ। मिस्टर जज, आपके लिए अब, बस एक ही रास्ता बचा है, जैसा कि मैं अब अपने बयान में कहने जा रहा हूं, या तो अपने पद से इस्तीफा दे दें या मुझे धारा 124A आईपीसी के अपराध के लिये सबसे गंभीर दंड दें।”

राजद्रोह के मुलजिम गांधी का अदालत में बयान खत्म हुआ और एक सन्नाटा पसर गया। एक गुलाम देश की दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य को यह एक दृढ़ता भरी और निर्भीक चुनौती थी। साम्राज्य, भय पर जीते हैं और भय ही उन्हें जनता से अलग और श्रेष्ठ पायदान पर महिमामंडित कर के प्रतिष्ठित करता है। भय का तिलस्म टूट रहा था। साम्राज्य असहज हो रहा था। इतिहास एक करवट बदलने को आतुर था।
इसके बाद जज ने अभियुक्त गांधी को सजा सुनाने के लिए खुद को तैयार किया । जज ने कहा-

“मि. गांधी, आपने स्वयं पर लगाये इल्ज़ाम को स्वीकार कर के, एक प्रकार से मेरा काम आसान कर दिया है। फिर भी, जो कुछ बचा है, यानी, अदालत का फैसला, जिसे एक न्यायपूर्ण वाक्य की शैली में अदालत में सुनाना। यह आज शायद उतना ही कठिन है जितना कि इस देश में एक न्यायाधीश को इस प्रकार के मुकदमे की सुनवाई करना । कानून व्यक्तियों का सम्मान नहीं करता है। उसके समक्ष सभी एक समान होते हैं। फिर भी, इस तथ्य को नज़रअंदाज करना असंभव होगा कि आप किसी भी ऐसे व्यक्ति से अलग श्रेणी में हैं जिसका मैंने कभी मुकदमा सुना है या कभी सुनने की संभावना है। इस बात को भी नज़रअंदाज करना नामुमकिन होगा कि अपने करोड़ों देशवासियों की नज़र में आप एक महान देशभक्त और एक महान नेता हैं। यहां तक ​​कि वे सभी भी जो आपसे राजनीति में अलग दृष्टिकोण रखते हैं, आपको उच्च आदर्शों और महान और यहां तक ​​कि एक संत के समान जीवन जीने वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं। मुझे आपके साथ सिर्फ एक ही भूमिका में आना है, और वह है इस मुकदमे के ट्रायल जज के रूप में। यह मेरा काम नहीं है कि, मैं किसी अन्य चरित्र में आपको जज करने या आपकी आलोचना करने की बात भी सोचूँ। यह मेरा कर्तव्य और दायित्व है कि मैं आप का आकलन, कानून के अधीन एक व्यक्ति के रूप में करूँ, जिसने अपनी मर्जी से जानबूझकर कर न केवल कानून को तोड़ा है, बल्कि अपने जुर्म को स्वीकार भी किया है। मैं यह नहीं भूल सकता कि आपने लगातार हिंसा के खिलाफ प्रचार किया है और आपने कई मौकों पर, जैसा कि मैं विश्वास करने को तैयार हूं, हिंसा को रोकने के लिए बहुत कुछ किया भी है।”

सेशन जज ब्रूमफील्ड ने आगे बोलना जारी रखा-

“लेकिन आप भले ही अहिंसा के पक्ष में हों और आप की राजनीतिक चेतना पवित्र हो, पर समाज के आम लोगों, जिन्हें आप ने संबोधित कर के यह लेख लिखें हैं, उनकी सहज प्रवित्ति को देखते हुए, आप कैसे यह, विश्वास कर सकते हैं कि हिंसा और अराजकता के अपरिहार्य परिणाम नहीं होंगे ? यह मैं समझ नही पा रहा हूँ। भारत में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो इस बात से सहमत हों कि, आपको आज़ाद कर देना अनुचित है। पर कानून का शासन बनाये रखने के लिये कुछ निर्णय अप्रिय भी हों तो, लेने पड़ जाते हैं। यह मेरा दायित्व है और कर्त्तव्य भी। मैं लगभग बारह साल पहले श्री बाल गंगाधर तिलक के मामले में जो अदालत ने सेडिशन की उसी धारा के अंतर्गत तय किया था और जो सजा उन्हें सुनाई गई थी, यानी, छह साल की साधारण कारावास की सजा, के साथ, आप को मि. तिलक की ही श्रेणी में रख कर देखता हूँ। मुझे उम्मीद है, आप इसे अनुचित भी नहीं मानेंगे, कि आपको मि. तिलक के साथ वर्गीकृत किया जा रहा है, और दो साल का साधारण कारावास, प्रत्येक आरोप पर अलग अलग, कुल जोड़ कर, आप को छह साल के साधारण कारावास, से दंडित करना, मैं अपना कर्तव्य समझता हूं।”

न्यायाधीश ने आगे कहा-
“अगर भारत सरकार के लिए इस अवधि को कम करना और आपको रिहा करना संभव हो जाता है तो, सरकार के इस निर्णय पर शायद ही, मुझसे अधिक खुश होगा।”

सज़ा सुना कर जज पीठ से उठे और अदालत बर्खास्त हो गयी। गांधी ने अपने दोस्तों को अलविदा कहा और जेल के लिये ले जाये गए। अदालत में बैठे उनमें से कई रोए भी, पर गांधी शांत और मुस्कुराते हुए गंतव्य की ओर चले गए। एडवोकेट जनरल स्ट्रैंगमैन ने चुप्पी तोड़ी और कहा,
“तो ट्रायल समाप्त हो गया। मैं यह स्वीकार करता हूं कि मैं स्वयं भी, इस अनोखे माहौल से पूरी तरह अप्रभावित नहीं रहा।”

यह मुकदमा न केवल मुख्य अभियुक्त महात्मा गांधी के व्यक्तित्व को देखते हुए, महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय था, बल्कि मुलजिम, न्यायाधीश और अभियोजन पक्ष के वकील की तरफ से जिस शांति, गरिमा और किसी भी प्रकार की कटुता, संघर्ष या निंदा की पूर्ण अनुपस्थिति से यह ट्रायल सम्पन्न हुआ था, के लिए भी याद किया जाता है। जनता में व्याप्त तीव्र उत्तेजना और गांधी जी के प्रति अगाध निष्ठा के बावजूद, मुक़दमे की सुनवाई के दौरान, कोई अप्रिय घटना नहीं हुई, हालांकि अहमदाबाद के जिला कलेक्टर इस मुकदमे के ट्रायल के दौरान, हो सकने वाले जन असंतोष की संभावना से, बेहद आशंकित भी थे। सज़ा सुनाने के बाद, न कहीं कोई उल्लास था और न ही कोई आक्रोश, बल्कि हर तरफ एक मातमी खामोशी थी। यह ट्रायल लम्बा चला भी नही। मुलजिम द्वारा जुर्म की स्वीकारोक्ति के बाद बहस और जिरह के लिये वकीलों के पास बचता ही क्या है ? एडवोकेट जनरल को, जिन्हें एक खुले राजद्रोह के मामले में सरकार का पक्ष रखना था, कुछ करना ही नहीं पड़ा। यह मुकदमा, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के हलचल भरे इतिहास में शायद, एकमात्र राजनीतिक ट्रायल है जो सभी संबंधित पक्षों को उनके बेहतर और बेहद परिपक्व स्वरूप में दर्शाता है। यह मुकदमा, जज ब्रूमफील्ड द्वारा निपटाए गए पिछले मुकदमों से बिल्कुल अलग था। यह बात जज ने खुद कहा है। राजद्रोह के मुकदमे के ट्रायल में, इस तरह की शांति, निष्पक्षता, संयम और गरिमा अमूमन नहीं मिलती है। जहां न अदालत के अंदर ज़ोरदार बहसें और जिरह चल रहे हों और अदालत के बाहर कानून व्यवस्था की स्थिति बार बार उत्पन्न हो जा रही हो।

सरकार की नज़र में गांधी जी के लेख और उसका भड़काउपन बेहद आपत्तिजनक था। क्योंकि यह लेख एक ऐसे आदमी ने लिखा था, जिसकी हर बात का असर जनता में चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लिम जादू की तरह पड़ता था। महात्मा की प्रेरणा से न केवल हिंदू, बल्कि उसी समय अली बंधुओं द्वारा उकसाए गए मुसलमान भी उत्साह से किसी भी आंदोलन के लिये कमर कसे हुए थे। सरकार के वकील को ऐसे माहौल और ऐसे मामले में मुलजिम के जुर्म को साबित करने के लिये लंबी और तर्कपूर्ण बहस करनी ही पड़ती है। पर गांधी की जुर्म स्वीकार्यता ने जज, अभियोजन और सरकार सबका काम आसान कर दिया। यह मुकदमा, अपने राजनीतिक महत्व के लिए यादगार तो है ही, पर कानूनी इतिहास में भी जज, अभियोजन और मुलजिम के बयानों और भाषणों में व्यक्त विचारों के लिए भी उतना ही यादगार माना जाता है।

ब्रिटिश अखबार के एक अंग्रेज पत्रकार ने इस मुक़दमे पर टिप्पणी करते हुए, कहा है कि-

” गांधी एक संत और बेहतरीन इंसान तो हैं ही, साथ ही उनमे राजनीतिक चातुर्य भी कम नहीं है। जुर्म स्वीकार कर के उन्होंने न केवल अपने आचरण की शुचिता का सुबूत भी दे दिया, बल्कि नैतिकता के मापदंड पर खुद को ब्रिटिश साम्राज्य से भी ऊपर खड़ा कर दिया।”

अखबार आगे लिखता है-

” इस मुकदमे के निस्तारण में जिस प्रकार से शांति और उदार व्यवहार, दिखा है उसका श्रेय, जज और एडवोकेट जनरल, उन दोनों अंग्रेजों को जाता है, जो अपने साम्राज्य को अन्यायी और बर्बर कहे जाने के बाद भी न तो उत्तेजित हुए और न ही अदालती मर्यादा का कोई क्षरण होने दिया। सन 1909 में सुने गए तिलक के मुकदमे से इस मुकदमे की तुलना करना भी अनावश्यक था, क्योंकि तिलक ने अदालत में लंबी बहस की और मुकदमा ऊंची अदालत तक भी अपील में गया था। उक्त मुक़दमे की रोज रोज छपने वाली कार्यवाही ने बम्बई और देश का वातावरण तिलक के पक्ष में बनाना शुरू कर दिया था। तिलक का उनके अखबार केसरी में लिखा गया लेख भी उतना आक्रामक नही था, जितना गांधी द्वारा यंग इंडिया में लिखे गए यह लेख थे। तिलक का स्वभाव उग्र था, और उन्हें अंग्रेज फादर ऑफ द इंडियन अनरेस्ट कहते भी थे, इसके विपरीत गांधी का स्वभाव शांत पर बेहद दृढ़ संकल्प से भरा है। इस मुक़दमे की सुनवाई के अवसर पर दिए गए सभी तीन भाषण, यानी, महाधिवक्ता, न्यायाधीश और स्वयं गांधी के भाषण, उनके संयम, परस्पर सम्मान और मुक्त अभिव्यक्ति के प्रतीक हैं।”

 

लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं।