डॉ.अमरनाथ
दिसंबर 1920 में ‘सरस्वती’ से विदा लेते समय ‘संपादक की विदाई’ शीर्षक अपने संपादकीय में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “मैं सेवा का अर्थ अच्छी तरह जानता हूँ. अतएव मैं कह सकता हूँ कि मैंने सेवा भाव से प्रेरित होकर ‘सरस्वती’ का संपादन नहीं किया. हिन्दी की सेवा मैंने तो नहीं, चिन्तामणि घोष ने अवश्य की है. जन्मभूमि उनकी बंगदेश है और मातृभाषा बांग्ला. यदि उनमें उदारता की मात्रा इतनी अधिक न होती तो ‘सरस्वती’ का विसर्जन कभी का हो गया होता.” (उद्धृत, ‘चिन्तामणि घोष और सरस्वती’ शीर्षक कृपाशंकर चौबे का लेख, हिन्दी समय.काम)
यह बाबू चिन्तामणि घोष के व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि उनके आग्रह पर द्विवेदी जी ने रेलवे की अपनी पौने दो सौ रूपए की सरकारी नौकरी छोड़कर इकतीस रूपए मासिक के वेतन पर ‘सरस्वती’ के संपादन का दायित्व स्वीकार किया.
हावड़ा जिले (प. बंगाल) के ‘बाली’ नामक गाँव में जन्मे बाबू चिन्तामणि घोष (10.08.1854- 11.08.1928 ) की कर्म स्थली प्रयागराज थी. उनके पिता जीविका की तलाश में प्रयागराज गए थे जहाँ वे अस्वस्थ हो गए और वहीं उनका निधन हो गया. उस समय चिन्तामणि घोष की उम्र मात्र 10 वर्ष थी. इस छोटी सी उम्र में परिवार का पूरा बोझ उनके सिर पर आ गया. जब वे मात्र 13 वर्ष के थे तभी उन्होंने जीविकोपार्जन के लिए 10 रूपए मासिक पर अंग्रेजी समाचार पत्र ‘पॉयनियर’ के ऑफिस में क्लर्क की नौकरी कर ली. किन्तु, चिन्तामणि घोष के भीतर ज्ञान के प्रति अद्भुत ललक थी. वहाँ रहते हुए उन्हें जब भी अवसर मिलता, प्रेस के कामों को जानने का प्रयास करते. हाँ, अपना काम भी वे पूरी निष्ठा से करते. सात साल तक ‘पायोनियर’ में काम करने के बाद वे अलग हुए. इसके बाद वे मेटिऑरोलॉजिकल कार्यालय में हेड क्लर्क बने. किन्तु उनके मन में अपना एक प्रेस खोलने की प्रबल इच्छा थी. सौभाग्य से उन्होंने ‘पायोनियर’ में एक क्राउन हैंड प्रेस के बेचे जाने का विज्ञापन देखा और उसे उन्होंने खरीद लिया. इस तरह ‘इंडियन प्रेस’ की स्थापना एवं उसका पंजीकरण 4 जून 1884 को हुआ था और प्रेस के लिए पहली मशीन पायोनियर प्रेस से खरीदी गई थी.
इसके बाद चिन्तामणि घोष दिनभर अपने आफिस में काम करते और रात में कंपोज करने का अभ्यास करते. कुछ समय बाद वे स्वयं कुछ छापने का भी काम करने लगे. वे स्वयं ही कंपोज करते, प्रूफ पढ़ते और छापते. पैंतीस वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और अपना पूरा समय प्रेस को देने लगे. कुछ ही दिनों बाद इंडियन प्रेस की गणना प्रतिष्ठित प्रेसों में होने लगी. उनकी इस सफलता का कारण था मुद्रण -कला के प्रति उनका अनुराग. उन्हें सदैव यह चिन्ता बनी रहती थी कि कोई यह न कहे कि इंडियन प्रेस से किसी निकृष्ट पुस्तक का प्रकाशन हुआ है.
बाबू चिन्तामणि घोष से द्विवेदी जी का परिचय भी विचित्र प्रकार से हुआ. इंडियन प्रेस की एक पुस्तक स्कूलों के लिये स्वीकृत हो गई थी. बाबू चिन्तामणि घोष को यह मालूम नहीं था कि उसमें अनेक अशुद्धियाँ भी हैं. किसी प्रकार वह पुस्तक द्विवेदी जी की निगाह में आ गई और उन्होंने उसकी कड़ी आलोचना लिखकर शिक्षा विभाग को भेज दी तथा उसकी एक प्रतिलिपि बाबू चिन्तामणि घोष को भी भेज दी. द्विवेदी जी को लगता था कि इस समीक्षा को पढ़कर चिन्तामणि घोष उनसे नाराज हो जाएंगे किन्तु हुआ उल्टा. आलोचना पढ़कर चिन्तामणि घोष पर द्विवेदी जी की तीक्ष्ण बुद्धि, निर्भीकता और साहित्यिक पैठ का बहुत असर हुआ और उन्होंने द्विवेदी जी से ‘सरस्वती’ के संपादन का दायित्व सँभालने का आग्रह किया. द्विवेदी जी उनके आग्रह को अस्वीकार न कर सके. फलस्वरूप जनवरी 1903 से ‘सरस्वती’ का संपादन द्विवेदी जी करने लगे. इसके बाद द्विवेदी जी 1920 तक ( जिसमें केवल दो वर्ष छोड़कर जिसमे रुग्णता के कारण वे अवकाश पर थे) अनवरत ‘सरस्वती’ का संपादन करते रहे. उनके संपादन में धीरे- धीरे ‘सरस्वती’ हिन्दी जगत की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित हो गई. द्विवेदी जी के मुक्त होने के बाद भी ‘सरस्वती’ का प्रकाशन बंद नहीं हुआ. ‘सरस्वती’ 1975 तक निकलती रही किन्तु उसमें वह पहले वाला ताप नहीं था.
दरअसल, चिन्तामणि घोष ने 1899 में नागरी प्रचारिणी सभा के सामने प्रस्ताव रखा कि सभा एक सचित्र मासिक पत्रिका के संपादन का दायित्व ले जिसे वे स्वयं प्रकाशित करने के लिए तैयार हैं. इस संबंध में बाबू श्यामसुंदर दास ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “सन् 1899 में इंडियन प्रेस के स्वामी बाबू चिन्तामणि घोष ने नागरी प्रचारिणी सभा से प्रस्ताव किया कि सभा एक सचित्र मासिक पत्रिका का संपादन का भार ले और इसे वे प्रकाशित करें. सभा ने इसका अनुमोदन किया पर संपादन का भार लेने में अपनी असमर्थता प्रकट की. अंत में यह निश्चय हुआ कि सभा एक संपादक मंडल बना दे. सभा ने इसे स्वीकार किया और बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिक प्रसाद, बाबू जगन्नाथ दास, पंडित किशोरीलाल गोस्वामी को तथा मुझे इस काम के लिए चुना.”
इस तरह जनवरी 1900 से ‘सरस्वती’ प्रकाशित होने लगी. किन्तु संपादक मंडल कहने के लिए ही था. ज्यादातर काम बाबू श्यामसुंदर दास ही करते थे. इसके प्रवेशांक के मुख पृष्ठ पर पाँच चित्र थे- सबसे ऊपर वीणावादिनी सरस्वती का चित्र था. ऊपर बाईं ओर सूरदास और दाईं ओर तुलसीदास तथा नीचे बाईं ओर राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द और बाबू हरिश्चंद्र के चित्र थे. पत्रिका के नाम के नीचे लिखा रहता था “काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से प्रतिष्ठित”. पत्रिका के प्रकाशक बाबू चिन्तामणि घोष ने पत्रिका का नीति वक्तव्य इस तरह घोषित किया, “परम कारुणिक सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की असीम अनुकम्पा ही से ऐसा अनुपम अवसर प्राप्त हुआ है कि आज हम लोग हिन्दी भाषा के रसिक जनों की सेवा में नए उत्साह से उत्साहित हो एक नवीन उपहार लेकर उपस्थित हुए हैं जिसका नाम ‘सरस्वती’ है. इसके नवजीवन धारण करने का केवल यही मुख्य उद्देश्य है कि हिन्दी रसिकों के मनोरंजन के साथ ही भाषा के सरस्वती भंडार की अंगपुष्टि, वृद्धि और यथार्थ पूर्ति हो तथा भाषा सुलेखकों की ललित लेखनी उत्साहित और उत्तेजित होकर विविध भावभरित ग्रंथराजि को प्रसव करे.” ( भारतीय पत्रकारिता : नींव के पत्थर, डॉ. मंगला अनुजा, म.प्र.हिन्दी ग्रंथ अकादमी, संस्करण 1996, पृष्ठ-215-216)
एक वर्ष बीतते-बीतते यह अनुभव होने लगा कि संपादक मंडल द्वारा ‘सरस्वती’ का संपादन सुचारु ढंग से नहीं हो सकता. फलस्वरूप जनवरी 1901 से बाबू श्यामसुंदर दास ‘सरस्वती’ के संपादक बने. 1902 के अंत तक उन्होंने भी ‘सरस्वती’ के संपादन में अपनी असमर्थता जताई और उन्होंने इस दायित्व के लिए चिन्तामणि घोष से महावीरप्रसाद द्विवेदी का नाम सुझाया. चिन्तामणि घोष तो आचार्य द्विवेदी की प्रतिभा से परिचित थे ही. उन्होंने आचार्य द्विवेदी को आमंत्रित कर लिया. इस प्रकरण का उल्लेख करते हुए ‘सरस्वती’ के प्रतिष्ठित लेखक पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी ने लिखा है, “पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इंडियन प्रेस द्वारा प्रकाशित एक पाठ्य पुस्तक की बड़ी तीव्र आलोचना की थी. उनकी आलोचना में तीव्रता रहने पर भी यथार्थता थी. उनकी इस आलोचना से प्रसन्न होकर बाबू चिन्तामणि घोष ने उन्हें पाठ्य- पुस्तक निर्माण का भार सौंपा. फिर उन्होंने उनको ‘सरस्वती’ का संपादन- भार भी सौंपा. द्विवेदी जी ने अपने एक लेख में लिखा है कि जब उन्हें सरस्वती का संपादन कार्य सौंपा गया, तब कुछ लोगों ने बड़ा कोलाहल मचाया. उन्होंने घोष बाबू से कहा – यह मनुष्य बड़ा घमंडी, बड़ा कलहप्रिय और बड़ा तुनकमिजाज है. इससे तुम्हारी नहीं पटेगी. परंतु बाबू चिन्तामणि घोष को गुण-गौरव की सच्ची परख थी. …….. श्रेष्ठ साहित्य के प्रकाशन में वे खर्च करने में कभी संकोच नहीं करते थे. उन्होंने ही सबसे पहले ‘रामचरितमानस’ का शुद्ध और प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित किया. हिन्दी साहित्य के इतिहास में वह युग अनुवादों का युग कहा जा सकता है. इंडियन प्रेस ने बंगभाषा के श्रेष्ठ ग्रंथों के अनुवाद प्रकाशित किए. ……… उन्हीं अनुवाद-ग्रंथों के कारण जनता में सुरुचि का प्रसार हुआ, भाषा भी परिष्कृत हुई और लोक-शिक्षा की भी वृद्धि हुई.” ( बख्शी ग्रंथावली, खंड-6, पृष्ठ-76)
बाबू चिन्तामणि घोष ने ‘सरस्वती’ के संपादन कार्य में आचार्य द्विवेदी को पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी थी. द्विवेदी जी ने भी अपने इस उत्तरदायित्व का पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ सदुपयोग किया. आचार्य द्विवेदी ने 1904 में नागरी प्रचारिणी पत्रिका की खोज संबंधी रिपोर्ट की तीखी आलोचना की थी. इसकी प्रतिक्रिया में सभा ने ‘सरस्वती’ के प्रकाशक चिन्तामणि घोष को लिखा कि पत्रिका से सभा का अनुमोदन हटा लिया जाय. चिन्तामणि घोष संपादक की स्वतंत्रता के इतने हिमायती थे कि उन्होंने इस संबंध में द्विवेदी जी को कुछ कहने से ज्यादा बेहतर समझा सभा से नाता तोड़ लेना. 1905 में नागरी प्रचारिणी सभा के 12वें वार्षिक विवरण में पृष्ठ 38 पर इसका इस तरह उल्लेख किया गया है, “मासिक पत्रों में अब सबसे श्रेष्ठ सरस्वती है. यद्यपि कई कारणों से अब इस पत्रिका के साथ इस सभा का कोई संबंध नहीं है. सभा को दुख है कि सरस्वती के प्रकाशक ने उसमें अपवादपूर्ण लेखों को रोकना उचित न जानकर नागरी प्रचारिणी सभा से अपना संबंध तोड़ना उचित समझा.”
आरंभ में ‘सरस्वती’ में केवल 36 पृष्ठ होते थे और वार्षिक मूल्य 3 रूपया था. बाद में पृष्ठ संख्या 40 कर दी गई किन्तु मूल्य वही रह गया. पत्रिका का आकार धीरे- धीरे बढ़ता गया और 1916 में पत्रिका की पृष्ठ संख्या 72 तक हो गई. इसका वार्षिक मूल्य भी 4 रूपया कर दिया गया. इससे द्विवेदी जी का कार्यभार भी बढ़ता गया और उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा. अंत मे 1920 में द्विवेदी जी का स्वास्थ्य इतना गिर गया कि उन्होंने संपादन के दायित्व से ही मुक्त होने की इच्छा व्यक्त की. चिन्तामणि बाबू भी द्विवेदी जी के स्वास्थ्य को लेकर बहुत चिन्तित थे. इसलिए उन्होंने द्विवेदी जी के आग्रह को स्वीकार कर लिया. चिन्तामणि घोष द्विवेदी जी के कार्य से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में एक अभूतपूर्व कार्य किया. उन्होंने द्विवेदी जी की पेंशन निश्चित कर दी जो उन्हें जीवन भर मिलती रही.
चिन्तामणि घोष आरंभ में केवल मुद्रक थे. प्रकाशक होने की उनकी कोई अभिलाषा भी नहीं थी, किन्तु एक घटना ने उन्हें प्रकाशक होने को बाध्य कर दिया. दरअसल उस समय तक स्कूलों में जो भी पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं, वे सभी प्राय: गवर्नमेंट प्रेसों में छपती थीं. उनका संशोधन -परिमार्जन बहुत कम होता था. लोग इनसे असंतुष्ट तो थे किन्तु सरकारी पुस्तकों की होड़ में नई पुस्तकें तैयार करने का साहस लोगों को नहीं होता था. उन दिनों प्रयागराज के दो हिन्दी प्रेमी शिक्षाविदों दीनदयाल तिवारी और लाला सीताराम उर्फ भूप कवि ने मिलकर एक पाठ्य पुस्तक माला तैयार की. दोनों गवर्नेंट स्कूलों में अध्यापक थे और हिन्दी के प्रति बहुत अनुरागी भी. पुस्तकें तो तैयार हो गईं किन्तु समस्या उनके प्रकाशन की थी. फलस्वरूप दोनो चिन्तामणि घोष के पास गए. घोष बाबू ने कहा कि वे प्रकाशक नहीं हैं, वे केवल मुद्रक हैं. किन्तु लाला जी और तिवारी जी ने उन्हें अपने कार्य के महत्व को समझाया और उनसे प्रकाशन के लिए भी आग्रह किया. चिन्तामणि घोष ने बहुत सोच विचार करने के बाद प्रकाशक बनने का उनका आग्रह स्वीकार कर लिया. इन पाठ्य-पुस्तकों का नाम ‘हिन्दी शिक्षावली’ रखा गया. हर दृष्टि से पुरानी पाठ्य पुस्तकों की तुलना में ये कई गुना अच्छी थीं. अतएव शिक्षा विभाग ने भी इन्हें स्वीकार कर लिया. ये पुस्तकें खूब चलीं. इसके बाद चिन्तामणि घोष मुद्रक से प्रकाशक बन गए.
नागरी लिपि तथा हिन्दी का प्रचार-प्रसार ‘सरस्वती’ का आरंभ से ही एक प्रमुख उद्देश्य रहा. राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मण सिंह और भारतेन्दु के जीवन -चरित्रों को प्रकाशित करके प्रकारान्तर से ‘सरस्वती’ ने हिन्दी आन्दोलन की ओर पाठको का ध्यान आकृष्ट किया. जनवरी में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन आरंभ हुआ. संयोग से अप्रैल में उत्तर प्रदेश के छोटे लाट सर एंथनी मैक्डॉनेल ने नागरी लिपि को कचहरियों में स्थान देने की घोषणा की. इस पर ‘सरस्वती’ ने जो लेख छापा उसका एक अंश इस तरह है-
“प्यारे हिन्दी प्रेमियो! सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की पूर्ण कृपा से हिन्दी हितैषी भारतवासी मात्र के लिए यह मास बड़े ही सौभाग्य का है. क्योंकि जिस अमृत फल के पाने की उत्कट कामना हमारे देश के लोग 63 वर्ष से करते चले आते रहे और जिसके लिए कोई भी उद्योग उठा नहीं रक्खा गया था, उस अक्षय फल को पाने के आज हम लोग अधिकारी और योग्य समझे गए हैं. धन्य परमेश्वर, धन्य नागरी, धन्य पश्चिमोत्तर और अवध की न्यायपरायण गवर्नमेंट ! धन्य नागरी प्रचारिणी सभा, और धन्य नागरी प्रचार के सहायक वृंद ! …..
किन्तु हा ! राजा शिवप्रसाद और भारतेन्दु हरिश्चंद्र ! आज तुम्हारी अविनाशी आत्माएं कहाँ हैं ? देखो तुम्हारे अनुगामियों ने बराबर तुम्हारे ही निर्धारित पथ पर चलकर उसमें कैसी सफलता प्राप्त की है कि जिसके लिए तुमने प्राणांत तक तन, मन और धन से कोई उद्योग उठा न रक्खा था. हमको पूर्ण आशा है कि आज तुम्हारी लोकांतरित अविनाशी आत्मा भी इस (नागरी) की सफलता के समाचार को सुन अतिशय गद्गद होकर संतुष्ट हो गई होगी. ….
प्यारे हिन्दी रसिकों ! दो वर्षों से तुम्हारे आकुल नेत्र इस बात की बाट जोह रहे थे कि कब पश्चिमोत्तर और अवध प्रदेश में हिन्दी के प्रचार की आज्ञा होती है. आज से चिरवाँछित आज्ञा को देखकर तुम्हारे उत्कंठित नेत्र आनंदांबु से पूरित हो जाएंगे. आज वह आज्ञा हमारे सम्मुख उपस्थित है, देखिए ! पर इस आज्ञा के पाने ही मात्र से संतुष्ट होकर बैठ रहने से हमारा काम नहीं चलेगा. क्योंकि अबतक तो हमें कार्य करने का अधिकार ही नहीं मिला था. किन्तु अब वह आज्ञा मिल गई है, इसलिए अब हमलोगों को उचित है कि यह कर दिखावें कि वास्तव में हमलोग अपनी भाषा और अपने देश के कहाँ तक प्रेमी होने के अधिकारी हैं. और इसके लिए हम कहाँ तक अपने कर्तव्य के करने में कृतकार्य और सफल मनोरथ हो सकते हैं.
इस स्थान पर नागरी हितैषियों और इस नागरी प्रचार के महत् उद्योग में ब्रती महानुभावों में से पं. मदन मोहन मालवीय की कृतज्ञता स्वीकार के बिना हम नहीं रह सकते.
उपसंहार में हम निम्नलिखित महाशयों को भी असंख्य धन्यवाद देते हैं जिन्होंने नागरी की सफलता के उद्योग करने में कोई बात उठा नहीं रक्खी थी. उनमें प्रथम काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सुयोग्य मंत्री बाबू श्यामसुंदर दास बीए हैं, दूसरे हिन्दी समाज में चिरपरिचित बाबू राधाकृष्ण दास हैं और तीसरे विद्याविनोद ( लखनऊ) के संपादक बाबू कृष्णबलदेव वर्मा हैं. इन्होंने नागरी मेमोरियल भेजने में नगर- नगर में घूम- घूम कर बड़ी सहायता की थी. इससे यह न समझना चाहिए कि और किसी ने इसमें उद्योग नहीं किया. इस उद्योग में इतने सहायक हुए हैं कि सबकी नामावली देने से एक वृहद् ग्रंथ बन जाए. इस भय से और महानुभावों की नामावली नहीं प्रकाशित करते. समाचार पत्रों में ‘भारतजीवन’ ( काशी), ‘हिन्दोस्थान’ ( कालाकांकर) और ‘श्री बेंकटेश्वर समाचार’ ( बंबई) भी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं. नागरी के हितैषियों को इन महानुभावों का हृदय से कृतज्ञ होना चाहिए.”
‘सरस्वती’ के पुराने अंकों को पलटने से पिछली सदी के आरंभिक तीन दशकों के हिन्दी संसार की गतिविधियों का चित्र मानस पटल पर उपस्थित हो जाता है. खड़ी बोली की कविता का पूरा विकास ‘सरस्वती’ के पुराने अंकों में देखा जा सकता है. मैथिलीशरण गुप्त ‘सरस्वती’ की ही देन हैं. सुमित्रानंदन पंत ने छायावाद को ‘सरस्वती’ के माध्यम से ही हिन्दी जगत तक पहुँचाया. ‘सरस्वती’ ने ही जयशंकर प्रसाद, निराला और महादेवी वर्मा की कविताओं को हिन्दी जगत तक पहुँचाया. प्रसाद की ‘कामायनी’ के कुछ सर्ग पहले ‘सरस्वती’ में छप चुके थे. इसी तरह बच्चन, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, नरेन्द्र शर्मा, प्रभाकर माचवे, मोहनलाल महतो, भगवतीचरण वर्मा आदि सभी बड़े कवियों की कविताएं ‘सरस्वती’ में छपती थीं. इसी तरह किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इंदुमती’, चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’, रामचंद्र शुक्ल का ‘ग्यारह वर्ष का समय’, बालकृष्ण शर्मा की ‘संतू’ आदि कहानियाँ सबसे पहले ‘सरस्वती’ में ही छपीं थीं.
रामानंद चटर्जी द्वारा संपादित बाँग्ला मासिक पत्रिका ‘प्रवासी’ तथा अंग्रेजी मासिक ‘मॉडर्न रिव्यू’ भी चिन्तामणि घोष के इंडियन प्रेस से ही प्रकाशित होती थी. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ‘प्रवासी’ के नियमित पाठक थे. ‘प्रवासी’ के माध्यम से उन्होंने बाबू चिन्तामणि घोष से संपर्क किया और इसके बाद उनकी भी पुस्तकें इंडियन प्रेस से छपने लगीं. रवीन्द्रनाथ टैगोर की लगभग एक सौ पुस्तकें इंडियन प्रेस से छपीं थीं जिनमें ‘गीतांजलि’ भी शामिल है. विश्वभारती की स्थापना के बाद जुलाई 1923 में जब विश्वभारती में प्रकाशन विभाग खुला तो रवीन्द्रनाथ टैगोर के आग्रह पर चिन्तामणि घोष ने इंडियन प्रेस से छपी सभी पुस्तकों की कॉपी राइट विश्वभारती को सौंप दी ताकि उसका लाभ विश्वभारती को मिल सके.
इंडियन प्रेस से ही बालोपयोगी मासिक पत्र ‘बालसखा’ का भी प्रकाशन होता था जिसने लेखकों और साहित्य-प्रेमियों की एक नई पीढ़ी तैयार करने में महती भूमिका निभाई. वहीं से सचित्र समाचार साप्ताहिक ‘देशदूत’ का भी प्रकाशन हुआ था जिसके संपादक थे ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’. इसके अलावा देवीप्रसाद चतुर्वेदी ‘मस्त’ के संपादन में कहानी की पत्रिका ‘मंजरी’ का भी प्रकाशन इंडियन प्रेस से ही हुआ.
इस तरह ‘देशदूत’, ‘हल’, ‘सरस्वती’, ‘बालसखा’, ‘अभ्युदय’, ‘मंजरी’, ‘विज्ञान जग’ जैसी पत्रिकाएं इसी इंडियन प्रेस से छपती थीं. इसके अलावा विद्यार्थियों के लिए पाठ्य-पुस्तकें, रामायण, महाभारत, विद्यासागर की जीवनी आदि कृतियों का प्रकाशन इसी इंडियन प्रेस से हुआ था. अयोध्यानरेश ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रस कुसुमाकर’ इंडियन प्रेस में ही छपवाया था.
यह भी उल्लेखनीय है कि जब भारत में सबसे पहले 1919 में हिन्दी में एम.ए. की पढ़ाई कलकत्ता विश्वविद्यालय में आरंभ हुई तो विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी के अनुरोध पर चिन्तामणि घोष ने उनके लिए पाठ्यपुस्तकें तैयार कराई थीँ.
अमूमन यही सुनने में आता है कि प्रकाशक ही लेखकों को ठगते हैं किन्तु इंडियन प्रेस में काम करने वाले प्रतिष्ठित लेखक बदरीनाथ भट्ट ने लिखा है, “कुछ प्रकाशकों का भी यह अनुभव है कि हिन्दी में अभी ऐसे लेखक हैं, जो उन्हें ठगते हैं. बड़े बाबू अर्थात स्वर्गीय बाबू चिन्तामणि घोष को लोगों ने बहुत ठगा. दो-एक सज्जन तो उनसे रुपया ले गए, परंतु फिर न तो उन्हें पुस्तकें ही लिखकर दीं और न रुपया ही चुकाने का नाम लिया, क्योंकि वे जानते थे कि बड़े बाबू अदालत में कभी नहीं जाएंगे.” ( उद्धृत, बख्शी ग्रंथावली, खंड-6, पृष्ठ-71)
‘सरस्वती’ का हीरक जयन्ती उत्सव 1963 में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की अध्यक्षता में प्रयाग में मनाया गया. इस उपलक्ष्य में प्रकाशित ‘सरस्वती’ के ‘हीरक जयन्ती ग्रंथ’ की प्रथम प्रति का लोकार्पण तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के हाथों राष्ट्रपति भवन में संपन्न हुआ. इसी अवसर पर इंडियन प्रेस के भवन के सामने आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की मूर्ति की स्थापना राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने की.
1928 में बाबू चिन्तामणि घोष का निधन हो गया. उन्हें हिन्दी का कैक्सटन ( William Caxton) कहा जाता था. निधन के पूर्व प्रेस का सारा काम अपने द्वितीय पुत्र हरिकेशव घोष को सौंपते हुए उन्होंने कहा था, “यह केवल एक प्रेस नही है अपितु देश के लिए स्थाई योगदान है.” हरिकेशव घोष भी एक सच्चे उत्तराधिकारी साबित हुए. 2013 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के हाथों प्रयागराज में चिन्तामणि घोष की एक प्रतिमा का अनावरण किया गया है.
आज हिन्दी समाज ने अपने ‘घोष बाबू’ को लगभग विस्मृत कर दिया है. जन्मदिन के अवसर पर हम इस महान हिन्दी- हितैषी के रचनात्मक कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं.
लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर हैं। यह लेख 10 अगस्त 2022 को जनसंदेश टाइम्स में छपा। साभार प्रकाशित।
* शीर्षक में दर्ज कैक्सटन से मुराद विलियम कैक्सटन (1422-1491) जिन्होंने 1476 में लंदन में पहला प्रिंटिग प्रेस स्थापित किया। छपी हुई अंग्रेज़ी किताबों का कारोबार करने वाले वे पहले व्यक्ति थे।