(अमरीकी अध्येता व शांति के सिपाही जेम्स डब्ल्यू.डगलस की किताब का नाम है ‘ गांधी एंड द अनस्पीकेबल : हिज फाइनल एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ’। यह महात्मा गांधी की हत्या की कहानी भर नहीं बताती है, उससे जुड़े तमाम सांस्कृतिक, मानवीय जरूरी सवाल खड़े करती है। हम सभी गांधीजन डगलस के आभारी हैं कि उन्होंने यह संपूर्ण परिदृश्य हमारे लिए खोला और हमें ही हमारी दशा व दिशा का फिर से भान कराया।)
60 के दशक में एक ख्रिस्ती संन्यासी लेखक हुआ था थॉमस मेर्टन । उसने जीवन को और उसके रहस्यों को जानने की बहुत कोशिश की; और फिर वह इस नतीजे पर पहुंचा कि हमारे पास सच्चाइयों का एक बहुत बड़ा जखीरा ऐसा है जिसे हम सब जानते तो हैं लेकिन उसकी चर्चा नहीं करते – अनकहा सच!! मेर्टन कहते हैं: यह वह सच है जिसे झेलने का सामर्थ्य हममें नहीं है – यह हमारे जीवन की, हमारी दुनिया की वह कड़वी सच्च्चाई है जिससे सभी मुंह चुराते हैं । यह डर या मुंह चुराना हमारे भीतर एक अंधकार का या शून्य का निर्माण करता है जिसकी गुमनामी में दूसरी सच्चाइयों का बार–बार कत्ल होता रहता है । यही कारण है कि हमारी दुनिया भीतर–ही–भीतर इतनी घायल व रक्तरंजित है ।
यह अनकहा या अकथनीय क्या है ? मेर्टन कहते हैं: एक गहरा सन्नाटा रचा गया है जो सब कुछ लील लेता है । सरकारी घोषणा हो कि कानूनी फैसला कि कोई औपचारिक बयान कि ऐतिहासिक साक्ष्य, सब–के–सब खोखले जान पड़ते हैं क्योंकि सभी इस सन्नाटे में खो जाते हैं । यही सन्नाटा है कि जो हमें उस सूक्ष्म और शुद्ध सच्चाई का भान कराता है, जो सामने है पर अनकहा या अकथनीय है । ऐसा क्यों है ? उनका जवाब है : “क्योंकि हम उस सच को बोलने के बाद के परिणाम से डरते हैं ।” तो फिर यह जरूरी ही क्यों है कि हम उस अनकहे का सामना करें ? वे फिर जवाब देते हैं : “क्योंकि उस अनकहे से पैदा हुए अंधकार के गर्भ में अनेक अमंगल तत्व पनपते हैं । असत्य की शक्तियां समाज के सच न बोल पाने, सच का सामना न कर सकने की कमजोरी का फायदा उठाती हैं और समाज को कायर, छल–कपट और धोखे से भरी भीड़ में बदल देती हैं । यह समाज का ऐसा नुकसान है, पतन है कि जिसका शब्दों में वर्णन असंभव है ।” यह कायर अनकहा सच वहां विएतनाम में, वहां नाजियों के जुल्म में, कभी सारे संसार में जिसने जहर घोल रखा था उस शीतयुद्ध में या आज जो सबकी गरदन पर सवार है उस आतंकवाद में – हर कहीं जड़ जमाए बैठा है । यह हमें चुनौती देता है कि कह सको तो यह सच दुनिया से कहो।
अमरीकी लेखक व इतिहास के शोधकर्ता जेम्स डब्ल्यू. डगलस के साथ भी ऐसा ही हुआ: “तब मैं अपने देश अमरीका में हुई चार बेहद सर्द, संगीन लेकिन बेहद हैरान करने वाली हत्याओं के कारणों की तलाश में लगा था । ये हत्याएं थीं जॉन एफ. केनेडी, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, माल्कम एक्स तथा रॉबर्ट एफ. केनेडी की । इन चारों को 60 के दशक में, कोई साढ़े चार साल के अंतराल में गोली मार दी गई थी । अगर मैं कहूं कि इन हत्याओं ने अमरीका के राजनीतिक और आध्यात्मिक परिदृश्य को हमेशा–हमेशा के लिए बदल दिया और लोकतंत्र के नाम पर हमारे हाथ बचा रह गया एक छूंछा, दिखावटी तमाशा भर, तो गलत नहीं होगा । इन चारों की योजनाबद्ध हत्या के पीछे की कड़ियां जब मैं जोड़ने लगा था तब एक हैरतअंगेज तथ्य ने मेरा ध्यान खींच लिया : इन चारों हत्याओं के पीछे कैसी दहला देने वाली समानता थी! और समानता दोनों में थी – जिनकी हत्या हुई उनमें भी और जो हत्यारे थे उनमें भी ।”
वह 60 का दशक था । संसार दो महाशक्तियों के बीच के शीतयुद्ध में फंसा कराह रहा था । अमरीका और रूस के बीच का तनाव उस बिंदु पर जा पहुंचा था कि जहां से उसे विस्फोट ही करना था । बिगड़ते-बिगड़ते अक्तूबर1962 में जा कर बात ऐसी बिगड़ी कि दोनों एकदम अामने-सामने पहुंच गये। रूस ने गुपचुप साम्यवादी क्यूबा में अपनी घातक मिसाइलें इस तरह तैनात कर दी कि अमरीका उनकी सीधी जद में आता था । यह अमरीका को सीधी चुनौती थी – उसकी नाक का भी सवाल था और सुरक्षा का भी । दोनों महाशक्तियां थीं और दोनों परमाणु हथियारों से लैस भी थीं । संसार अणुयुद्ध के कगार पर पहुंच गया । बस होने को ही था एक ऐसा अणु धमाका जो हिरोशिमा में हुए धमाके से कई–कई गुना ज्यादा बड़ा होता ।
अमरीका में पेंटागन के अधिकारियों की घड़ी टिक–टिक करती बढ़ती जा रही थी– संसार का विनाश करीब–से–करीब आता जा रहा था । आधी रात का सन्नाटा था । अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी गहरे दबाव में थे और दबाव के उस अंधेरे में कुछ टटोल रहे थे… कि तभी संयुक्त अमरीकी सैन्य कमान के प्रमुख अधिकारी ने उन्हें सीधी और सुनिश्चित सलाह दी: “श्रीमान्, हमें अभी–के–अभी रूसी मिसाइलों पर हमला कर देना चाहिए। हमारा अचानक हमला उन्हें संभलने का कोई मौका नहीं देगा!” राष्ट्रपति का यह एक आदेश संसार के खात्मे का रास्ता खोल देता । हालात ऐसे थे कि राष्ट्रपति केनेडी उस दबाव के आगे झुक ही सकते थे ….. लेकिन वे झुके नहीं । उन्होंने अपने सैन्य अधिकारी को अनसुना किया, उस दारुण दबाव से बाहर अाए और उस शीतयुद्ध के अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी रूसी प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चेव से सीधी बात की: “ प्रधानमंत्री महोदय, यह जरूरी है कि अपनी सफलता के उन्माद से बाहर आकर, हम दोनों अपनी निर्णायक अंतिम विफलता से बचें और संसार को अपरिमित विनाश से बचा लें!” केनेडी ने कहा, ख्रुश्चेव ने सुना… और सारा संसार अंतिम विनाश के कगार से वापस लौट आया । …
राष्ट्रपति का यह फैसला कई लोगों को बेहद नागवार गुजरा । सरासर राष्ट्रद्रोह ! …यही फैसला था जो राष्ट्रपति केनेडी को अमरीका के डलास शहर की उन अभागी सड़कों पर ले गया, जहां गोलियों से उन्हें छलनी कर दिया गया था ।
“उस घटना के चार दशक बाद जब मैं केनेडी और ख्रुश्चेव के बीच हुए संवादों का अध्ययन कर रहा था, तब, सच कहता हूं कि मैं ‘अंतिम क्षण के विवेक को’ समझ पाया जिसे जीसस ने अपने खरे शब्दों में कहा था : ‘अपने शत्रु को प्यार करो!’… कितना बड़ा सत्य था यह !! इस छोटे–से वाक्य के अपार नैतिक बल ने उस दिन दुनिया को बचा लिया और युद्ध के दो सबसे बड़े पैरोकार शांति के दूत बन गए । भय के चरम में कहें कि आशा के चरम में, हुआ तो यह कि केनेडी और ख्रुश्चेव ने वह किया जो संसार की शांति व अस्तित्व के लिए उनको (और हमें भी!) करने की सीख यीशु ने दी थी और अपने लिए (और हमारे लिए) ‘वह महान पुण्य’ अर्जित करने को कहा था । केनेडी की हत्या इसी वजह से होती है कि वे परिणाम की परवाह किए बगैर बार–बार शांति की तरफ लौटते हैं । वे यीशु के उस प्राचीन निर्देश का पालन करते हैं कि जो कहता है कि शत्रु रोम का हो कि रूस का, हमें ईमानदारी से, भावुकता में बहे बिना उसे प्यार ही करना है – क्योंकि इसी में सबका भला है!”
यीशु का सत्याग्रह
गांधीजी यीशु के इसी प्राचीन निर्देश को ‘सत्याग्रह’ कहते हैं – सत्य की ताकत या आत्मा की ताकत! मेर्टन कहते हैं कि यही ताकत है जिससे उस अकथनीय सत्य का मुकाबला किया जा सकता है । वे कहते हैं कि गांधीजी की धार्मिक–राजनीतिक कार्यपद्धति मनुष्य के उस प्राचीन तत्वज्ञान पर आधारित है जो सभी धर्मों में समान है, फिर चाहे वह हिंदू धर्म हो कि बौद्ध कि ईसाई कि इस्लाम कि यहूदी – “सत्य ही हम सबके होने का औचित्य है ।” और इसी सत्य की दूसरी तरफ प्रेम है। मेर्टन कहते हैं कि सांस्कृतिक विकास के क्रम में मनुष्य जैसे–जैसे गहरे मानवीय मूल्यों की तरफ बढ़ता है, हमारे भीतर छिपी करुणा हमें उस अनकहे सत्य के सामने ला खड़ा करती है – करो, इस सत्य का सामना करो!
जेम्स डगलस कहते हैं कि इस ‘अकथनीय सत्य’ का अस्तित्व केवल अमरीकी समाज में नहीं है । वह भारतीय समाज में भी, गांधीजी की हत्या में भी साफ–साफ मौजूद है । वह सरकारी और संगठित ताकतों के साये में हमेशा मौजूद रहता है । डगलस बताते हैं कि स्वतंत्र भारत अपने जन्म से ही अणुबम से लैस लोकतंत्र का सपना लेकर चला है । अणुबम की आकांक्षा के साये में जीता भारतीय लोकतंत्र, एक रक्तपिपासु ढकोसले के रूप में आज गहरे पतन तक पहुंचा है । अमरीका का यह पहले ही हो गया था – 60 के दशक में! अमरीकी लोकतंत्र में की गई हत्याओं में जो सत्य दीखता है, उसके बारे में यहां बोला जाने वाला झूठ इतना पारदर्शी है कि आप बिना कहे ही सब कुछ समझ जाते हैं । हम सरकारी बयानों, घोषणाओं में उस अनकहे सच को साफ–साफ देख पाते हैं । हम हर पल, हर जगह उस अनकहे को, उस सन्नाटे को पहचान पाते हैं और यह भी समझ पाते हैं कि इस सन्नाटे में किस तरह भयानक हत्याएं रची जा सकती हैं, की जा सकती हैं, और फिर उसी सन्नाटे में सब कुछ दबा दिया जा सकता है ।
डगलस केनेडी की हत्या के सच तक पहुंच कर जब अवाक् रह जाते हैं तब वे गांधीजी की हत्या की तरफ मुड़ते हैं । अपनी खोजबीन करते हैं और फिर उस सच से रू–ब–रू होते हैं जो हमारे बीच हमेशा से मौजूद रहा पर जिसे बोलने की हिम्मत हम नहीं कर पाए; और तरह–तरह के शोर में जिसे सबने ढक दिया । डगलस को अभी–अभी जनमे लोकतांत्रिक भारत में, सत्ता की बेलगाम भूख दिखाई देती है । वे कहते हैं कि केनेडी की तरह ही गांधीजी भी लोकतंत्र विरोधी ताकतों द्वारा मार दिए गए, और केनेडी की तरह ही इस हत्या के पीछे के अशुभ खेल को छिपा दिया गया । देश की आजादी के बाद उन सारी ताकतों ने गांधीजी की हत्या की, जो उनके और उनके अहिंसक लोकतंत्र की कल्पना के विरोध में थे।
खूनी असत्य का अंधेरा
डगलस का मानना है कि अपने वक्त के उस खूनी असत्य के अंधेरे को भेदने अंतत: गांधीजी खुद ही आगे बढ़ते हैं । इसकी तैयारी वे अपनी उम्र की आधी सदी से अंतिम दिनों तक करते दिखाई देते हैं । गांधीजी अपने हत्यारे से भी प्रेम से मिलना चाहते हैं क्योंकि यही एकमात्र तरीका है इस अकथनीय का मुकाबला करने का । डगलस अपनी किताब के शुरू में ही पाठकों को आगाह करते हैं कि यह किताब गांधीजी की मौत का उत्सव मनाती है; वह मौत, जिसकी अहिंसक तैयारी वे ता–उम्र करते रहे थे । गांधीजी खुद को बार–बार मांजते हैं, जांचते हैं कि वे हिंसा के हाथों मौत का अहिंसक सामना करने की साधना में कहां तक पहुंचे हैं । हिंसा से रक्तरंजित दुनिया की मुक्ति इसी साहस से संभव है और यही उनके महात्मा होने की कसौटी भी है। यह किसी दूसरे ने नहीं, उन्होंने खुद ही कहा और खुद ही किया।
गांधी–हत्या की कहानी और उनके हत्यारों पर चले मुकदमों के विवरण से हम यह जान पाते हैं कि यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई है । जिन ताकतों ने उनकी हत्या की, वे उस हत्या के पर्दे में अब उनके चारित्र्य की, उनके विचारों पर आधारित समाज की संरचना की हत्या करने में लगे हैं । 21वीं सदी में भारतीय लोकतंत्र के लिए यही ताकतें सबसे बड़ा खतरा खड़ा करती हैं । लेकिन डगलस इस आशा का पल्ला कभी छोड़ते नहीं हैं कि जब तक हम इस ‘अकथनीय सत्य’ का मुकाबला गांधीजी की ही तरह प्रेम और सत्याग्रह से करते रहेंगे, तब तक हम खुद को भी, भारत को भी और इसी रास्ते संसार को भी ज्यादा मानवीय व सुसंस्कृत बनाते रह सकेंगे ।
(यह इस किताब का सार भर है, न कि उसका भाषांतर । इस किताब से दो तार्किक बातें निकलती हैं जिन्हें लेकर मैं आगे चलूंगी ।
पहली बात है गांधी–हत्या!
इस पर कई लोगों ने लिखा है । डगलस के शब्दों में कहूं तो यह वह सच है जो हमारे सामने हमेशा रहा है, दीखता भी रहा है पर सभी उसे बोलने में असमर्थ रहे हैं, क्योंकि उसके बोलने के परिणाम से सब डरते हैं । इस किताब में बहुत ही तार्किक तरीके से गांधी–हत्या की साजिश को और उसके विभिन्न पहलुओं को सामने लाया गया है । यह किताब इसलिए भी बहुत मजबूत, बहुत प्रभावी बन जाती है और गहरा घाव करती है क्योंकि डगलस हमारे पूरे संदर्भ से असंबंधित, एक निखालिस विदेशी व्यक्ति हैं । व्यक्तियों, संदर्भों, सबूतों तथा विचारधाराओं की जांच का उनका तरीका जितना तथ्यों पर आधारित है, उतना ही कठोर व नि:संग भी है ।
इस किताब का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है अहिंसा के संदर्भ में मृत्यु को लेकर गांधीजी का नजरिया!
“जिस तरह हिंसक लड़ाई में दूसरों की जान लेने का प्रशिक्षण देना और लेना पड़ता है, अहिंसक लड़ाई में ठीक उसी तरह खुद की जान देने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना पड़ता है ।” गांधीजी ने अपने हत्यारे का जिस तरह प्रेमपूर्वक सामना किया, वही थी गांधीजी की आखिरी वसीयत – संसार को अहिंसा के चरम की भेंट ! सत्य के अगिनत प्रयोगों से भरे जीवन का वह अंतिम प्रयोग था !
जीवन और मृत्यु के बीज
डगलस मानते हैं कि भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई को गांधीजी ने जिस तरह निर्देशित व संचालित किया उसने उनकी हत्या को आसान बना दिया । हत्या के बाद आजाद देश के चुने नेताओं के लिए यह बहुत आसान हो गया कि वे अपने राष्ट्रपिता के अहिंसा के सिद्धांत को दरकिनार कर दें और एक हिंसक समाज की रचना के सूत्र संभालकर आगे चल पड़ें । जापान का हिरोशिमा जब अणुबम से तबाह किया गया तब गांधीजी ने कहा, “मुझे इस बात से कोई धक्का नहीं लगा, उलटे मैंने अपने आपसे कहा कि यदि लोग अब भी अहिंसा को नहीं अपनाते हैं तो वे निश्चित ही मानवता को आत्मघाती रास्ते पर धकेल रहे हैं । मैं सबसे कहना चाहता हूं कि अहिंसा ही एक चीज है जिसे अणुबम भी नहीं मिटा सकता ।” लेकिन आजाद देश के नेताओं ने, आजादी के तुरंत बाद ही गांधीजी की इस अटल आस्था के विरुद्ध सैन्य–शक्ति पर आधारित एक राष्ट्रवादी देश की नींव रखी । स्वतंत्रता के इसी गहराते अंधेरे में गांधीजी शहीद हुए । उनकी शहादत उस अंधकारमय शून्य में घिरी है, जो सच न कह पाने के कारण आज भी बना हुआ है – अनकहा सच!! अकथनीय – अनस्पीकेबल!
मोहनदास करमचंद गांधीजी ने 1890 के दशक में दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह को खोजा, समझा, सीखा और खुद भी तथा अपने साथियों को भी उसमें प्रशिक्षित करना शुरू किया । वे जैसे–जैसे इस रहस्य की गहराई में उतरते गए, जीवन व मृत्यु को देखने की उनकी एक नई नजर बनती गई ।
( इस महत्वपूर्ण पुस्तक का यह भाष्य गाँधी मार्ग में छपा था। 101 पन्नों की यह पुस्तिका हम साभार प्रकाशित कर रहे हैं। इसे पूरा पढ़ने के लिए आप नीचे दी गयी पीडीएफ पर क्लिक करें–)
गाँधी-अकथनीय सत्य