शिक्षक दिवस पर विशेष
मशहूर इतिहासकार और मार्क्सवादी चिंतक प्रो.लालबहादुर वर्मा , छह साल पहले ‘अन्ना आंदोलन’ के दौरान रामलीला मैदान में एक पर्चा बाँटते घूम रहे थे। तब उनकी उम्र 74 साल थी, लेकिन चिलचिलाती गर्मी और उमस में अपने तरीके से अन्ना के आंदोलन से जुड़े तमाम सवालों का जवाब देने की वे कोशिश कर रहे थे। आज जब उस आन्दोलन की परिणति पर बहस हो रही है, तो प्रो.वर्मा का 24 अगस्त 2011 का यह पर्चा एक दस्तावेज़ की तरह है। केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद अन्ना हजारे तो शांत बैठ गए, लेकिन प्रो.वर्मा का यह पर्चा बार-बार सोचने को मजबूर करता है कि इस आंदोलन से किन्हें फ़ायदा हुआ और क्यों ! साथ ही यह सबक़ भी मिलता है कि शोषण-उत्पीड़न पर आधारित व्यवस्था के रहते भ्रष्टाचार को पूरी तरह ख़त्म कर पाना मुमकिन नहीं है-संपादक
मैं, लाल बहादुर वर्मा (उम्र 74 वर्ष, पूर्व प्रोफेसर, इतिहास विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय) रामलीला मैदान, दिल्ली में चल रही अन्ना परिघटना’ में शामिल होने के बाद उद्वेलित मन से आपसे मुखातिब हूँ.
इतिहास में ऐसे उदाहरण दर्ज है जब आंदोलन अपने तात्कालिक लक्ष्य से आगे बढ़ जाते है I हमारा राष्ट्रीय आंदोलन थोड़ी सी मांगों से शुरू हुआ था, पर उसका इस हद तक विकास हुआ कि दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र का जन्म हुआ. वह आंदोलन और आगे नहीं बढ़ा तो पतन शुरू हो गया और आज, फिर ‘आजादी की दूसरी लड़ाई’ की बात होने लगी है।
इसी सन्दर्भ में, आइये, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का मर्म समझने का प्रयास, कुछ प्रश्नों के उत्तर ढूंढते हुए करें:
.क्या ऐसे आंदोलनों से भ्रष्टाचार मिट सकता है ?
नहीं, पर इस तरह के आंदोलनों के दौरान ही स्पष्ट होता है कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए उसे पैदा वाली व्यवस्था भी बदलनी पड़ेगी.
.क्या यह निहित स्वार्थ का आन्दोलन है ?
हाँ ! देश के भारी बहुमत का स्वार्थ है कि समाज भ्रष्टाचार-मुक्त हो. नैतिक साहस के अभाव और परिस्थितियों के दबाव में, हम सब कभी-कभी भ्रष्टाचार में शामिल होते रहें है. जरूरत ऐसी व्यवस्था की है कि जिसमें भ्रष्टाचार कर पाना ही, असंभव नहीं, तो कठिन हो जाये.
.क्या यह किसी विदेशी शक्ति (अमरिका) या दक्षिण-पंथियों द्वारा संचालित है ?
ऐसा कहना उस जनता का अपमान करना होगा, जो स्वत:स्फूर्त ढंग से इसमें शामिल शामिल होती जा रही है. वैसे सभी राजनैतिक शक्तियां अवसरवादी होती है और हर हलचल का फायदा उठाने की कोशिश करती हैं. इस आन्दोलन का भी फायदा ‘गलत’ शक्तियां उठा लेंगी, अगर ‘सही’ शक्तियां इसमें भरपूर भागीदारी नहीं करतीं. रही अमेरिका द्वारा संचालित होने की आशंका तो यह वह सरकार कर रही है जिस पर स्वयं अमेरिका द्वारा संचालित होने का आरोप है.
.क्या यह आन्दोलन नगरों और मध्य वर्गों तक सीमित है ?
हो भी तो क्या? दुनिया के सभी आन्दोलन शुरू में सीमित ही होते रहे हैं. हमारा राष्ट्रीय आन्दोलन, अमरिकी क्रांति, फ़्रांसीसी क्रांति आदि सभी छोटे-छोटे मुद्दों से, नगरों में शुरू हुए और फिर व्यापक बनते चले गए. इस आन्दोलन की भी बात निकली है तो दूर तलक जायेगी. इस आन्दोलन का गांव-कस्बों तक विस्तार हो भी रहा है.
.कुछ लोगो का मत है कि अन्ना के विचार संकुचित हैं और वह एक केंद्रीकृत नौकरशाही का तंत्र लाना चाहते है. क्या यह व्यवस्था इससे और मजबूत नहीं होगी ?
ऐसा हो सकता है. परन्तु क्या ऐसे आंदोलन के दौरान कोई भी विचार जड़ रह सकता है. क्या अभी ही नए जनतंत्र और व्यवस्था-परिवर्तन की बात नहीं होने लगी है.
.क्या इस आन्दोलन में वे लोग नहीं शामिल हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं ?
किस आन्दोलन में ऐसा नहीं होता ? आंदोलनों और क्रांतियों के नेतृत्व में भी ऐसे लोग शामिल रहे है जिन पर ऐसे आरोप लगे हैं. पर आन्दोलन परिष्कार भी करते हैं. आंदोलनों से उपजी जन-शक्ति के सही प्रभाव से गलत लोग भी सही हो सकते हैं और गलत इस्तेमाल से सही लोग भी गलत हो जा सकते है. यह सब इस पर निर्भर करता है कि आन्दोलन कैसे चलता और चलाया जाता हैI
.क्या यह आन्दोलन संसद को लाँघ कर फ़ासीवाद की ओर नहीं बढ़ रहा है ?
यह पूर्वाग्रहग्रस्त सवाल है । वैसे फ़ासीवाद लाने के लिए संसद के ही माध्यम से शासक फ़ासिस्ट बन जाते रहे हैं – जैसे जर्मनी में हिटलर और आपातकाल में इंदिरा गाँधी. यह आन्दोलन तो संसद की उतनी भी अवहेलना नहीं कर रहा, जितनी सरकारें और विरोध पक्ष अक्सर करते रहे हैं. यह आंदोलन जिस जन-लोकपाल की बात कर रहा है, उसे संसद ही एक्ट पास कर बना सकती है. और स्वतंत्र लोकपाल संसद, न्यायपालिका और संविधान के मातहत ही रहेगा. रही बात फ़ासीवादी प्रवृति की, तो वह तो सरकारें दिखाती ही रही हैं. जैसे गुजरात में मोदी की सरकार, पश्चिमी बंगाल में लाल सरकार और इसी आंदोलन को कुचलने के सन्दर्भ में खुद वर्तमान केद्रीय सरकार.
.तो क्या किया जाये ?
इतिहास-बोध तो यही कह रहा है कि अगर जनता आंदोलित है तो उसके मानस को समझा जाय और उसके लक्ष्यों का विस्तार किया जाय, इस आंदोलन के थमने के बाद भी. इसीलिये, गांधी जी ने 1947 में कहा था कि कांग्रेस को भंग कर एक लोक सेवक संघ बनाना चाहिये, जो समाज के निर्माण में लग सके. पर सत्ता के प्यासे लोगों ने ऐसा नहीं होने दिया था. हमें तैयारी जारी रखनी चाहिये कि फौरी लक्ष्य पूरा होते ही समाज में संपत्ति और मूल्यों-मान्यताओं को लेकर ऐसे परिवर्तन किये जा सकें ताकि किसी भी तरह का भ्रष्टाचार पनप न सके, और अगर पनपे तो दूर किया जा सके. अंततः ऐसा तो एक शोषण-उत्पीडन से मुक्त विकेन्द्रित समाज में ही हो सकेगा जिसमें सत्ता वास्तव में जन के हाथों में होगी.
(प्रो.लालबहादुर वर्मा इलाहाबाद छोड़ दिल्ली आए थे, लेकिन देश की राजधानी उन्हें रास नहीं आई। वे देहरादून में बस गए हैं। वे मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं।)