कुंभ डायरी: निरंकुश सत्ता,बेलगाम अफ़सरशाही के बीच पिसते पहरुए!


ऐसा लगता है कि बीजेपी की सरकार रहते कुंभ में पत्रकारों का पिटना कोई रस्म बन गई है।


मीडिया विजिल मीडिया विजिल
दस्तावेज़ Published On :


प्रयागराज में मीडिया के साथ पुलिसिया दुर्व्यवहार की ख़बर है। गुरुवार को राष्ट्रपति के कार्यक्रम के पहले पुलिस ने टाइम्स ऑफ इंडिया के फोटोग्राफर अनुज खन्ना के साथ हाथापाई की। ऐसा लगता है कि बीजेपी की सरकार रहते कुंभ में पत्रकारों का पिटना कोई रस्म है। पहले भी ऐसा हुआ है। 2001 में भी ऐसा ही हुआ था। तब भी बीजेपी की सरकार थी। मशहूर पत्रकार और फोटोग्राफर ने प्रभात सिंह ने अपनी कुंभ डायरी में इस वाक़ये का ज़िक्र किया था जो अमर उजाला के 21 जनवरी 2001 के अंक में छपा। तब वे इस अख़बार के स्थानीय संपादक थे। यह वर्णन पढ़िए और सोचिए कि हालात कितने बदले हैं- संपादक

प्रभात सिंह

सिटी अस्पताल में जमा अख़बारनवीस वार्ड के अंदर से आती कराहट सुनते और बौखला जाते. रात के डेढ़ बजे अपने कमरे में बैठे  डॉ. ए.के. सिंह को इंतजार था, सीटी स्कैन की रिपोर्ट आने का ताकि इलाज की दिशा तय कर सकें. थोड़ी देर बाद कुछ लोग रिपोर्ट लेकर पहुंचे तो पता चला कि रफ़त अली को हैमरेज हुआ है, एस.के. यादव बाल-बाल बच गए. नवीन के सिर में टांके लगाने पड़ेंगे, सुधीर सिन्हा को मामूली चोटें हैं. ये सभी अखबारों के संवाददाता और फोटोग्राफर हैं, जिन्हें कुंभ मेले में ‘संकटमोचन’  के नाम से प्रचारित किए गए पुलिस और पीएसी के जवानों ने दौड़ा-दौड़ाकर लाठियों, बूटों और घूसों से मारा. उनके पास इनको पीटने का ‘पर्याप्त कारण’  भी है. अपना काम करते समय जवानों की बदतमीजी से आजिज़ आकर इन्होंने अपनी नाराजगी ज़ाहिर की थी. रह-रहकर चोटों की वजह से कराह उठते एस.के. यादव या बुरी तरह सूजे हुए चेहरे और सिर के पिछले हिस्से में पुलिस की लाठी से हुए घाव की बेपनाह तकलीफ़ से बुत बन गए रफत को जिन लोगों ने भाग-भागकर काम करते हुए देखा है, उनके लिए यह और तकलीफ़देह था. इन चोटों की तकलीफ़ से ऊपर घुटन इस बात की कि अफ़सरों की बात से सहमत होकर धरना ख़त्म कर चुके अख़बारवालों पर यह बर्बर हमला कानून की हिफ़ाजत के नाम पर और बाक़ायदा पुलिस अफ़सरों की शह पर किया गया.

निहत्थों पर लाठी-गोली चलाना पुलिस के लिए कोई नई बात नहीं. इसलिए कल शाम कुंभनगर की लाल सड़क पर जो भी हुआ, उस पर पछतावे या शर्मिंदगी की कोई वजह नहीं. तर्क यह कि अख़बार वालों में से किसी ने धक्का देने पर गुस्से में एक जवान को पीट दिया था, जो न तो वर्दी में था और न ही ड्यूटी पर. जवान को पीटने के मामले में पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई के लिए पुलिस के अफ़सरों को भारतीय दण्ड संहिता की कोई धारा इसलिए भी याद नहीं आई क्योंकि ख़ाकी पर हाथ उठाना अफ़सरशाही के साथ ही सत्ता की भी हत्तक है.

अंग्रेजी हुक़ूमत के ज़माने में मिली वर्दी, बेटन और बंदूक के साथ ही देसी लोगों को सख़्ती से कुचलने का क़ायदा विरासत में पाकर क़ानून की हिफ़ाजत करने का एक ही तरीका पुलिस को मालूम है. कल शाम भी मौक़े पर गए एक एएसपी ने बाक़ायदा गोली चलवाने की धमकी दी. विरासत में मिले संस्कार से प्रेरित अफ़सरों ने एक अख़बार वाले के ख़िलाफ कानूनी कार्रवाई के बजाय पूरे समूह को सबक़ सिखाने के लिए जो कार्रवाई की, उसे बदले की भावना के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता. अस्पताल के कमरे में पड़े रफत की पीठ पर मौजूद बूटों के गहरे निशान और उसके बेड के पास ही खूंटी पर टंगी मगर चिथड़ा हो गई उसकी चमड़े की जैकेट भी इसी बात की गवाही देती है.

घटना के तुरंत बाद से पूरे मामले में लीपापोती करने जुट गए पुलिस और प्रशासन के अफसरों का रुख़ देखकर भी जवानों की इस बहादुरी की वजह समझ में आती है. उनकी बर्बरता को पर्याप्त संरक्षण का पूरा भरोसा मिला हुआ था. तभी तो रात को अफ़सर अस्पताल के डॉक्टरों को पूरे खर्च की भरपाई का वायदा करते घूमे. मानो पीट दिया तो पीट दिया, इलाज का ख़र्च भर देंगे और क्या कर सकते हैं? सत्ता के दूत के नाते मामले की जांच को यहां भेजे गए लालजी टंडन का रवैया इस बात को और पुष्ट करता है. गंभीर रूप से घायल फोटोग्राफर और संवाददाताओं से मिलकर वस्तुस्थिति जानने की कोशिश करने के बजाय टंडन यहां पहुंचने के बाद चार घंटे से ज्यादा समय तक अफ़सरों से बतकही में मसरूफ़ रहे. इसके बाद मौक़ा मिला तो मीडिया कैंप में पहुंचकर अख़बारवालों पर ही भड़क गए. शाम तक मेला क्षेत्र में ही रहे टंडन ने बाकायदा साधू-संतों और उनके मुखिया से मिलकर उन्हें मीडिया के ख़िलाफ भड़काने की पुरजोर कोशिश की. यह बात अलग है कि उनकी सुनने वाले ही बहुत कम मिले. अफ़सरशाही और सत्ता के इस दुष्चक्र के बीच कलम की आज़ादी, अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे नारे या धरना जैसे अहिंसक माध्यम लाठियों के निशाने पर ही बने रहेंगे, फिर चाहे वे निहत्थे किसान-मजदूर हों या फिर उनकी आवाज उठाने वाले लोकतंत्र के पहरुए.

(इलाहाबाद में अमर उजाला के 21 जनवरी 2001 के अंक में छपी यह टिप्पणी कुंभ मेले में दो दिन पहले हुई घटना का विश्लेषण है. शाम के धुंधलके में पीएसी के घुड़सवार जवानों ने मीडिया कैंप में धावा बोलकर अख़बार वालों को जमकर पीटा था. 20 जनवरी को वाराणसी के सर्किट हाउस में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह की प्रेस कॉन्फ्रेंस में काले बैज लगाकर पहुंचे अख़बारनवीसों ने संबंधित अफसरों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग की. राजनाथ सिंह जांच के बाद ही कार्रवाई के पक्ष में थे. अख़बार वालों ने उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस का बहिष्कार कर दिया. इस मामले को दबाने की सरकार ने पूरी कोशिश की और इलाहाबाद के तमाम अख़बारों ने भी धीरे-धीरे ख़ामोशी अख्तियार कर ली. यहां तक कि कुंभ मेले में चल रहे अख़बारनवीसों के धरने की ख़बरें भी अख़बारों से ग़ायब हो गईं.अमर उजाला में लगातार छप रही रिपोर्ट्स से परेशान सत्ता दल के नेताओं ने समूह संपादक से भी बात की. उन्होंने ही बताया था कि राजनाथ सिंह के साथ ही ब्यूरोक्रेसी के कुछ बड़ों ने भी उनसे इस मसले को निपटाने के बारे में बात की है. फिर यह भी कहा था, बस इतना ध्यान रखना कि जो लिखो-छापो ,वह सच हो. ख़ैर, इस मामले में भी वही हुआ, जो अक्सर होता आया है. कुछ महीने बाद उन अख़बारवालों को मुआवजे बांट दिए गए जो घायल हुए थे या जिनके कैमरे टूटे-खोए थे. कार्रवाई किसी अफ़सर पर न तो होनी थी और न ही हुई. )